सैयद अता हसनैन

दलाई लामा की तवांग यात्र को लेकर भारत और चीन के बीच तनातनी जारी है। दलाई लामा की इस यात्रा की आड़ में चीन राजनीतिक, सैन्य और कूटनीति का अपना वही पुराना दांव चल रहा है। पिछले दो दशकों में अपने आधुनिकीकरण को रफ्तार देने के चलते चीन ने कमोबेश सीमा पर शांति-स्थायित्व की यथास्थिति वाली रणनीति ही अपनाई है। इसमें केवल मई, 1987 में भारतीय सेना का अभ्यास अपवाद है जब इससे उपजे तनाव के बीच उसने कुछ समय के लिए इस नीति से किनारा किया। 1993 में जबसे शांति समझौता हुआ है तबसे सीमाओं पर अपेक्षाकृत अमन कायम है। हालांकि भारत में यह जरूर माना गया कि चीन के खतरे से निपटने के लिए सैन्य समाधान खोजना होगा।

जॉर्ज फर्नांडिस ऐसे ही रक्षा मंत्री थे जिन्होंने 1998 में खुलेआम ऐसा कहने का साहस दिखाया। चीनी मुक्ति सेना यानी पीएलए के आधुनिकीकरण से उपजे आत्मविश्वास के बाद चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा पर जब-तब भारत की इच्छाशक्ति और क्षमताओं को परखता रहा है। 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उनकी सक्रिय विेदेश नीति और आर्थिक रिश्तों को मजबूती देने वाले उनके नजरिये से लगा कि रिश्तों में पहले से चले आ रहे संदेह आखिरकार दूर हो जाएंगे और जब रिश्तों में सुधार होगा तो दोनों देश सीमा संबंधी मसलों पर भी संजीदगी से वार्ता के लिए तैयार होंगे। यह भी माना गया कि व्यापार के सामने सीमा संबंधी मुद्दे गौण हो जाएंगे। प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति शी चिनफिंग की 2014 में हुई मुलाकात के बाद जिन रिश्तों में खासी मिठास आने के संकेत मिले थे, कुछ बातों ने उनमें कड़वाहट घोल दी । प्रधानमंत्री मोदी के सत्तारूढ़ होने से पहले भी चीन ने भारत को एशिया में बराबरी वाले साझेदार के रूप में नहीं देखा। हालांकि आर्थिक रिश्ते उत्तरोत्तर मजबूती की राह पर बढ़ते गए, लेकिन चीन के इस नजरिये के कारण राजनीतिक रिश्ते हमेशा भंवर में फंसे रहे। हाल में चीन में यह भावना बलवती हुई है कि भारत उन देशों के गुट में शामिल होने को बेताब है जो मुख्य रूप से चीन को निशाना बनाते आए हैं। उसने अपने आक्रामक रवैये और पाकिस्तान के साथ साझीदारी पर भारत की वाजिब चिंताओं पर कभी गौर नहीं किया। दरअसल 1962 के बाद से ही भरोसे का भारी अभाव है। चाहे अतीत में रूस के साथ रिश्ते रहे हों या वर्तमान में अमेरिका और जापान या फिर वियतनाम के साथ कदमताल, भारत के इन रिश्तों ने चीन को चिंतित ही किया है।

चीनी नेतृत्व के साथ विश्वास बढ़ाने की दिशा में मोदी की कोशिशों से खासी कामयाबी तो मिली, लेकिन राष्ट्रपति ओबामा और प्रधानमंत्री एबे के साथ भी उनके सहज रिश्ते चीन के लिए खतरे की घंटी बन गए। इससे केवल यही रेखांकित होता है कि परस्पर लाभ के बहुस्तरीय रिश्तों को बरकरार रखना कितना मुश्किल होता है खासतौर से तब जब किसी देश विशेष की उसे लेकर त्योरियां चढ़ जाएं। बहुप्रचारित चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) और खासतौर से उसके गिलगित-बाल्टिस्तान से गुजरने का महत्वपूर्ण मु्द्दा है जिससे इस क्षेत्र में सामरिक रिश्तों की तासीर काफी हद तक प्रभावित होगी। चीन की आर्थिक एवं सैन्य मजबूरियां चाहे जो रही हों, लेकिन किसी विवािदित क्षेत्र से गुजरने वाली प्रमुख सामरिक पहल को लेकर भारत की संवेनशीलता को भी कम करके नहीं देखा जा सकता। इससे पाकिस्तान और चीन के बीच सामरिक गठजोड़ को मजबूती मिलेगी। चीन से मिल रहे कूटनीतिक संकेत बहुत उत्साहित करने वाले नहीं हैं। चाहे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में मसूद अजहर को आतंकी साबित करने के प्रस्ताव पर चीन का अड़ंगा हो या परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह यानी एनएसजी में भारत के प्रवेश में पैदा किए जाने वाले अवरोध, चीन की इन कुटिल चालों से भारत में उसकी नकारात्मक छवि ही बनी है।

भारत को यही लगा कि अमेरिका के साथ बढ़ती उसकी सामरिक साझेदारी और जापान एवं वियतनाम से गलबहियां बढ़ाने की कोशिशों को लेकर चीन की चिंताओं की परिणति इन कामों के रूप में देखने को मिली है। चीन की ओर से श्रीलंका में हंबनटोटा बंरगाह का स्वामित्व अपने पक्ष में करने और वहां पीएलए नौसेना की पनडुब्बी की गश्त भारत के लिए अशुभ संकेत हैं। चीनी कंपनी द्वारा मालीदीव में फेयदू द्वीप की खरीददारी भी चिंतित करने वाली है। बांग्लादेश में चीन की सरकारी तेल कंपनी झेनुआ द्वारा शेवरॉन के गैस फील्ड की खरीददारी को लेकर चल रही बातचीत का मसला भी भारत की परेशानी पर बल डाल सकता है, क्योंकि झेनुआ चीन की नॉरिन्को रक्षा उ्योग समूह की ही सहायक कंपनी है। हाल में चीनी रक्षा मंत्री ने श्रीलंका और नेपाल का बहुप्रचारित दौरा भी किया। इस दौरान इन देशों को लुभावने रक्षा सौदों की पेशकश की गई। इन यात्राओं का समय दलाई लामा के नियत दौरे से पहले ही रखा गया।

रणनीतिक गलियारों में भारत के मुखर रवैये और पिछले साल अक्टूबर में दलाई लामा के तवांग दौरे को हरी झंडी दिखाने में व्यक्त किए गए रणनीतिक स्वतंत्रता के भाव पर भी खासा गौर किया जा रहा है। दलाई लामा को अरुणाचल प्रेश की भाजपा सरकार ने एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में आमंत्रित किया है। उनका दस दिवसीय दौरा भी अमूमन होने वाले दौरों से लंबा है। इस पर चीन ने अपनी सरकारी मीडिया का वैसे ही प्रयोग किया जैसे कि वह हमेशा करता आया है। इसके साथ ही उसने अपने आधिकारिक प्रवक्ता के जरिये भी यह बयान दिलवाया कि इससे भारत-चीन रिश्तों के भविष्य की तस्वीर भी बिगड़ सकती है। भारत का रुख उचित ही प्रतीत होता है, क्योंकि सीपीईसी, मसूद अजहर और एनएसजी प्रकरण ने उसे रक्षात्मक बना दिया था। बलती दुनिया में वह लचर स्थिति में दिखना गवारा नहीं कर सकता। क्या भारत को चीन से राजनीतिक-कूटनीतिक विकल्प से इतर किसी अन्य प्रतिक्रिया की अपेक्षा करनी चाहिए? समझारी का तकाजा तो यही है कि कुछ ऐसा न किया जाए जिससे हालात खराब हों।

चीन द्वारा सैन्य पलटवार की आशंका हमेशा बनी रहती है, लेकिन उसके निहितार्थ और अंतिम परिणाम पर भी निश्चित ही गौर करना चाहिए, क्योंकि लक्ष्य के बिना रणनीति से कुछ हासिल नहीं होता। क्या उसमें सैन्य हमला करने की हिम्मत होगी और होगी तो किस मकसद के लिए? भारत का राष्ट्रीय गौरव और अंतरराष्ट्रीय कद भी कोई कम नहीं। जबरदस्त क्षमताओं से लबरेज भारतीय वायु सेना किसी से कम नहीं। भारत को नीचा दिखाने के लिए सीमा पर की गई कार्रवाई सफलता की गारंटी नहीं हो सकती और उसमें व्यापक संघर्ष की आग भड़काने की कूवत होगी। चीन अपनी सामरिक-रणनीतिक व्यावहारिकता के लिए मशहूर है। उसे यह अवश्य ही समझना चाहिए कि दलाई लामा का दौरा चीन को चिढ़ाने के लिए नहीं, बल्कि अरुणाचल के लोगों को संदेश देने के लिए है। यह महज नजरिये का मामला है।

[लेखक सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल हैं]