नई दिल्ली [ आरपी सिंह ]। वर्ष 1962 के बाद 2017 भारत-चीन संबंधों में सबसे ज्यादा हलचल भरा साल रहा। बीते साल चीन ने बिल्ट एंड रोड इनिशिएटिव यानी बीआरआइ का आगाज किया। इसका मकसद हान राजवंश के 2000 साल पुराने चीनी स्वर्णिम दौर वाले रेशम मार्ग को पुनर्जीवित करना है। यह बुनियादी ढांचे और निवेश की दुनिया में सबसे बड़ी परियोजना है। इसमें 68 देशों के साथ दुनिया की 65 फीसद आबादी जुड़ी है इसमें वैश्विक जीडीपी का करीब 40 प्रतिशत हिस्सा शामिल है। इसे सहभागी पहल बनाने के बजाय बीजिंग ने इसमें अपना मनमाना एजेंडा लागू कर दिया। भारत के सामने दो विकल्प थे या तो वह चीन का पिछलग्गू बनकर बीआरआइ में शामिल हो जाए या फिर एकसमान विचारों वाली आर्थिक शक्तियों के साथ मिलकर एशिया अफ्रीका प्रगति गलियारे यानी एएजीसी जैसी किसी पहल को बढ़ाए।

मोदी ने दूसरा विकल्प ही चुना और फिर जून, 2017 में डोकलाम का मसला सामने आ गया। चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग निजी एवं राष्ट्रीय आकांक्षाओं को लेकर बेहद महत्वाकांक्षी नेता हैं। वह चीन के महान हान सम्राट वू (141-87 ईसा पूर्व) के पदचिन्हों पर चलने की कोशिश कर रहे हैं। वू का दौर चीन में स्वर्णिम काल माना जाता है। तब चीन की सीमाएं पश्चिम में किर्गिस्तान से लेकर पूर्व में कोरिया और दक्षिण में वियतनाम तक फैली हुई थीं। हान राजवंश ने ही रेशम मार्ग बनाया और कालांतर में उनके दौर में ही चीन में बौद्ध धर्म का प्रसार भी हुआ। चिनफिंग खुद हान समुदाय से ताल्लुक रखते हैं और वह अपने बहुप्रचारित ‘चीनी स्वप्न’ और ‘चीनी राष्ट्र के पुनरोत्थान’ को अमली जामा पहनाकर आधुनिक वू बनना चाहते हैं।

चिनफिंग न केवल दक्षिण चीन सागर और बीआरआइ के जरिये चीन को आगे बढ़ा रहे हैं, बल्कि चीन को विश्व में बौद्ध धर्म का अगुआ बनाने पर भी काम कर रहे हैं। औपनिवेशिक काल से सीख लेते हुए बीजिंग भारतीय हिमालयी पट्टी, मंगोलिया और रूस में अपनी पैठ जमाने के लिए तिब्बत के ताकतवर सांस्कृतिक जुड़ाव का

सहारा ले रहा है। धार्मिक कूटनीति के माध्यम से ही चीन को म्यांमार, श्रीलंका, नेपाल सहित कई जगहों पर परियोजनाएं आसानी से मिली हैं। दक्षिण एशिया में अपने हित साधने और भारत को घेरने के लिए चीन ने ‘मोतियों की माला’ वाली रणनीति बनाई है। इसके तहत वह पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश और म्यांमार जैसे देशों में नौसैनिक ठिकाने बना रहा है।

चीन-पाकिस्तान के सामरिक रिश्ते चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे यानी सीपीईसी के साथ और परवान चढ़ गए हैं। सीपीईसी की मंशा पाकिस्तान के बुनियादी ढांचे और अर्थव्यवस्था में भारी सुधार करने की है। इसमें कनेक्टिविटी के साथ ही तमाम ऊर्जा परियोजनाएं और विशेष आर्थिक क्षेत्र विकसित किए जा रहे हैं। पाकिस्तान का राजनीतिक एवं सैन्य नेतृत्व चीनी अहसान के आगे नतमस्तक है। चीनी कर्ज और मदद की शर्तें इतनी कड़ी हैं कि पाकिस्तान उनसे कभी उबर नहीं पाएगा। बीजिंग पाकिस्तान पर स्थाई रूप से पकड़ बना लेगा और भारत के समक्ष दोहरे मोर्चे पर एक कड़ी चुनौती उत्पन्न होगी।

पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह पर नियंत्रण से भी चीर्न हिंद महासागर में अपना प्रभाव बढ़ाएगा। अटलांटिक और प्रशांत महासागर के बीच माल ढुलाई का यह महत्वपूर्ण मार्ग है। इससे चीन को मलक्का जलडमरूमध्य से नहीं गुजरना होगा जो चीन के आयात-निर्यात का मुख्य समुद्री मार्ग है। समुद्री डाकुओं से बुरी तरह प्रभावित यह मार्ग दक्षिण चीन, पूर्वी चीन और पीले सागर से होकर गुजरता है। तीनों सेनाओं से लैस भारत की अंडमान निकोबार कमान मलक्का जलडमरूमध्य के मुहाने पर है जो इसे कभी भी अवरुद्ध कर सकती है। यह तकरीबन 12,000 किलोमीटर लंबा है जबकि ग्वादर से शिनझियांग प्रांत की दूरी 3,000 किलोमीटर है तो चीन का पूर्वी तट शिनझियांग से और 3,500 किलोमीटर दूर है। सीपीईसी के चलते पश्चिम एशिया, अफ्रीका और यूरोप को होने वाले चीनी आयात-निर्यात में दूरी और समय की बचत होगी जिससे परिवहन लागत भी घटेगी।

अफगानिस्तान में भी चीन प्रत्यक्ष निवेश के अलावा तेल एवं गैस, खनन और बुनियादी ढांचा परियोजनाएं विकसित कर रहा है। दिसंबर, 2017 में बीजिंग ने पाकिस्तान और अफगानिस्तान के विदेश मंत्रियों के साथ मिलकर पहली त्रिस्तरीय बैठक बुलाई। इसका मकसद आतंकवाद पर अंकुश लगाने के लिए संयुक्त रूप से कदम उठाना था, क्योंकि इसका सरोकार उसके अशांत शिनझियांग प्रांत की सुरक्षा से है। इसके अलावा बीजिंग ने अफगानिस्तान में शांति प्रक्रिया को भी नए सिरे से शुरू किया है जो 2014 से ही अधर में लटकी हुई थी। साथ ही चीन काबुल को सीपीईसी के अफगानिस्तान में विस्तार करने के लिए भी मना रहा है।

पाकिस्तान के बाद मालदीव दूसरा ऐसा दक्षिण एशियाई देश बना है जिसने चीन के साथ मुक्त व्यापार समझौता किया है। 2014 में मालदीव का दौरा करने वाले चिनफिंग पहले चीनी राष्ट्रपति बने और उसके बाद से ही माले आधिकारिक रूप से 21वीं सदी के सामुद्रिक रेशम मार्ग से जुड़ गया। फिर चीन ने भी मालदीव में बुनियादी ढांचे की बड़ी परियोजनाएं शुरू कीं जिनमें हुलहुले का विकास और माले को देश के प्रमुख अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से जोड़ना भी शामिल है। मालदीव ने 2015 में संविधान संशोधन कर अपनी जमीन पर विदेशी स्वामित्व का प्रावधान जोड़ा जिससे चीन को मालदीव में अपनी सैन्य मौजूदगी बढ़ाने का मौका मिला।

वर्ष 2015 में नेपाल में संवैधानिक संकट के बाद उपजे परिदृश्य से भारत सही ताल नहीं बिठा पाया। नतीजतन चीन को वहां पैठ बनाने का अवसर मिल गया। फिर 2017 के चुनाव में चीन समर्थित गठबंधन की सरकार बनने से भारत-नेपाल संबंधों पर और संशय के बादल गहरा गए। चीन काठमांडू को रेल के जरिये ल्हासा से जोड़ने की योजना बना रहा है। साथ ही बौद्ध पर्यटन स्थलों सहित कई परियोजनाओं में निवेश कर रहा है। श्रीलंका में भी चीनी निवेश सड़कों, हवाई अड्डों और बंदरगाहों में फलीभूत हो रहा है।

श्रीलंका तो चीनी कर्ज के जाल में ऐसा फंसा कि उसे हंबनटोटा बंदरगाह में चीन को 80 प्रतिशत हिस्सा 99 साल के लिए पट्टे पर देना पड़ा। म्यांमार में सत्ता पर वास्तविक नियंत्रण रखने वाली म्यांमार सेना पर भी चीन अपना प्रभाव जमा चुका है। इसी तरह ढाका में नौकरशाही-सेना-राजनीतिक गठजोड़ में भी चीन ने गहरी पकड़ बना ली है।

भारत को लेकर चिनफिंग ने ‘कभी नरम, कभी गरम’ वाली नीति अपनाई है। एक ओर बीजिंग भारत से बेहतर रिश्तों की बात करता है तो दूसरी नई दिल्ली को हिदायत देता है कि वह डोकलाम से सही सबक ले। वह व्यापक कारोबारी रिश्तों की दुहाई तो देता है, लेकिन एनएसजी और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत के प्रवेश पर समर्थन से पीछे हट जाता है। आतंक के मसले पर संयुक्त कार्रवाई की बात करता है, लेकिन आतंकियों पर प्रतिबंध लगाने को लेकर वीटो के जरिये पाकिस्तान का बचाव भी करता है। असल में चीन ने मोदी के सामने एक चक्रव्यूह सा रचा है। इस चक्रव्यूह को तोड़ने के लिए मोदी को अपना कौशल दिखाना होगा।

(लेखक सेवानिवृत्त ब्रिगेडियर हैं)