[सुशील कुमार सिंह]। CAB 2019: क्या पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आए मुसलमानों को नागरिकता संशोधन कानून में स्थान नहीं दिया गया है तो इससे संविधान की भावना को ठेस पहुंची है? देखा जाए तो उक्त देशों के मुस्लिम विशेष को नागरिकता देना या न देना संविधान के अनुच्छेद 14 का मामला न होकर संविधान के भाग-2 में निहित अनुच्छेद 11 के अंतर्गत निर्मित नागरिकता कानून का मामला है जो केवल लोगों की नागरिकता को निर्धारित करता है, न कि उनके साथ भेदभाव को राष्ट्रपति की मुहर लगते ही नागरिकता (संशोधन) कानून-2019 अस्तित्व में आ गया है।

अब पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए हिंदू, जैन, बौद्ध, सिख, पारसी और ईसाई समुदाय के लोगों को भारत की नागरिकता मिलनी सुलभ हो जाएगी। हालांकि नागरिकता उन्हें ही मिलेगी जो 31 दिसंबर, 2014 से पहले भारत आए हैं। स्पष्ट कर दें कि इस कानून को लेकर विपक्ष के अलावा जनमानस की भी राय बंटी हुई है। जिसका प्रमुख कारण मुस्लिमों को इससे अलग रखना है।

विपक्ष का आरोप मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा

कानून की खासियत यह है कि पहले नागरिकता हासिल करने के लिए भारत में रहने की अवधि 11 वर्ष थी अब इसे 5 साल कर दिया गया है। गौरतलब है कि नागरिकता कानून 1955 के मुताबिक अवैध प्रवासियों को भारत की नागरिकता नहीं मिल सकती। इसमें उन लोगों को अवैध प्रवासी माना गया था जो बरसों पहले बिना वीजा, पासपोर्ट के भारत की सीमा में घुस आए हैं। ऐसे में इन्हें या तो जेल हो सकती है या वापस भेजा जा सकता है, लेकिन अब संशोधन के बाद कानून में मुस्लिमों को छोड़कर शेष धर्म के लोगों को छूट दे दी गई है। इसका अर्थ यह हुआ कि यदि भारत में वैध दस्तावेज के बगैर भी गैर मुस्लिम शरणार्थी पाए जाते हैं तो उन्हें न तो जेल भेजा जाएगा, न ही निर्वासित किया जाएगा, बल्कि उन्हें नागरिकता दे दी जाएगी। इस मसले को लेकर विपक्ष का यह आरोप है कि मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा है।

1976 में हुए 42वें संशोधन में धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़ा गया था

सवाल यह है कि क्या नागरिकता संशोधन कानून मुसलमानों से भेदभाव कर रहा है। भारतीय संविधान की उद्देशिका में साल 1976 में हुए 42वें संशोधन में धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़ा गया था। हालांकि इस शब्द के बगैर भी भारत धर्म के सापेक्ष कभी नहीं रहा। पूरे संविधान को पढ़ें तो यह स्पष्ट होता है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है। जब संविधानविदों ने अनुच्छेद 19(1) (क) के अंतर्गत वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर इस बात को लेकर चर्चा की कि यदि आने वाले समय में इस स्वतंत्रता का लाभ लेकर कोई धार्मिक प्रचार-प्रसार आदि को महत्व देता है, तब ऐसी स्थिति में क्या होगा? उन दिनों दृष्टिकोण यह उभरकर आया कि धर्म लोगों का निजी मामला है और इसे उन्हीं पर छोड़ देना चाहिए।

संविधान की भावना को ठेस पहुंची है?

संविधान के भाग 3 में मौलिक अधिकार के भीतर अनुच्छेद 15 में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर किसी से भेदभाव नहीं होगा और यह केवल भारतीय नागरिकों पर लागू है, जबकि अनुच्छेद 14 विधि के समक्ष समता और विधियों के समान संरक्षण की बात कहता है और यह नागरिकों के साथ गैरनागरिकों को भी मिला है। अब सवाल यह है कि क्या पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आए मुसलमानों को यदि इस कानून में स्थान नहीं दिया गया तो संविधान की भावना को ठेस पहुंची है? उक्त देशों के मुस्लिम विशेष को नागरिकता देना या न देना अनुच्छेद 14 का मामला न होकर संविधान के भाग 2 में निहित अनुच्छेद 11 के अंतर्गत निर्मित नागरिकता कानून का मामला है जो केवल नागरिकता को निर्धारित करता है, न कि भेदभाव को। इस कानून में इसके पहले पांच बार संशोधन हो चुके हैं।

हिंदू समेत अन्य धर्मों को इस कानून में स्थान देना धर्मनिरपेक्षता

जाहिर है 2019 का यह संशोधन उसी का एक चरण है। नागरिकता प्राप्त किसी भी धर्म के व्यक्ति के साथ यदि भेदभाव होता तब संविधान का उल्लंघन है। और भारत के भीतर किसी व्यक्ति के साथ भेदभाव होता है तब संविधान का उल्लंघन है इसमें घुसपैठी अपवाद हैं। गंभीर दृष्टि से देखा जाए तो यह कानून संविधान का कोई उल्लंघन करता नहीं दिखाई देता। हालांकि संविधान संरक्षक सर्वोच्च न्यायालय का इस पर न्याय निर्णय क्या होगा यह बाद में पता चलेगा। दो टूक यह भी है कि हिंदू समेत अन्य धर्मों को इस कानून में स्थान देना धर्मनिरपेक्षता का ही परिचायक है। रही बात मुसलमानों को शामिल नहीं करने की तो इसकी वजह को शोषण से जोड़कर देखा गया है। चूंकि तीनों देश इस्लामिक हैं, ऐसे में शोषण और प्रताड़ना मुसलमानों का नहीं अल्पसंख्यकों का हुआ है।

ऐसे में कानून से उन्हें अलग करना किसी प्रकार का पक्षपात नहीं दिखाई देता। यह बात और पुख्ता तरीके से इसलिए कही जा सकती है, क्योंकि भारतीय मुसलमान नागरिकों को यह कानून कोई नुकसान नहीं पहुंचाता है। इस कानून पर बहस का तेज होना स्वाभाविक है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि देश में नागरिक कौन है और कौन नहीं, इसका पता होना चाहिए।

नागरिकता देने का कानून है न कि छीनने का

सरकार की यह दलील भी रही है कि यह नागरिकता देने का कानून है न कि छीनने का। ऐसे में संविधान को तनिक मात्र भी इससे नुकसान नहीं होता है। बावजूद इसके पूर्वोत्तर भारत में आंदोलन चल रहा है, क्योंकि उन्हें डर है कि नागरिकता संशोधन कानून के चलते 13 लाख हिंदुओं को भारत की नागरिकता मिलेगी जो उनकी रोजी, रोजगार से लेकर संस्कृति तक पर खतरा होंगे।

हालांकि असम के कुछ क्षेत्र समेत इनर लाइन परमिट वाले राज्य इस कानून से अछूते रहेंगे। देखा जाए तो यह काल और परिस्थितियों के बदलावस्वरूप लिया गया एक फैसला है, जिसके चलते सरकार उन्हें नागरिक बनाने का प्रयास कर रही है जो उक्त देशों के गैरमुस्लिम हैं और आजादी से पहले वे भी भारत का हिस्सा थे। इस कानून से इस बात की भी पुष्टि होती है कि 1947 का शेष 2019 में पूरा किया जा रहा है।

असम के भीतर जो 6 लाख मुस्लिम हैं उनका क्या होगा?

बावजूद इसके बड़ा सवाल यह है कि हिंदुओं को तो नागरिकता मिल जाएगी, पर असम के भीतर जो 6 लाख मुस्लिम हैं उनका क्या होगा? ऐसे सवाल पर एक कार्यक्रम में रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने कहा है कि भारत मानवता वाला देश है, इसका पूरा ख्याल रखा जाएगा। प्रश्न यह भी है कि जब नागरिकता कानून से लेकर एनआरसी तक की पहल से विपक्ष सहित कुछ वर्गों में भी असंतोष है तो आखिर सरकार जन साधारण के खिलाफ क्यों जाना चाहती है? पूर्वोत्तर के व्यापक विरोध प्रदर्शन के बावजूद नागरिकता संशोधन कानून को लेकर सरकार इतनी संजीदा क्यों रही? इसके लिए पूर्वोत्तर राज्यों और बंगाल में भाजपा को मिली चुनावी सफलता को भी एक कारण माना जा सकता है। गौरतलब है कि पूर्वोत्तर की 25 संसदीय सीटों में सहयोगियों सहित भाजपा ने 18 पर जीत दर्ज की है।

भारतीय संविधान की पांचवीं अनुसूची में आने वाले पूर्वोत्तर भारत के कई इलाकों को इससे मुक्त रखा गया है, जबकि छठी अनुसूची के असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम के कुछ क्षेत्र इसमें शामिल हैं। हालांकि इस नागरिकता कानून के चलते भारत की आबादी पर भी प्रभाव पड़ेगा। तीन पड़ोसी देशों से करीब 32 हजार लोग भारत में लंबी वीजा अवधि पर रह रहे हैं जिन्हें तुरंत फायदा होगा। इसमें 25 हजार हिंदू, 58 सौ सिख, 55 ईसाई, दो बौद्ध, दो पारसी शामिल हैं। अमेरिका से लेकर यूरोप तक के कुछ समाचारपत्र भारत की पंथनिरपेक्षता पर सवाल उठा रहे हैं जिसे बेबुनियाद करार दिया जाना चाहिए।

[निदेशक, वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन]