विजय क्रांति: ऐसी अपेक्षा थी, चीन में संसद के दर्जे वाली नेशनल पीपुल्स कांग्रेस ने 10 मार्च को शी चिनफिंग को तीसरी बार राष्ट्रपति निर्वाचित घोषित कर दिया। ‘लोकतांत्रिक चुनाव’ के रूप में पेश किए गए इस चुनाव में अकेले शी ही उम्मीदवार थे और वह 2952-0 वोटों से चुन लिए गए। इसके साथ ही संसद ने उन्हें चीन के केंद्रीय मिलिट्री कमीशन का अध्यक्ष भी चुन लिया, जो उन्हें चीनी सेना के सर्वोच्च कमांडर वाली शक्तियां प्रदान करता है, लेकिन संसद में हुए इन ‘चुनावों’ से पहले ही शी चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव चुने जा चुके थे, जो चीनी राजव्यवस्था में सबसे शक्तिशाली पद है और राष्ट्रपति तथा सर्वोच्च कमांडर से ज्यादा अधिकार रखता है।

इस तरह अब शी के लिए जीवन भर चीन का सर्वशक्तिसंपन्न शासक बने रहने का मार्ग प्रशस्त हो गया। इस चुनाव से पहले शी ने संसद से लेकर कम्युनिस्ट पार्टी की 200 सदस्यों वाली केंद्रीय कमेटी, 25 सदस्यों वाले पोलित ब्यूरो और सात सदस्यों वाली स्टैंडिंग कमेटी में से अपने हर संभावित विरोधी को हटाकर अपने चाटुकार लोगों को बैठा लिया था।

1949 में चीनी शासन व्यवस्था पर कम्युनिस्ट पार्टी के हिंसक कब्जे के बाद यह पहला मौका है जब किसी नेता के पास सर्वशक्तिमान समझे जाने वाले चेयरमैन माओ से भी ज्यादा शक्तियां आ गई हैं। माओ ने दो बार महासचिव रहने के बाद अपने लिए जीवन भर राष्ट्रपति रहने के अधिकार रख लिए थे। चीन की राजनीतिक हालत दिखा रही है कि शी भी अब जीवन भर तीनों पदों पर कब्जा बनाए रखने के सपने संजोए हुए हैं। उनके इस सपने ने एक ओर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर महत्वाकांक्षी नेताओं के सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने के सपनों को चकनाचूर कर दिया है। दूसरी ओर चीन की आक्रामकता को झेलने वाले देशों के सामने भी नई चिंताएं पैदा हो गई हैं।

इन देशों में चीन की धमकियों और आक्रामकता को सीधे-सीधे झेलने वाले भारत, ताइवान, अमेरिका, जापान और वियतनाम जैसे देश भी हैं और दक्षिणी चीन सागर से लगने वाले फिलीपींस, मलेशिया, ब्रूनेई और इंडोनेशिया जैसे वे देश भी, जो चीन से सैकड़ों किमी दूर हैं, लेकिन उनकी सीमाओं के भीतर के द्वीपों पर भी चीन अपना हक जता रहा है। वह कुछ जगह अपने नौसैनिक अड्डे भी बना चुका है। इसके गंभीर निहितार्थ हैं।

सत्ता पर नए सिरे से नियंत्रण के बाद शी ने अपने पहले ही भाषण में यह स्पष्ट कर दिया कि नए राजनीतिक रुतबे और शक्तियों ने उन्हें और आक्रामक बना दिया है। अपने समापन भाषण में शी ने घोषणा की कि चीन की सेनाओं और सैनिक व्यवस्था को और आधुनिक बनाया जाएगा और उसे चीन की ‘ग्रेट वाल’ की तरह ‘स्टील की ग्रेट वाल’ बनाया जाएगा। शी की इस घोषणा को चीनी आक्रामकता के शिकार ताइवान, भारत और जापान के लिए सीधी-सीधी चुनौती के रूप में देखा जा रहा है। चीन सरकार पहले ही भारत के अरुणाचल समेत कई अन्य हिस्सों को ‘चीनी क्षेत्र’ बता चुकी है और उन्हें चीन के नक्शे में दिखाती आ रही है।

शी चीनी संविधान में एक नई धारा जोड़ चुके हैं, जिसमें चीन की सेना और सरकार के लिए यह जरूरी कर दिया गया है कि दूसरे देशों के ‘कब्जे’ में मौजूद चीनी क्षेत्रों को किसी भी तरीके से मुक्त कराकर वापस चीन में शामिल किया जाए। इस संदर्भ में शी की यह नई घोषणा भारत के लिए बड़ी चिंता पैदा करने वाली है।

अपने इस भाषण में शी ने ताइवान का नाम लेकर एलान किया कि अगर वह बातचीत के रास्ते से चीन में अपना विलय करने को राजी नहीं होता तो चीन बिना किसी संकोच के शक्ति का प्रयोग करेगा और उसे चीन का हिस्सा बनाएगा। ऐसा ही खतरा अब जापान के सामने है। दक्षिणी चीन सागर के बारे में तो शी ने सत्ता में आने के बाद ही चीन की नीति को और ज्यादा आक्रामक बना दिया था। चीन का दावा है कि पूरा दक्षिणी चीन सागर उसका अपना है और इसमें आने वाले द्वीप भी उसके हैं। पहले की चीनी सरकारें इस समुद्र पर नौ कल्पित रेखाएं लगाकर इनके भीतर के पूरे इलाके पर अपना दावा करती आई हैं।

शी ने सत्ता में आने के बाद इस ‘नाइन-डैश लाइन’ को और फैलाकर 11 रेखाओं वाली कल्पित ‘इलेवन-डैश लाइन’ बना दिया। इसी कल्पित रेखा के आधार पर अब चीन अपनी मुख्य भूमि से दो हजार किमी दूर बसे ब्रूनेई और मलेशिया, फिलीपींस तथा इंडोनेशिया जैसे देशों के उन द्वीपों पर भी दावा जता रहा है, जो उनके कानूनी अधिकार क्षेत्र में हैं। इसी तरह हिंद महासागर और प्रशांत महासागर में गरीब देशों को उधार देकर चीन ने कई स्थानों पर अपने नौसैनिक ठिकाने बना लिए हैं, जो दुनिया भर के नौवहन के लिए संकट का कारण बन चुके हैं।

यही कारण है कि अब चीन की धमकियों का जवाब देने के लिए बहुत सारे देश साझा सुरक्षा के रास्ते खोजने में लगे हैं। हालांकि ऊपर से देखने पर शी चीन के एक बहुत शक्तिशाली शासक दिखने लगे हैं, लेकिन सत्ता पर निरंकुश कब्जा जमाने की हवस में उन्होंने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और चीनी सेना पीएलए के भीतर अपने बहुत विरोधी भी पैदा कर लिए हैं, जो किसी दिन उनके सिंहासन को उखाड़ सकते हैं।

इस बार नई संसद के दौरान पता चला कि लंबे लाकडाउन की आड़ में शी और उनके गुट ने ऐसे कई नेताओं और सैनिक अधिकारियों को गायब कर दिया, जो संकट का कारण बन सकते थे। यही काम चेयरमैन माओ ने भी किया था, लेकिन अब इंटरनेट के प्रसार और चीनी नागरिकों में आर्थिक संपन्नता के कारण पैदा महत्वाकांक्षाओं के कारण शी की यह चाल बहुत महंगी पड़ सकती है।

अरबपतियों के प्रभाव क्षेत्र से डरे हुए शी ने कई बड़े अमीरों की हैसियत घटाने के लिए जो कदम उठाए हैं, उसने कम्युनिस्ट पार्टी के लिए सुविधासंपन्न खेमे के भीतर कई दुश्मन पैदा कर दिए हैं। ‘जीरो-कोविड’ की पाबंदियों से पीड़ित जनता जिस तरह दिसंबर में सड़कों पर उतर आई थी, उसने शी की सत्ता उखाड़ने वालों को एक ऐसी आश्वस्ति दे दी है, जो किसी भी दिन अपना रंग दिखा सकती है।

(लेखक सेंटर फार हिमालयन एशिया स्टडीज एंड एंगेजमेंट के चेयरमैन एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं)