विजय क्रांति : चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग (Xi Jinping) और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीसीपी दलाई लामा (Dalai Lama) के उत्तराधिकारी को लेकर इन दिनों आक्रामक रुख अपनाए हुए हैं। यह आक्रामकता शी के उत्साह को कम, बल्कि उनकी हताशा और बेबसी को ज्यादा व्यक्त कर रही है। पिछले कुछ अर्से से सीसीपी ने बार-बार दोहराया है कि वर्तमान दलाई लामा के पश्चात उनके उत्तराधिकारी की खोज, चयन और मान्यता का पूरा अधिकार उसके अतिरिक्त किसी अन्य का नहीं होगा। उसका कहना है कि तिब्बत की जनता, तिब्बती धर्मगुरुओं और यहां तक कि स्वयं दलाई लामा को भी यह अधिकार नहीं।

तिब्बत की निर्वासित सरकार और धर्म गुरुओं ने स्पष्ट रूप से घोषणा की है कि चीन के ऐसे हस्तक्षेप को तिब्बती जनता मान्यता नहीं देती। स्वयं दलाई लामा ने कहा है कि इस विषय पर अंतिम निर्णय तिब्बत की जनता का होगा। दलाई लामा के अगले अवतार का प्रश्न न केवल चीन और तिब्बत, बल्कि भारतीय दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है। 1951 में तिब्बत पर चीन के अवैध कब्जे के पहले तक सदियों से दलाई लामा स्वतंत्र तिब्बत के शासक और सर्वोच्च धर्मगुरु रहे हैं। वह 1959 से भारत में शरण लिए हुए हैं। तिब्बती शासन और धर्म व्यवस्था के अनुसार दलाई लामा की मृत्यु के बाद उनके अवतारी बालक को खोजा जाता है और शिक्षण-प्रशिक्षण के बाद वयस्क होने पर शासनाध्यक्ष बनाया जाता है। इस परंपरा में वर्तमान दलाई लामा 14वें हैं।

यह हैरानी की बात है कि जिन दलाई लामा को तिब्बत (Tibet) पर कब्जे के बाद चीनी सरकार ‘भिक्षु के चोले में छिपा हुआ भेड़िया’, ‘डाकुओं का सरदार’, ‘गुलाम पालने वाला सामंत’ और चीन की ‘राष्ट्रीय एकता का दुश्मन’ जैसी अभद्र उपमाएं देती आई है, वह भला क्यों उनके अगले उत्तराधिकारी के चयन को लेकर इतनी व्यग्र है? इसका कारण बहुत स्पष्ट है। दरअसल चीन ने पिछले 70 वर्षों में तिब्बत की जनता को अपना दास बनाने और चीनी प्रभुसत्ता को स्वीकार कराने के लिए हर तरह के दमन, अनुशासन, प्रोपेगंडा और प्रलोभल जैसे हथकंडे इस्तेमाल किए हैं। इसके बावजूद चीनी सरकार तिब्बत की जनता के मन से दलाई लामा के प्रति आस्था, तिब्बत की आजादी की आकांक्षा और उनके धार्मिक विश्वास पर आघात करने में बुरी तरह विफल रही है। इसका एक उदाहरण 2009 के बाद से इस साल सितंबर तक 157 तिब्बती लोगों की आत्महत्या के रूप में दिखता है। आत्महत्या करने वालों में करीब 80 प्रतिशत से अधिक युवक-युवतियां ऐसे बौद्ध भिक्षु थे, जिनकी पिछली दो पीढ़ियों ने दलाई लामा को देखने के बजाय केवल उनके विरुद्ध चीनी दुष्प्रचार सुना था। उनकी अंतिम चीखों में भी तिब्बत की आजादी और दलाई लामा की वापसी के स्वर सुनाई पड़ रहे थे।

