[मनीष तिवारी]। Citizenship Amendment Bill 2019: नागरिकता संशोधन बिल (सीएए) की हाल की संक्षिप्त कहानी यह है कि इससे संबंधित संशोधन विधेयक संसद सदस्यों की एक साझा प्रवर समिति के लंबे विचार-विमर्श के बाद इस साल पेश किया गया था। बहुमत से इस समिति की रिपोर्ट को स्वीकार किया गया और दोनों सदनों के पटल पर इसे रखा गया, लेकिन तभी लोकसभा चुनाव आ गए और इसका नतीजा यह हुआ कि इस पर बहस टल गई।

आखिरकार दिसंबर में इसे फिर से पेश किया गया और यह दोनों सदनों से पारित हुआ। बदले कानून पर बवाल जारी है, अलग-अलग याचिकाएं अदालतों में हैं, पक्ष-विपक्ष में तलवारें खिंची हैं, तोड़-फोड़ के बाद नुकसान का आकलन किया जा रहा है, उत्पातियों की धरपकड़ की जा रही है, अलग-अलग कनेक्शन निकल रहे हैं। इसी बीच इस प्रसंग की पड़ताल जरूरी है और वह भी पाला बदलने वाली सियासत के एक नए एपिसोड के साथ।

सवाल यह है कि यह बिल क्यों जरूरी है। इससे किसे लाभ हो रहा है और इससे भी बड़ा सवाल यह है कि इससे नुकसान में कौन है? तीसरे सवाल का जवाब है कि देश का कोई भी नागरिक नुकसान में नहीं है। किसी के अधिकारों का कोई अतिक्रमण नहीं हो रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह पिछले दस दिनों में इसे स्पष्ट कर चुके हैं। बिल क्यों जरूरी है, इस सवाल के जवाब के लिए पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश सरीखे इस्लामिक देशों के चरित्र को समझना होगा। 1947 के बाद से इन देशों में धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ हुई बर्बरता के किस्से इतिहास में दर्ज हैं। जिस सेक्युलरिज्म का अपने देश में नारा

बुलंद किया जाता है उसका एक अंश भी इन देशों में नहीं है।

नतीजा यह है कि इन तीनों देशों में गैर-मुस्लिम देशों की आबादी तेजी से घटती जा रही है। शासन द्वारा समर्थित-संरक्षित और पोषित बर्बरता से बचने का एकमात्र तरीका यह है कि जबरन धर्मांतरण की कोशिशों के आगे सिर झुका दिया जाए। कोई उत्पीड़ित अल्पसंख्यक बड़ी कठिनाई से इन देशों से निकल पाता है, ताकि उसे भारत में शरण मिल सके। ऐसे अल्पसंख्यकों में हिंदू भी शामिल हैं, सिख, जैन, बौद्ध, ईसाई और पारसी भी।

भारत के पड़ोसी देशों में दमन और उत्पीड़न के शिकार अल्पसंख्यकों की दशा-दिशा पर राजनीतिक दल चिंता तो जता रहे हैं, लेकिन उन्होंने उनकी भलाई के लिए शायद ही कभी कुछ ठोस किया हो। दरअसल जरूरत घुसपैठियों और शरणार्थियों में फर्क करने की थी, लेकिन इस वर्गीकरण से कथित सेक्युलर दलों ने हमेशा परहेज किया। नागरिकता संशोधन कानून पर सबसे अधिक चौंकाने वाला रवैया कांग्रेस का है। आज इस कानून के खिलाफ कभी धरना दे रही, कभी जामिया के उत्पाती छात्रों के अधिकारों की वकालत कर रही तो कभी कानून को संविधान और सेक्युलरिज्म के खिलाफ बता रही कांग्रेस इस तथ्य पर हरसंभव तरीके से पर्दा डालने की कोशिश कर रही है कि 2003 में राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष के रूप में मनमोहन सिंह ने सीएए जैसे कानून की वकालत की थी।

पिछले दिनों भाजपा ने जब मनमोहन सिंह का वही वीडियो जारी किया तो कांग्रेस को जवाब देते नहीं बना। तब मनमोहन सिंह ने सदन के भीतर कहा था-बांग्लादेश सरीखे देशों में अल्पसंख्यकों ने दमन-उत्पीड़न झेला है। यह हमारी नैतिक जिम्मेदारी है कि अगर परिस्थितियां इन लोगों को भारत में शरण लेने के लिए मजबूर करें तो हमारा दृष्टिकोण उन्हें देश में नागरिकता देने का होना चाहिए। मनमोहन सिंह अकेले कांग्रेस नेता नहीं हैं जिन्होंने नागरिकता कानून जैसी व्यवस्था की मांग की थी।

2014 में असम के तत्कालीन मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने भी लगभग ऐसे ही शब्दों के साथ सीएए की मांग की थी। सवाल यह है कि अब कांग्रेस को सीएए पर आपत्ति क्या है? वामपंथी दल अथवा कथित मानवाधिकारवादी संगठन अगर सीएए का विरोध कर रहे हैं तो यह समझा जा सकता है कि उन्हें भाजपा, आरएसएस अथवा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कोई भी कदम कभी रास नहीं आता, लेकिन एक राष्ट्रीय दल के रूप में कांग्रेस को तो जमीनी हकीकत का अहसास होना चाहिए।

आखिर कांग्रेस से ज्यादा किस अन्य दल को विभाजन की परिस्थितियों की जानकारी होगी। बांग्लादेश का गठन कैसे और क्यों हुआ था, यह कांग्रेस सबसे ज्यादा जानती है। यह कांग्रेस की कार्यसमिति ही थी जिसने 25 नवंबर, 1947 को पाकिस्तान में हिंदुओं और अन्य अल्पसंख्यकों के हालात पर चिंता जताई थी। तब कार्यसमिति ने एक प्रस्ताव पारित किया था, जिसमें कहा गया था कि उन सभी गैर मुस्लिमों को पूरा संरक्षण मिलना चाहिए जो पाकिस्तान से भारत आए हैं अथवा अपना जीवन और सम्मान बचाने के लिए आने वाले हैं।

अच्छा होगा कि अगर आज सीएए के विरोध पर आमादा कांग्रेस उस प्रस्ताव को फिर से निकाल कर पढ़े। भाजपा का विरोध करना एक बात है, एक विपक्षी दल के रूप में कांग्रेस को इसका पूरा अधिकार है कि वह सरकार की आलोचना करे और अपनी वापसी की जमीन की तलाश में जुटे, लेकिन इस क्रम में उसे एकतरफा सोच के जाल में फंसने से बचना होगा। उससे अपेक्षा यही है कि नीति के मामले पर वह नीर-क्षीर ढंग से बर्ताव करे। अगर कांग्रेस उन लोगों के साथ खड़ी नजर आएगी जो विरोध के नाम पर बसें-ट्रेनें फूंक रहे हैं, पुलिस चौकियों पर हमले कर रहे हैं तो उसकी राह और मुश्किल ही होगी।