ब्रह्म चेलानी। चीन की साम्यवादी तानाशाही अपनी आक्रामक नीतियों के दम पर विस्तारवाद को बढ़ावा दे रही है और फिर भी उसकी मंशा है कि उसे शांतिप्रिय देश के रूप में देखा जाए। चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने हाल में दावा किया कि अपने 5,000 साल के इतिहास में आक्रामकता और विस्तारवाद कभी चीन के जीन में नहीं रहे। एक पुरानी कहावत है कि आप जैसा बोते हैं, वैसा ही काटते भी हैं।

चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग बहुत सख्ती से चीन केंद्रित वैश्विक ढांचा बनाना चाहते हैं। उनकी कोशिशों का वैश्विक स्तर पर प्रतिरोध भी हुआ और अमेरिका के साथ टकराव भी बढ़ा। इससे चीन के अंतरराष्ट्रीय अलगाव की आशंकाएं बढ़ गई हैं। भारत के साथ सीमा पर तनातनी शी की अनुत्पादक नीतियों को बेहतर तरीके से दर्शाती है।

चीन की क्षमताओं और ताकत : अप्रैल-मई में शी ने भारत की उत्तर पूर्वी सीमा पर अपनी सेना को चुपके से घुसपैठ करने का निर्देश दिया। इसके पीछे उनकी मंशा एशिया में भारत के कद को घटाने और चीनी दबदबे को बढ़ाने की थी। हालांकि यह दांव उलटा ही पड़ता दिख रहा है। लद्दाख के ऊंचे इलाकों में निर्जन जमीन हथियाने की चीनी मंशा को भारत की ओर से कड़ी चुनौती मिली। इसने चीन की क्षमताओं और ताकत को लेकर शी के समक्ष विकट स्थितियां पैदा कर दी हैं। इस पूरे घटनाक्रम का सार यही है कि शी ने दुनिया में अगले बड़े टकराव के बीज हो दिए हैं।

सीमा रेखा के इर्दगिर्द कई मोर्चो पर चीनी सेना द्वारा धोखा : दुनिया की एक तिहाई से अधिक आबादी और वैश्विक अर्थव्यवस्था में करीब 20 प्रतिशत हिस्सेदारी रखने वाले भारत और चीन के बीच रिश्ते अंतरराष्ट्रीय संबंधों के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण हैं, लेकिन फिलहाल दोनों के रिश्ते तल्ख बने हुए हैं। जब हिमालयी क्षेत्र में युद्ध का साया गहरा रहा हो, तब शी ने हाल में कम्युनिस्ट पार्टी, सरकार और सैन्य नेतृत्व को भारत के साथ सीमा पर अपनी स्थिति मजबूत बनाने और सीमा सुरक्षा सुनिश्चित करने का निर्देश दिया।

लद्दाख में सीमा रेखा के इर्दगिर्द कई मोर्चो पर चीनी सेना द्वारा धोखे और हैरत में डालने वाले हमले ने भारत को हतप्रभ कर दिया। हालांकि शुरुआती दौर में चीनी सेना को मिली बढ़त के बाद भारत के जबरदस्त सैन्य पलटवार ने चीन को पीछे खदेड़ दिया। इस दौरान तीन घटनाक्रमों ने भारत के खिलाफ शी की सैन्य योजना के तिलिस्म को तोड़ने का काम किया। ऊंचे इलाकों में छिटपुट संघर्ष की स्थिति में भारतीय सेना चीनी सेना की अनुभवहीनता पर भारी पड़ती है।

चीनी सेना ने आखिरी लड़ाई 1979 में वियतनाम में लड़ी थी, जहां उसे शर्मसार होना पड़ा था। इन तीन घटनाक्रमों में पहला यह है कि भारत ने भी सीमा पर चीन के बराबर सैन्य तैनाती की हुई है। यह किसी भी नए उकसावे पर करारा जवाब देने की उसकी उत्कंठा को ही दर्शाता है। भारत ने सैन्य जमाव के साथ ही भीषण सíदयों के दौरान रसद आपूíत के लिए भी पूरी तैयारी कर ली है। दूसरा घटनाक्रम गलवन घाटी में भारतीय जवानों द्वारा चीनी सेना को करारा सबक सिखाने से जुड़ा है। गलवन की झड़प में चीन को करीब चार दशक बाद अपने सैनिक गंवाने पड़े।