1951 से 1959 के बीच चीन सरकार ने तिब्बत की जनता को कम्युनिस्ट शासन के सब्जबाग दिखाए और नाना प्रकार के प्रलोभन दिए, लेकिन चीनी सेना के अत्याचारों के विरुद्ध 1959 में विशाल जनक्रांति की ज्वाला प्रज्वलित हुई, जिसे दबाने के लिए चीन ने अत्याचारों की पराकाष्ठा पार कर दी। संयुक्त राष्ट्र के दस्तावेजों के अनुसार चीनी सेना ने 80 हजार तिब्बतियों को मौत के घाट उतार दिया। इसी नरसंहार के दौरान चीनी सेना से बचते हुए उस समय 25 वर्षीय दलाई लामा ने भारत में शरण ली। उसके बाद पिछली सदी के सातवें-आठवें दशक में चीन सरकार ने तिब्बत के उन मठों, मंदिरों और प्रतीकों का विनाश करने की मुहिम चलाई, जिनका जुड़ाव तिब्बती राष्ट्रीय पहचान से था।

इस दौर में कथित ‘सांस्कृतिक क्रांति’ के दौरान चीन ने इस उम्मीद के साथ कम्युनिस्ट प्रोपेगंडा चलाया कि तिब्बत के लोग उसके बहकावे में आकर ‘देशभक्त चीनी नागरिक’ बन जाएंगे, लेकिन उसकी यह मंशा फलीभूत नहीं हो पाई। उलटे 1987 और 1989 में चीनी उपनिवेशवाद के विरुद्ध तिब्बत में विरोध-प्रदर्शनों का सैलाब आ गया। यह इतना तेज था कि कम्युनिस्ट नेता अपनी तिब्बत रणनीति नए सिरे से बनाने पर मजबूर हुए। इस नई रणनीति के अंतर्गत तिब्बती बौद्ध धर्म, बौद्ध संस्थानों और बौद्ध प्रतीकों पर आंतरिक कब्जे का अभियान छेड़ा गया। इसी अभियान के तहत तिब्बती जनता को फिर से उपासना स्थल जाने की छूट दी गई और नष्ट किए मठों-मंदिरों का नवनिर्माण किया गया। इसी नीति के माध्यम से पहले 1992 में करमापा और उसके बाद 1995 में पंचेन लामा के नए अवतारों के चुनाव के लिए सरकार और कम्युनिस्ट पार्टी ने तिब्बती धर्म गुरुओं के नेतृत्व में अनुष्ठान कराए और उनका अभिषेक किया।

कालांतर की घटनाओं से समझ आता है कि करमापा और पंचेन लामा के अवतारों की खोज और अभिषेक असल में दलाई लामा के अगले अवतार को मान्यता दिलाने की ‘फुल ड्रेस रिहर्सल’ ही थी। इसके बाद तिब्बत के मठों में वहां के परंपरागत अवतारी लामाओं की खोज और उन्हें वहां की गद्दी पर बिठाने का नया अभियान चीन ने बड़े सुनियोजित ढंग से चलाया। वर्ष 2007 में चीन ने तिब्बत के लिए चीनी संविधान में एक नया कानून ही जोड़ दिया। इस कानून के अनुसार भविष्य में सभी अवतारी लामाओं की खोज और नियुक्ति का एकाधिकार चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का होगा। इसका वास्तविक लक्ष्य वर्तमान दलाई लामा की मृत्यु के बाद चीनी मोहरे को नियुक्त करना है ताकि तिब्बत की जनता को पालतू बनाया जा सके। चीन के हथकंडों को देखते हुए अमेरिका ने 2020 में अमेरिकी संविधान में नया कानून जोड़कर दलाई लामा के अवतार-उत्तराधिकार में चीनी दखलंदाजी का विरोध करते हुए भावी अमेरिकी सरकारों को इस दिशा में अपेक्षित कदम उठाने का बाध्यकरी प्रविधान जोड़ दिया।

जहां तक भारत की बात है तो दलाई लामा से जुड़ा प्रश्न उसकी राष्ट्रीय सुरक्षा एवं अखंडता के साथ बहुत गहराई से जुड़ा है, क्योंकि हिमालयी क्षेत्र में करीब चार हजार किमी क्षेत्र में दलाई लामा और तिब्बती धर्म-परंपराओं का गहरा प्रभाव है। ऐसे में यदि भावी दलाई लामा पर किसी भी प्रकार से चीन का नियंत्रण होगा तो भारत की सुरक्षा, एकता और अखंडता के लिए जोखिम बढ़ जाएंगे। इसलिए इस मुद्दे पर भारत सरकार को अविलंब अपनी सक्रियता एवं सतर्कता बढ़ानी होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और सेंटर फार हिमालयन एशिया स्टडीज एंड एंगेजमेंट के चेयरमैन हैं)