जागरण संपादकीय: पूर्वोत्तर में चल रहे षड्यंत्र की अनदेखी, रोकना होगा मतांतरण का काला खेल
भारत को इस्लाम के बाद अब ईसाईयत के आधार पर पुनः विभाजन का दंश न झेलना पड़े इसके लिए देश को सतर्क रहना होगा। भारत बांग्लादेश और म्यांमार के हिस्सों को काटकर अगर कोई ईसाई देश बना तो भविष्य में वह महाशक्तियों के टकराव की भूमि बनेगा। अमेरिका-चीन भारत के पड़ोसी देशों में जिस तरह सक्रिय हैं उसकी अनदेखी ठीक नहीं है।
हरेंद्र प्रताप। पहले पाकिस्तान और अब बांग्लादेश में तख्तापलट का आरोप अमेरिका पर लगा है। पिछले दिनों बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना ने यह आरोप लगाया था कि बांग्लादेश और म्यांमार के कुछ हिस्सों को अलग कर पूर्वी तिमोर जैसा एक ‘ईसाई देश’ बनाने की साजिश रची जा रही है। इसके बाद न केवल उनकी सरकार उखाड़ फेंकी गई, बल्कि उन्हें अपनी जान बचाने के लिए बांग्लादेश से भागकर भारत में शरण लेनी पड़ी। उन्होंने यह भी कहा था कि इस वर्ष जनवरी में चुनाव में उन्हें जिताने का
लालच दिया गया था। लालच देने वाले ने उनसे बांग्लादेश में अपना एक ‘एयरबेस स्थापित’ करने की शर्त रखी थी। उन्होंने किसी देश का नाम तो नहीं लिया, लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका और चीन के बीच बढ़ रहे तनाव के कारण अमेरिका पर संदेह जाता है। पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान ने भी जब अमेरिका के खिलाफ मोर्चा खोला तो न केवल उनकी सरकार बेदखल हो गई, बल्कि उन्हें जेल की कोठरी में डाल दिया गया।
शेख हसीना ने जिस भावी ईसाई देश की तरफ इशारा किया था, उसमें भारत के पूर्वोत्तर के कम से कम पांच राज्य-अरुणाचल, नगालैंड, मणिपुर, मिजोरम और मेघालय को भी शामिल करने की साजिश हो रही है। इन पांच राज्यों में से तीन मिजोरम, नगालैंड और मेघालय ईसाई बहुल हो गए हैं। जिस तेजी से पूर्वोत्तर में मतांतरण का षड्यंत्र चल रहा है, उसके आधार पर यह आशंका व्यक्त की जा रही है कि निकट भविष्य में अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर भी ईसाई बहुल हो जाएंगे।
मिजोरम में ईसाई आबादी 90 प्रतिशत है। 1951 में नगालैंड में ईसाई 46.04 प्रतिशत थे, जो 2011 में बढ़कर 87.92 प्रतिशत हो गए। मेघालय में भी 1961 में ईसाई जनसंख्या 35.21 प्रतिशत थी, जो 2011 में बढ़कर 74.59 प्रतिशत हो गई।
अरुणाचल में 1971 तक मात्र 0.78 प्रतिशत ही ईसाई थे, जो 2011 में बढ़कर 30.26 प्रतिशत तक पहुंच गए। 1951 में मणिपुर में ईसाई जनसंख्या 11.84 प्रतिशत थी, जो 2011 में बढ़कर 41.28 प्रतिशत हो गई। इन राज्यों को आपस में जोड़ने के लिए असम के कार्बी आंगलोंग जिले को चुना गया है। विगत चार दशक में इस जिले में ईसाई सात प्रतिशत से बढ़कर 17.50 प्रतिशत तक हो गए हैं।
भारत का विभाजन हिंदू-मुस्लिम के आधार पर हुआ था। विभाजन के बाद देश में नारे लगाए जाते रहे-‘हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई-आपस में हैं भाई-भाई।’ 1947 में दो भाई के बीच बंटवारा हो गया तो बाद में दो अन्य भी बंटवारे की मांग करने लगे। आजादी के तुरंत बाद पूर्वोत्तर में कुछ लोगों ने ईसाई सशस्त्र संघर्ष छेड़ दिया। 1980 में पंजाब में भी कुछ अलगाववादी खालिस्तान का नारा लगाने लगे। पूर्वोत्तर राज्यों में ईसाईकरण का अभियान अलगाववाद को ही बल दे रहा है।
