[ विवेक काटजू ]: बीते शुक्रवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लद्दाख का दौरा किया। यह एकदम सही समय पर हुआ। इससे एक साथ कई महत्वपूर्ण संदेश गए। इस एक दांव से प्रधानमंत्री ने भारत की पराक्रमी सेना, लद्दाख की जनता और पूरे देश के साथ ही चीन एवं अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को संदेश दिया। गलवन घाटी के शहीदों के बलिदान को नमन करते उन्होंने देश के लिए साहस और प्रतिबद्धता दिखाने वाली सेना की उचित ही प्रशंसा की। उन्होंने सेना और स्थानीय जनता को आश्वस्त किया कि पूरा देश उनके साथ एकजुट है। उन्होंने चीन ही नहीं, बल्कि समग्र विश्व को संदेश दिया कि भारत किसी दुस्साहस पर अपनी क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा के लिए दृढ़प्रतिज्ञ है।

पीएम मोदी ने विस्तारवादी नीतियों पर चलने वाले देशों को चेताया

मोदी ने विस्तारवादी नीतियों पर चलने वाले देशों को चेताया। उन्होंने बिना नाम लिए ही चीन तक अपनी बात पहुंचा दी। स्वाभाविक है कि उन्होंने कूटनीतिक कारणों से ऐसा नहीं किया। यह चीन के लिए संकेत था कि जहां भारत वास्तविक नियंत्रण रेखा यानी एलएसी पर चीन की किसी भी एकतरफा कार्रवाई का प्रतिकार करेगा, वहीं उसकी मंशा शांतिपूर्ण वार्ता के जरिये मामला सुलझाने की भी है। आखिरकार दोनों देशों के बीच बातचीत हुई और उससे हल निकला। इस बातचीत में भारत की यही मांग थी कि चीन सीमा से सटे लद्दाख के इलाकों में अपने हालिया दुस्साहस से पहले की स्थिति बहाल करे। इनमें पैंगोंग त्सो, गलवन घाटी, हॉट स्प्रिंग्स और देपसांग जैसे इलाके शामिल हैं।

चीनी सेना पर भरोसा नहीं किया जा सकता

हालांकि सरकार ने चीन के साथ विवाद पर बनी सहमति का ब्योरा तो साझा नहीं किया, अलबत्ता यह साफ है कि कुछ प्रगति अवश्य हुई है। मगर जमीनी स्तर पर भी इसकी पुष्टि करनी होगी और हालात की परख करनी होगी, क्योंकि चीनी सेना पर भरोसा नहीं किया जा सकता। दोनों देशों के विशेष प्रतिनिधियों के बीच हुई बातचीत के बावजूद यही हकीकत है। उनके बीच पांच जुलाई को हुई वार्ता अच्छा संकेत है। उन्होंने एलएसी पर शांति बहाल करने के साथ ही चरणबद्ध ढंग से तनाव घटाने के कदम उठाने पर सहमति जताई। उन्होंने यह भी कहा कि दोनों देशों को एलएसी का सम्मान करना चाहिए। वैसे तो चीन अतीत में भी इस सिद्धांत पर सहमत रहा है, लेकिन उसने कभी इसका पालन नहीं किया।

आवश्यक है भारत अपनी चीन नीति पर नए सिरे से विचार करे

पिछले दो महीनों का घटनाक्रम यही दर्शाता है कि चीन आक्रामकता के दम पर यथास्थिति में बदलाव पर आमादा है। ऐसे में भारत के लिए आवश्यक हो जाता है कि वह अपनी चीन नीति पर नए सिरे से विचार करे। इस नीति की बुनियाद वर्ष 1988 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने रखी थी। उन्होंने फैसला किया था कि भारत सीमा संबंधी मसलों पर चीन पर दबाव डालता रहेगा, लेकिन इस कारण दूसरे क्षेत्रों में द्विपक्षीय रिश्तों की राह नहीं रोकी जाएगी। यह भारत की पूर्ववर्ती नीति से बड़ा विचलन था जिसमें भारत ने तय किया हुआ था कि जब तक चीन सीमा संबंधी मुद्दों का समाधान नहीं करता तब तक भारत-चीन सहयोग पूरी तरह आकार नहीं ले सकता। तबसे अब तक सभी सरकारों ने वही चीन नीति अपनाई। इस बीच भारत-चीन व्यापार लगातार फलता-फूलता गया और चीन की तमाम कंपनियों ने भारत में निवेश किया।

