स्थायी मध्यस्थता न्यायाधिकरण यानी पीसीए ने दक्षिण चीन सागर से जुड़े मसले पर सर्वसम्मति से अपना बहुप्रतीक्षित फैसला सुना दिया। यह फैसला मुख्यत: ऐतिहासिक अधिकारों की भूमिका, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन संबंधी समुद्री हक और चीन की विभिन्न गतिविधियों के कानूनी पहलू पर विचार के बाद दिया गया। संयुक्त राष्ट्र के समुद्री कानून संबंधी संधि के अनुच्छेद 296 और आठवीं अनुसूची के अनुच्छेद 11 के तहत यह फैसला अंतिम और बाध्यकारी है। चीन ने प्रारंभ से ही पूरी प्रक्रिया को भेदभावपूर्ण बताते हुए फैसले को अवैधानिक करार दिया। यद्यपि चीन ने तमाम राजनीतिक और कूटनीतिक प्रयासों के द्वारा अपने पक्ष को रखने का पुरजोर प्रयास किया था, किंतु उसे अपेक्षित सफलता हासिल नहीं हुई। फैसले के बाद चीन ने उसे सिरे से खारिज कर दिया और नजरअंदाज करने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराई। ऐसे में पहले से अत्यंत जटिल दक्षिण चीन सागर की कूटनीतिक और सामरिक चुनौतियां बहुत गंभीर हो गई हैं। पीसीए के निर्णय के बाद उपजे हालात से निपटना एक बड़ी चुनौती है।

पीसीए अवार्ड ने स्पष्ट किया कि चीन का दक्षिण चीन सागर के जल और प्राकृतिक संसाधनों के ऊपर ऐतिहासिक अधिकार नहीं है। न्यायाधिकरण ने चीन के विशेष आर्थिक क्षेत्र के दावों को खारिज करते हुए स्पष्ट किया कि विवाद वाले इलाके का कोई भी द्वीप चीन के विस्तारित समुद्री क्षेत्र के अंतर्गत नहीं आएगा। चीन ने फिलीपींस के विशेष आर्थिक क्षेत्र में प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर उसकी संप्रभुता का हनन किया और अवैध तरीके से न केवल उसके मछुआरों को रोका, बल्कि कई मौकों पर उसके पोतों ने टकराव का संकट पैदा किया है। न्यायाधिकरण ने यह भी पाया कि चीन ने समुद्री पर्यावरण को अपूर्णीय क्षति पहुंचाई है। यह सच्चाई भी है, क्योंकि फिलीपींस के विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र में एक बड़े कृत्रिम द्वीप का निर्माण कर चीन ने वास्तविक परिस्थिति को बदल दिया है और पर्यावरण के गंभीर नुकसान को अनदेखा किया है। चीन के आक्रामक रुख और उसकी संदिग्ध हरकतों ने दक्षिण चीन सागर को क्षेत्रीय अस्थिरता का गढ़ बना दिया है।

पीसीए के फैसले के बाद यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि अंतरराष्ट्रीय कानूनों की अवहेलना कर रहा चीन किस तरह के विश्व की परिकल्पना कर रहा है? यद्यपि इस मामले में चीन के सभी दावों को दरकिनार करते हुए पीसीए ने कानूनी स्थिति स्पष्ट कर दी है, लेकिन उसके फैसले पर अमल कराना असंभव है। चीन ने न केवल इस फैसले को अस्वीकार किया है, बल्कि अपने दावे वाले समुद्री इलाके को हर कीमत पर संरक्षित करने की प्रतिबद्धता भी दोहराई है। हालांकि अंतरराष्ट्रीय कानूनों की अनदेखी करने वाला चीन पहला देश नहीं है और ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। अमेरिका ने भी, जो आज समुद्री कानून संबंधी संधि की दुहाई दे रहा है, अतीत में ऐसे ही फैसले को मानने से इंकार कर दिया था। कुल मिलाकर अमेरिका चीन पर एक सीमा से अधिक दबाव डालने की स्थिति में नहीं है। यही स्थिति अन्य प्रमुख देशों की भी है, लेकिन दक्षिण चीन सागर की समस्या को सुलझाना भी होगा।

