नई दिल्ली [आरपी सिंह]। भारत अब उन औद्योगिक देशों में शामिल हो गया है जो बड़े पैमाने पर संसाधनों का दोहन कर रहे हैं। विश्व पटल पर भारत के उभार ने इस बात को स्पष्ट रूप से दर्शाया है कि संसाधन बहुलता वाला विकास का पश्चिमी मॉडल 21वीं सदी में दुनिया के आठ अरब से अधिक लोगों की आकांक्षाओं की पूर्ति करने में सक्षम नहीं है। संसाधनों के उपयोग, तकनीक, नीतियां और यहां तक कि भारत द्वारा अपनाए गए बुनियादी मूल्यों के मोर्चे पर बड़े बदलाव विकासशील दुनिया के लिए कामयाबी की उम्दा मिसाल हैं। भौगोलिक आकार, भू-रणनीतिक स्थिति, तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था, सशक्त होते सैन्य बल के साथ ही भारत के बढ़ते राजनीतिक प्रभाव को अमेरिका सहित दुनिया के अधिकांश देशों ने स्वीकार किया है। आज ताकतवर देशों का प्रत्येक गुट भारत को अपनी ओर आकर्षित करने की फिराक में है, क्योंकि उसके साथ से दुनिया में शक्ति के संतुलन का पलड़ा उस गुट के पक्ष में झुक सकता है।

दूसरी ओर चीन वैश्विक मामलों में भारत को बराबर का साझेदार मानने को लेकर हिचकता है। पिछले कुछ समय से बीजिंग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के धैर्य की परीक्षा के लिए भारत के प्रति ‘कभी गर्म तो कभी नर्म’ वाली नीति अख्तियार करता आया है। चीन भारत पर शिकंजा कसने के लिए उसके आसपड़ोस में ‘मोतियों की माला’ के रूप में सामरिक घेरेबंदी करने में जुटा है। इसी तरह वन बेल्ट, वन रोड यानी ओबोर और मेरीटाइम सिल्क रूट भी चीन के बढ़ते रुतबे का प्रतीक है। बीजिंग दुनिया भर में बंदरगाहों और एयरफील्ड में अपनी पैठ बढ़ा रहा है। अपने सैन्य बलों के आधुनिकीकरण के साथ ही वह अपने व्यापारिक साझेदार देशों के राजनीतिक-सैन्य नेतृत्व को प्रभावित करने में भी जुटा है। इस पर बीजिंग का यही कहना है कि चीनी नौसेना की बढ़ती ताकत शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए ही है जिसका एकमेव मकसद अपने क्षेत्रीय व्यापारिक हितों को रक्षा करना है, लेकिन चीनी गतिविधियों ने एशिया-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा को लेकर गंभीर सवाल खड़े किए हैं।

चीनअपने कूटनयिक एवं मीडिया सूत्रों के माध्यम से चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे यानी सीपीईसी और क्षेत्रीय सहयोग के लिए बांग्लादेश-चीन-भारत-म्यांमार (बीसीआइएम) से जुड़ने के लिए भारत को लुभाने की भी कोशिश कर रहा है, क्योंकि केवल भारत के पास ही वह क्षमता है जो इस क्षेत्र में चीनी जहाजों के बेड़े को अपने दखल से प्रभावित कर सकता है। इसीलिए चीनी सरकारी मीडिया गाहे-बगाहे भारत को धमकाता रहता है कि अगर भारत ने दक्षिण एशियाई देशों के साथ चीन के संबंधों को लेकर दखल दिया तो बीजिंग पलटवार करेगा। उसका आरोप है कि भारत दक्षिण एशिया और हिंद महासागर को अपनी थाती समझता है और भारत-पाकिस्तान संबंधों में तनाव से इस क्षेत्र में चीनी परियोजनाएं प्रभावित नहीं होनी चाहिए। चीन का कहना है कि हिंद महासागर भारत का नहीं है तो भारत भी इस पर यही जवाब देता है कि दक्षिण चीन सागर भी चीन की बपौती नहीं। भारत के खिलाफ चक्रव्यूह तैयार करने के लिए बीजिंग बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल में बुनियादी ढांचा परियोजनाओं पर पानी की तरह पैसा बहा रहा है।

भारत ने भी चीन की इस चाल का कुशलता से जवाब दिया है। चीन की 14 देशों के साथ कुल 22,147 किमी लंबी सीमा है और आठ देश उसके सामुद्रिक पड़ोसी हैं। इनमें पाकिस्तान को छोड़कर अधिकांश देशों के साथ उसके रिश्ते असहज हैं। उसके जापान, ताइवान, फिलीपींस और वियतनाम के साथ जमीनी एवं समुद्री सीमा विवाद भी हैं। आसियान देश भी चीनी प्रभुत्व को लेकर खासे खिन्न हैं। वहीं भारत ने चीन के पड़ोसियों विशेषकर दक्षिण कोरिया, जापान, ताइवान, म्यांमार, लाओस और वियतनाम से रणनीतिक गठजोड़ कर अपनी स्थिति बेहतर की है। चीन की काट निकालने के लिए इस साल गणतंत्र दिवस पर आसियान नेताओं को बुलाना मोदी की दक्षिणपूर्व एशियाई नीति का अहम हिस्सा था। भारत और वियतनाम की रणनीतिक साझेदारी तेजी से परवान चढ़ी है। इस प्रकार चीन को काबू में रखने की मोदी की रणनीति काफी हद तक कारगर होती दिख रही है। अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ चतुष्कोणीय साझेदारी की बात भी निर्णायक पड़ाव पर है। चीन के करीबी पाकिस्तान को अलग-थलग करने की भारतीय रणनीति भी रंग ला रही है। मोदी की विदेश नीति बहुत ही व्यावहारिक है। उन्होंने दुनिया के महत्वपूर्ण नेताओं के साथ आत्मीय रिश्ते बनाए हैं।

ओबोर के जवाब में कहीं अधिक लोकहितैषी एशिया अफ्रीका गलियारा और बीजिंग के बीसीआइएम के जवाब में बिम्सेटक को कूटनीति का मास्टरस्ट्रोक कहा जा सकता है। इजरायल और अरब देशों में सऊदी अरब एवं ईरान के साथ बराबर संतुलन से रिश्ते साधे जा रहे हैं। इसी कड़ी में स्टॉकहोम में सफलतापूर्वक नॉर्डिक सम्मेलन संपन्न हुआ। भारत ने रूस और अमेरिका की तनातनी में भी अपने हित सुरक्षित रखे। अपनी इन खूबियों के चलते ही मोदी अधिकांश विश्व नेताओं को लुभाते हैं। उन्होंने डोकलाम सैन्य गतिरोध को भी बखूबी संभाला। इसके बाद मालाबार युद्धाभ्यास भी किया और वायुसेना के हालिया युद्धाभ्यास ‘गगन शक्ति’ में आसमान में मारक शक्ति का प्रदर्शन किया। भारत-तिब्बत सीमा पर सुरक्षाबलों की समुचित तैनाती और उत्तरी सीमा पर सेना और उसके साजो-सामान को समुन्नत बनाने के साथ ही अत्याधुनिक हथियारों की खरीद ने भी चीन को भारत के बढ़ते कद का अहसास कराया है कि उसकी सैन्य शक्ति की और ज्यादा अनदेखी नहीं की जा सकती। माना जा रहा है कि ट्रेड वार पर आमादा अमेरिकी राष्ट्रपति के रवैये को देखते हुए चीन ने भारत के साथ की अहमियत समझी और इसी कारण चिनफिंग ने मोदी को अनौपचारिक वार्ता के लिए वुहान आमंत्रित किया। वुहान में कोई औपचारिक एजेंडा भले ही नहीं था, लेकिन इसने भविष्य के लिए जरूर कुछ मुद्दे तय कर दिए हैं। दोनों नेता अपनी सेनाओं के बीच बेहतर संवाद पर सहमत हुए ताकि सीमा पर हालात सहज रहें। सीमा विवाद के मामले में उन्होंने विशेष प्रतिनिधियों पर भरोसा जताया जो उचित, पारदर्शी और परस्पर स्वीकार्य समझौते को आकार देंगे। दोनों देशों ने सीमा पर शांति के महत्व को भी भलीभांति समझा।

चीनी मीडिया इस पर खासा उत्साहित जरूर रहा, लेकिन बड़ी-बड़ी बातों के बावजूद अभी भी कुछ पेच फंसे हुए हैं। मसलन सीमा विवाद हिंद महासागर में धींगामुश्ती और महत्वाकांक्षी परियोजना ओबोर पर आपत्ति जैसे मसलों पर तनातनी का भाव है। सीपीईसी को लेकर भारत की आपत्ति यही है कि वह कश्मीर के विवादित क्षेत्र से गुजर रहा है। पाकिस्तानी आतंकियों को चीन की शह पर भी नई दिल्ली नाराज है। वहीं अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ भारत की चौकड़ी पर चीन अपनी चिंता जाहिर कर चुका है। दलाई लामा और अन्य निर्वासित तिब्बती नेताओं की भारत में मौजूदगी पर भी चीन आशंकित है। वुहान से भले ही कोई प्रत्यक्ष परिणाम न निकला हो, लेकिन एक बात स्पष्ट है कि यह सम्मेलन विश्व स्तर पर भारत की धमक का मंच बना। चीन ने भी इस पहलू को विनम्रता के साथ स्वीकार किया।

(लेखक सेवानिवृत्त ब्रिगेडियर हैं)