चीन के जले पर और नमक ही छिड़का : यह शी के लिए शर्मिंदगी का सबब बना, क्योंकि भारत ने तो अपने 20 सैनिकों की शहादत को नमन किया, लेकिन चीन अभी तक अपने हताहत सैनिकों की संख्या को लेकर चुप्पी साधे हुए है। फिर अगस्त के अंत में इंडियन स्पेशल फोर्सेज ने पैंगोंग झील के दक्षिणी हिस्से में एक ऊंची चोटी कब्जा कर चीन को चकित कर दिया। भारतीय सैनिकों ने चीनी सेना की नाक के नीचे से रणनीतिक महत्व की चोटी हथिया ली। इसमें चीन के लिए खासा अपमानजनक पहलू यह था कि यह सैन्य टुकड़ी विशेष रूप से भारत में रह रहे निर्वासित तिब्बतियों से बनी है। बारूदी सुरंग की चपेट में आकर शहीद एक तिब्बती सैनिक के विधिवत अंतिम संस्कार ने चीन के जले पर और नमक ही छिड़का। इस अंत्येष्टि का संदेश साफ था कि भारत चीन के खिलाफ तिब्बत का वैसे ही उपयोग करेगा, जैसे चीन भारत के विरुद्ध पाकिस्तान का करता है।

ऑल-तिब्बतन स्पेशल फ्रंटियर फोर्स की दिलेरी : विशाल तिब्बत के पठार का इलाका आकार में पश्चिमी यूरोप से भी बड़ा है। 1951 में माओ द्वारा इसे हड़पने से पहले यह भारत और चीन के बीच दीवार की तरह खड़ा था। तब से चीन ने उसे उत्पीड़न की प्रयोगशाला बना रखा है। यहां वह उन्हीं तौर-तरीकों को आजमाता है जो उसने शिनङिायांग, भीतरी मंगोलिया और हांगकांग में अपनाए। दलाई लामा तो यहां तक कह चुके हैं कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने तिब्बत को धरती पर नरक बना दिया है। ऐसे में हैरानी नहीं कि ऑल-तिब्बतन स्पेशल फ्रंटियर फोर्स की दिलेरी ने दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा। इस फोर्स की स्थापना 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद हुई थी। अपनी मातृभूमि पर चीनी कब्जे के खिलाफ लड़ाई का जज्बा तिब्बतियों को इस बल से जुड़ने के लिए प्रेरित करता है।

शी भारत के खिलाफ युद्ध का बिगुल बजाएंगे? : शी को पता चल रहा होगा कि भारत के खिलाफ संघर्ष छेड़ना भले ही आसान रहा हो, लेकिन उसे किसी तार्किक परिणति पर पहुंचाना टेढ़ी खीर है। अपनी चिरपरिचित शैली के अनुसार शी ने खुले युद्ध के बजाय मिश्रित आक्रामकता वाली राह चुनी। बिल्कुल दक्षिण चीन सागर की तरह, जहां परंपरागत और गैर-पारंपरिक तिकड़मों का इस्तेमाल किया गया। दक्षिण चीन सागर में तो शी ने बिना एक भी गोली चलाए उसका नक्शा बदलने में कामयाबी हासिल कर ली, लेकिन यही रणनीति हिमालयी क्षेत्र में आजमाने से खतरनाक गतिरोध की स्थिति बन गई। क्या इस गतिरोध को तोड़ने के लिए शी भारत के खिलाफ युद्ध का बिगुल बजाएंगे? युद्ध से शी को निर्णायक जीत मिलने के आसार नहीं हैं।

इसका परिणाम गतिरोध के रूप में ही निकलेगा, जिसमें दोनों पक्षों को ही क्षति उठानी पड़ेगी, लेकिन चीन की साख पर भारत की तुलना में बड़ा बट्टा लगेगा। यही वजह है कि शी भारत से जंग में उलझे बिना दबाव बनाकर ही जीतने की जुगत में लगे हैं। ऐसे दौर में जब भारतीय अर्थव्यवस्था कोरोना संकट के कारण अपने सबसे खराब दौर से उबरने में जुटी है, तब शी ने भारत को राष्ट्रीय सुरक्षा पर अधिक संसाधन खर्च करने के लिए मजबूर कर दिया है। चीन के पिट्ठू पाकिस्तान ने भी सीमा पर संघर्षविराम उल्लंघन बढ़ाकर भारत के लिए मुश्किलें खड़ी करने का संकेत दिया है। हालांकि, ऐसे आसार बहुत दूर की कौड़ी हैं कि भारत ऐसे दबाव के आगे झुक जाएगा।

(लेखक सामरिक मामलों के विश्लेषक हैं)