इस देश का साधन संपन्न और ईसाई मिशनरियों द्वारा संचालित शिक्षण संस्थानों से पढ़कर निकला एवं उच्च पदों पर विराजमान प्रबुद्ध वर्ग अपनी सेक्युलर छवि बनाए रखने तथा पश्चिमी देशों में ‘वीजा’ संबंधी कठिनाइयों से बचने के लिए पूर्वोत्तर में चलाए जा रहे ईसाई अलगाववाद पर मौन धारण किए हुए है।
इस्लामिक आतंकवाद की तरह ही पूर्वोत्तर में अनेक ईसाई उग्रवादी संगठन भी सक्रिय हैं। त्रिपुरा में संचालित नेशनल लिबरेशन फ्रंट आफ त्रिपुरा (एनएलएफटी) के उग्रवादियों ने 1999 में वनवासी कल्याण आश्रम के चार पदाधिकारियों का अपहरण कर उन्हें बांग्लादेश ले जाकर उनकी हत्या कर दी थी।
वे शिक्षा-स्वास्थ्य-रोजगार को लेकर जनजाति समाज में कार्यरत वनवासी कल्याण आश्रम को काम करने से रोकना चाहते थे। गत दिनों एनएलएफटी के साथ केंद्र सरकार का शांति समझौता तो हो गया, पर भविष्य में इसके लोग किसी अन्य नाम से पुन: सशस्त्र संघर्ष नहीं छेड़ेंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है। ईसाई बहुल नगालैंड में विरोध के कारण ही अटल बिहारी वाजपेयी की अस्थियों को वहां की सबसे बड़ी नदी डोयांग के बदले एक छोटी नदी में विसर्जित करना पड़ा था।
विगत वर्ष मणिपुर में हाई कोर्ट के एक फैसले को लेकर वहां के मूल निवासी मैतेयी और अप्रवासी कुकी के बीच टकराव हुआ। मैतेयी मणिपुर के मूल निवासी हैं। कुकी म्यांमार, नगालैंड तथा मिजोरम से आकर मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्रों में बसे हैं।
यहां नशे का कारोबार करने वाले अधिकतर ईसाई अलगाववादी समूह हैं। उनकी ईसाईयत की राह में मैतेयी रोड़ा साबित हो रहे हैं। मैतेयी समुदाय को उच्च न्यायालय ने जनजाति का दर्जा देने पर विचार करने को कहा था। इसका विरोध करने ही कुकी लोग सड़कों पर उतरे। प्रतिक्रिया में मैतेयी भी सड़कों पर आए।
हालांकि कुकी महिलाओं के साथ जो जघन्य अपराध हुआ, उसकी जितनी भी आलोचना की जाए, कम है, लेकिन इस घटना पर ईसाई संगठनों की जिस प्रकार की प्रतिक्रिया सामने आई, उससे बड़े खतरे का संकेत मिलता है। मणिपुर में मैतेयी और कुकी समुदाय के आपसी संघर्ष का चर्च द्वारा किए जा रहे अंतरराष्ट्रीयकरण की अनदेखी राष्ट्रघाती होगी।
केरल के आर्कबिशप ने विगत लोकसभा चुनाव में मणिपुर का मुद्दा उठाते हुए यह आरोप लगाया था कि ईसाई वर्ग पर अंधेरी ताकतें हिंसा कर रही हैं। दुखद यह है कि पूर्वोत्तर राज्यों में हो रहे इन षड्यंत्रों को जानते हुए भी लोग उसके खिलाफ मुखर नहीं हैं।
भारत को इस्लाम के बाद अब ईसाईयत के आधार पर पुनः विभाजन का दंश न झेलना पड़े, इसके लिए देश को सतर्क रहना होगा। भारत, बांग्लादेश और म्यांमार के हिस्सों को काटकर अगर कोई ईसाई देश बना तो भविष्य में वह महाशक्तियों के टकराव की भूमि बनेगा। अमेरिका-चीन भारत के पड़ोसी देशों में जिस तरह सक्रिय हैं, उसकी अनदेखी ठीक नहीं है।
(लेखक बिहार विधान परिषद के पूर्व सदस्य हैं)