श्रीराम चौलिया। नूतन वर्ष 2022 में प्रवेश करते भारत को अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों और समीकरणों के अनुसार नई ऊर्जा और रचनात्मकता के साथ आगे बढ़ना होगा। विदेश संबंध और राष्ट्रीय सुरक्षा का परिदृश्य देखें तो देश के सामने कांटों भरा रास्ता है, जिसे पराक्रम और दक्षता से ही पार किया जा सकता है। एक जनवरी से ही चीन नया विवादास्पद भूमि सीमा कानून अमल में ला रहा है, जिसे दिवंगत जनरल बिपिन रावत ने भारत का ‘दुश्मन नंबर एक’ कहा था। इसके तहत चीन एकपक्षीय ढंग से सरहद पर लकीर निर्धारित कर सकता है।

इस कानून के कार्यान्वयन के लिए चीनी सेना को सीमा पर पड़ोसी देशों के ‘आक्रमण, घुसपैठ और उकसावे’ के विरुद्ध आक्रामक कार्रवाई करने का शासनादेश मिला है। जब बीजिंग ने गत अक्टूबर में इस पहल का एलान किया तो भारत ने आपत्ति और चिंता जताई थी, परंतु राष्ट्रपति शी चिनफिंग दबंगई की राह पर निकल चुके हैं। वह भारत को इस कानून की आड़ में परेशान करने की फितरत में हैं।  

वास्तविक नियंत्रण रेखा के पश्चिमी क्षेत्र में मार्च 2020 में चीन ने जो एकतरफा उल्लंघन किए थे, उस संकट का अब तक संपूर्ण समाधान नहीं हो पाया है तो इसका कारण शी चिनफिंग की ढिठाई और वर्चस्ववादी मानसिकता ही है। आर्थिक और सैन्य शक्ति में भारत से लगभग पांच गुना बड़ा होने का घमंड और भारत को चीन के एशिया में नायकत्व के मार्ग पर मुख्य बाधा मानने की सोच शी चिनफिंग को पीछे हटने और स्थिति को सामान्य बनाने से रोक रही है। चूंकि दोनों देशों के बीच शक्ति असंतुलन चंद वर्षो में कम नहीं हो पाएगा, इसलिए भारत को लघु से मध्यावधि काल में सैन्य साधन जुटाने होंगे।

इसके लिए फरवरी में आने वाले वित्तीय वर्ष 2022-23 के केंद्रीय बजट में रक्षा के लिए आवंटन अधिक करना होगा। पिछले साल भारत का रक्षा बजट 49.6 अरब डालर था, जिसमें हथियारों की खरीद के लिए केवल 18.48 अरब डालर नियत थे। इसकी तुलना में चीन ने अपना रक्षा बजट 209 अरब डालर रखा। वैसे तो भारत में कई आंतरिक समस्याएं हैं और लोकतांत्रिक देशों में सरकारें घरेलू जरूरतों को ही प्राथमिकता देती हैं, लेकिन चीन के अतिक्रमणकारी इरादों को नाकाम करना है तो भारत को रक्षा खर्च में बढ़ोतरी करनी ही होगी।

फिलहाल भारत सकल घरेलू उत्पाद का 2.88 प्रतिशत ही रक्षा पर खर्च कर रहा है। नए साल में और अगले कई वर्षो तक हमें इसे बढ़ाकर औसतन तीन प्रतिशत करना चाहिए, ताकि चीन की हिमालय की चोटियों में और हिंद-प्रशांत के समुद्री इलाकों में भारत दमदार प्रतिस्पर्धा कर सके। जब प्रतिद्वंद्वी अनैतिक हो तो उसके साथ उसी तरह पेश आना चाहिए। कहा भी गया है कि लातों के भूत बातों से नहीं मानते। भारत कदापि नहीं चाहता कि चीन से युद्ध हो।

चूंकि चीन शक्ति का ही आदर करता है, ऐसे में हम शक्ति का प्रदर्शन करके और दृढ़ता दिखाकर ही उसे पीछे धकेल सकते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश को विभिन्न क्षेत्रों में आत्मनिर्भर बनाने का काम कर रहे हैं। देश को रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने के लिए वह जो नीतिगत सुधार कर रहे हैं, उन्हें तेज करने की जरूरत है, लेकिन सिर्फ आत्मोन्नति से ही बेड़ा पार नहीं होने वाला। भारत जितना भी सैन्य सशक्तीकरण पर जोर लगाए, वह चीन के मुकाबले कुछ अवधि तक कम ही रहेगा।

इस अंतर को घटाने में कूटनीति काम आएगी। वर्ष 2022 में भारत को अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया के संग ‘क्वाड’ समूह की गतिविधियों को यदा-कदा से स्थायी बनाने की ओर ले जाना चाहिए। फ्रांस और अन्य यूरोपीय देशों की इच्छा हंिदू-प्रशांत में उपस्थित रहने की है। भारत उनकी इस चाह को कैसे पूरा करे, इस पर मोदी सरकार रणनीति बना रही है। केंद्र सरकार को इसे जल्द लागू करना चाहिए। वहीं रूस-भारत सामरिक साङोदारी को भी अधिक घनिष्ठ किया जा रहा है, ताकि चीन पर लगाम लगाने में हमें केवल पश्चिमी देशों का ही सहारा न लेना पड़े। जितनी सूझबूझ से भारत रूस को अपने निकट रखेगा, चीन उतना सकपकाएगा और भारत पर दबाव डालने में असमर्थ रहेगा।

अब बात पाकिस्तान और वहां से उत्पन्न हो रहे जिहादी आतंकी खतरे की। हालांकि मोदी सरकार के सख्त सुरक्षा इंतजाम और चौकस रवैये के फलस्वरूप 2021 में भारत किसी बड़े आतंकी हमले का शिकार नहीं हुआ, पर हमारे आसपास कट्टर इस्लामवादी प्रवृत्ति कम नहीं हुई है। अफगानिस्तान में तालिबान के कब्जे के बाद तो कट्टरवादियों का मनोबल और बढ़ गया है। अच्छी बात है कि मोदी सरकार ने इन शक्तियों को नष्ट करने की ठान ली है। हमें किसी नए हमले की प्रतीक्षा किए बिना जब भी खतरा आसन्न लगे और हमारी सेना को मौका मिले तो सीमा पार कदम बढ़ाने चाहिए। इलाज से बेहतर रोकथाम है। नए वर्ष में भारत को सक्रिय होकर पाकिस्तान के चरमपंथी मंसूबों को ध्वस्त करना होगा।

अफगानिस्तान में हम 2022 में क्या करें, यह भी प्रासंगिक है। हम पाकिस्तान में भले ही पुन: सर्जिकल स्ट्राइक कर सकते हैं, पर अफगानिस्तान से निकलती जिहादी आग से क्षेत्रीय सहयोग से ही निपटा जा सकता है। मध्य एशियाई देशों के राष्ट्र प्रमुखों को गणतंत्र दिवस समारोह में मुख्य अतिथि के तौर पर लाने की कोशिश मोदी सरकार की दूरगामी सोच का उदाहरण है। ईरान और रूस का भारत द्वारा नवंबर में आयोजित ‘दिल्ली संवाद’ सम्मलेन में शामिल होना 2021 में हमारे राजनय का मुख्य आकर्षण था। नए वर्ष में इन देशों से तालमेल को ठोस दिशा देना और अफगानिस्तान के इर्द-गिर्द साझा सैन्य उपस्थिति बनाना सही दिशा में प्रगति के संकेत होंगे।

वर्ष 2022 में भारत की चुनौतियां कड़ी हैं, पर आशाएं भी हैं, क्योंकि मोदी सरकार को विदेश नीति और राष्ट्रीय सुरक्षा में कोई भी ढील गवारा नहीं है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार 2022-23 में भारत विश्व की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तेज आर्थिक वृद्धि दर्ज करने की क्षमता रखता है। इस सोपान के आधार पर हम आत्मविश्वास के साथ विदेश नीति चलाएं तो नया साल सार्थक होगा।

(लेखक जिंदल स्कूल आफ इंटरनेशनल अफेयर्स में प्रोफेसर और डीन हैं)