यह भी यक्ष प्रश्न है कि दक्षिण चीन सागर पर अपनी नीति को लेकर ढिठाई पर आमादा चीन के साथ क्या व्यवहार किया जाए? इसी तरह यह भी एक सवाल है कि क्या दक्षिण चीन सागर एशिया प्रशांत क्षेत्र में टकराव का जरिया बना रहेगा। ऐसे आसार हैं कि अगले कई वर्षों तक दक्षिण चीन सागर का मसला आसियान क्षेत्र में शांति और सुरक्षा के लिए शायद सबसे बड़ा खतरा बना रहेगा। ऐसे कौन से कदम उठाए जाएं कि क्षेत्रीय शांति बरकरार रहे और अंतरराष्ट्रीय कानूनों की धज्जियां भी न उडें? इस पेचीदा सवाल का आसान जवाब नहीं है। भारत-बांग्लादेश विवाद से इस मसले की तुलना कर चीन को नसीहत देना कारगर नहीं होगा। दक्षिण चीन सागर विवाद में छह देश अपना अपना दावा करते हैं और इस फैसले का प्रभाव अन्य देशों पर भी होगा। सामरिक, आर्थिक और भौगोलिक कारणों से दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण समुद्रों में से एक होने के नाते कई प्रमुख देश इस समुद्री मार्ग पर निर्भर हैं और उनके व्यापक हित दक्षिण चीन सागर से जुड़े हुए हैं। चूंकि सैन्यबल के आधार पर इसका समाधान नामुमकिन है इसलिए इस फैसले ने सभी प्रमुख देशों को एक मौका दिया है कि वे कूटनीतिक और राजनीतिक समाधान तलाशें। पड़ोसी का चयन नहीं किया जा सकता और दक्षिण चीन सागर विवाद से चीन के अपने पड़ोसी देशों संबंध प्रभावित होंगे। सैन्य बल के प्रदर्शन से माहौल और भी खराब होगा। ऐसे में देखना है कि संबंधित देशों के नेता मिल बैठकर कोई राजनीतिक समझ विकसित कर पाते हैं या नहीं? यह बहुत कुछ चीन के रवैये पर निर्भर करेगा। मुश्किल यह है कि ऐसे आसार हैं कि चीन दक्षिण चीन सागर में वायु रक्षा पहचान क्षेत्र की घोषणा कर सकता है। व्यापक क्षेत्रीय हित में चीन को ऐसा करने से बचना चाहिए, क्योंकि टकराव की एक छोटी सी चिंगारी भयंकर आग का रूप ले सकती है, जिस पर काबू पाना कठिन होगा। आपसी प्रतिद्वंद्विता और तनाव के माहौल में इसकी पूरी आशंका है कि अगर चीन ने संयम नहीं बरता तो टकराव की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। ऐसे में समुद्र में अनियोजित मुठभेड़ों से संबंधित आचार संहिता पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए। किसी भी अनहोनी या संघर्ष को रोकने के लिए तात्कालिक उपाय आवश्यक हैं।

आसियान देशों को आपसी सहमति से चीन को राजनीतिक संदेश दिया जाना चाहिए। चीन तमाम तरह की घरेलू समस्याओं से घिरा है। चूंकि उसकी अर्थव्यवस्था की गति धीमी हो रही है इसलिए उसके द्वारा किसी तरह के सैन्यबल का प्रयोग उसके लिए ही आत्मघाती हो सकता है। चीन ने संबंधित देशों के साथ नए सिरे से वार्ता के लिए संकेत दिए हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि संबंधित देशों के नेता राजनीतिक परिपक्वता का परिचय देंगे। दक्षिण चीन सागर विवाद आसियान एकता का एक लिटमस टेस्ट है और इस समूह के क्षेत्रीय मामलों में अपनी भूमिका की क्षमता को साबित करने का एक अवसर। आने वाले समय में सबकी निगाहें इस पर टिकी होंगी कि इस मुद्दे पर आसियान किसी संयुक्त बयान पर सहमति बना पता है या नहीं?

[ लेखक राजीव रंजन चतुर्वेदी, नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर के इंस्टीट्यूट ऑफ साउथ एशियन स्टडीज में रिसर्च एसोसिएट हैं ]