चीन का आर्थिक रुतबा बढ़ जाने से चिनफिंग आक्रामक हो गए

1980 के दशक में किसी ने अनुमान नहीं लगाया होगा कि तीस वर्षों के दौरान चीन इतनी बड़ी आर्थिक महाशक्ति बन जाएगा। 1970 के दशक तक आर्थिक पलड़े पर चीन और भारत बराबरी की स्थिति में थे। वर्ष 1978 में चीनी नेतृत्व ने अपनी आर्थिक दिशा ही बदल दी। उसने यह भी तय किया कि वह शक्ति अवश्य हासिल करेगा, परंतु उसका प्रदर्शन नहीं करेगा। शी चिनफिंग से पहले तक सभी चीनी नेताओं ने इस सतर्क रणनीति को ही अपनाया। अब चीन का आर्थिक रुतबा बहुत बढ़ गया है। ऐसी स्थिति में शी आक्रामक हो गए हैं। लद्दाख में उसी आक्रामकता के दर्शन भी हुए।

चीन भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती है

चीन की मौजूदा नीति एक बार फिर यही पुष्ट करती है कि वह भारत के लिए सुरक्षा संबंधी सबसे बड़ी चुनौती है। पाकिस्तान के साथ उसकी साठगांठ के साथ भारत के लिए यह मसला और जटिल हो जाता है। हालांकि दोनों देशों के बीच व्यापक आर्थिक एवं वाणिज्यिक सहयोग के चलते यह हकीकत शायद छिपी रहती है। चीन भारत समेत अपने पड़ोसी देशों के हितों की कीमत पर खुद अमेरिका के बराबर महाशक्ति बनने की इच्छा रखता है। लद्दाख के हालिया घटनाक्रम ने उसकी इसी मूल मंशा को जाहिर किया है। ऐसी स्थिति में चीन के प्रति भारत की क्या नीति होनी चाहिए?

भारत को राजनीतिक, कूटनीतिक, आर्थिक मोर्चे पर कारगर रणनीतियां बनानी होंगी

सबसे पहले तो यह समझना होगा कि चीन हमेशा भारत के लिए सबसे प्रमुख चुनौती बना रहेगा। ऐसे में भारत को अपने हितों की सुरक्षा के लिए राजनीतिक, कूटनीतिक, आर्थिक और वाणिज्यिक मोर्चे पर कारगर रणनीतियां बनानी होंगी। यह एक दीर्घकालिक प्रक्रिया होगी जिसके लिए दृढ़ राष्ट्रीय इच्छाशक्ति चाहिए।

चीन को जवाब देने में प्रधानमंत्री मोदी का आह्वान बहुत मायने रखता 

चीन को जवाब देने के सिलसिले में आत्मनिर्भर बनने का प्रधानमंत्री मोदी का आह्वान बहुत मायने रखता है। भारत चीन से निम्न एवं उच्च तकनीकी उत्पादों का आयात करता है। ऐसे में छोटे तकनीकी उत्पादों की विनिर्माण क्षमताएं तेजी से विकसित करनी होंगी। उच्च तकनीकी उत्पादों के मामले में जरूर कुछ समय लगेगा। तब तक चीनी आपूर्ति की धारा को बंद न किया जाए, बल्कि सक्रियता से उसके विकल्प तलाशे जाने चाहिए।

भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए प्रयास करना होगा

किसी भी देश का वास्तविक सामर्थ्य उसकी अर्थव्यवस्था में निहित होता है। इसलिए भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए हरसंभव प्रयास करना होगा। इस दिशा में फिलहाल सबसे बड़ी चिंता यही है कि हम कोरोना महामारी से उपजी मुश्किलों से कैसे उबरें। भारत जितने बड़े देश के हितों की पूर्ति के लिए जरूरी है कि वह अपनी क्षमताओं पर भरोसा करे। हमें उन देशों के साथ कूटनीतिक संबंध मजबूत बनाने होंगे जो खुद चीनी आक्रामकता की तपिश झेल रहे हों। जैसे कि अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया। हालांकि उनके साथ संबंध बराबरी और साझा हितों वाले होने चाहिए।

राष्ट्रीय हितों के लिए राजनीतिक लाभ के आकर्षण का मोह त्यागना पड़ेगा

चीनी चुनौती को देखते हुए हमें अपनी एकजुटता भी बढ़ानी होगी। हमारी राजनीतिक एवं सामरिक बिरादरी मिलकर ऐसी ठोस नीतियां बनाएं जो भविष्य में भी प्रासंगिक रहें। राष्ट्रीय हितों के लिए राजनीतिक लाभ के आकर्षण का मोह त्यागना पड़ेगा। इस दिशा में सहमति के लिए राजनीतिक वर्ग के बीच व्यापक एवं विश्वसनीय विमर्श जरूरी है। चूंकि देश नीतियां अपने हितों के आधार पर तैयार करते हैं तो हमें यह भी समझना होगा कि भारत और चीन के नेताओं के निजी रिश्तों का तानाबाना चीन को भारत के खिलाफ कुटिलता करने से नहीं रोक सकेगा।

( लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं )