छत्तीसगढ़, मनोज झा। देश में गाय पर सियासत तो खूब चलती है, लेकिन गोबर पर कभी कोई चर्चा या विवाद शायद ही सुनने को मिला हो। ऐसे में छत्तीसगढ़ देश का शायद पहला राज्य है, जहां इन दिनों सियासत के पटल पर गोबर जबरदस्त चर्चा में है। दरअसल, राज्य में बेसहारा मवेशी लंबे समय से एक बड़ी समस्या बने हुए हैं। शहरों में गली-मुहल्लों और मुख्य मार्गों के अलावा और राजमार्गों पर आपको कहीं भी इन मवेशियों के झुंड अड्डा जमाए दिख जाएंगे। बरसात की रातों में तो राजमार्ग ही इन बेसहारा मवेशियों का आश्रय स्थल बन जाता है। इसके चलते आए दिन सड़क हादसे होते हैं, जिनमें जानमाल का काफी नुकसान भी होता है।

फौरी तौर पर तो इसी समस्या से निजात पाने के लिए प्रदेश सरकार ने गोबर खरीद योजना शुरू की है। सरकार का मानना है कि आर्थिक लाभ के मद्देनजर इन मवेशियों के स्वामी इन्हें खूंटे से बांधकर रखने को प्रेरित होंगे। इससे जहां राहगीरों को बेसहारा पशुओं की समस्या से निजात मिलेगी, वहीं खाद के तौर पर गोबर के इस्तेमाल से खेती-किसानी को भी लाभ मिलेगा। सरकार की यह मंशा विपक्षी भाजपा के न सिर्फ निशाने पर है, बल्कि उसने इसका मजाक भी उड़ाया है। ऐसे में सवाल लाजिमी है कि आखिर क्या है यह गोबर का गणित?

ऊपरी तौर पर गोबर खरीद योजना सड़कों पर मवेशियों के बेसहारा विचरने की समस्या से निजात दिलाने की दिशा में उठाया गया कदम भले दिखाई देता हो, लेकिन भूपेश सरकार का असली मकसद कोई इतना सामान्य भी नहीं है। दरअसल, गोबर जैसी मामूली चीज के जरिये सियासत का बड़ा सवाल हल करने का प्रयास किया जा रहा है। भूपेश सरकार के डेढ़ साल के कार्यकाल पर सरसरी नजर दौड़ाएं तो यह साफ दिखाई देता है कि मुख्यमंत्री का फोकस मुख्य रूप से गांव, खेत-खलिहान और किसानों पर है। चुनाव से पहले से कांग्रेस ने धान किसानों के लिए बढ़-चढ़कर दावे किए थे। तब भाजपा के अलावा कई राजनीतिक पंडितों ने भी इन दावों पर संशय जताया था। वादा बड़ा था, लेकिन भूपेश बघेल ने शपथ लेते ही इसे पूरा करने की दिशा में कदम उठा दिया। यहां तक कि धान खरीद अंतर राशि का भुगतान करने को लेकर भूपेश को केंद्र से भी दो-दो हाथ करने पड़े।

बहरहाल, धान उत्पादकों को पैसा दिया गया। इससे किसानों के साथ-साथ ग्रामीण अंचल में सरकार की साख मजबूत हुई। अब हाल ही में राजीव गांधी किसान न्याय योजना के तहत भी सरकार ने धान उत्पादकों को लॉकडाउन के इस विकट दौर में महत्वपूर्ण आर्थिक सहायता देकर इस साख को और पुख्ता किया। साथ ही प्रकारांतर से मानो यह संदेश भी दिया है कि गांव और किसान उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता में है। गोबर खरीदी से पहले नरवा, गरवा, घुरवा, बाड़ी और गोठान समितियों के गठन जैसी योजनाएं भी विशुद्ध रूप से गांवों से जुड़ी हैं। यह ठीक है कि इन तमाम योजनाओं के नतीजों का अभी इंतजार है, लेकिन संदेश तो निसंदेह अच्छा गया है। ध्यान रहे कि राजनीति में संदेश और धारणाओं का बड़ा महत्व है। यहां इस बात का उल्लेख भी जरूरी होगा कि गोबर खरीद योजना से बड़े पशुपालकों या डेयरी आदि को बाहर रखा गया है। गांवों में बहुतायत संख्या दो-एक मवेशियों वाले किसानों या पशुपालकों की है। साफ है कि इस योजना के जरिये सरकार की कोशिश ऐसे बहुसंख्यक किसानों को साधने की है।

अंत में सवाल यह कि आखिर भूपेश सरकार के एजेंडे में गांव और किसान शीर्ष पर हैं क्यों? दरअसल, पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की शानदार जीत की पूरी पटकथा गांवों ने ही लिखी थी। पार्टी को यह भी पता है कि चुनावों में करारी हार के बावजूद भाजपा का शहरों में मजबूत आधार कमोबेश अभी भी बना हुआ है। ऐसे में अधिकतम सियासी संभावनाएं गांवों में ही है। यह बात भी अपनी जगह है कि भाजपा के पंद्रह साल के लंबे शासनकाल के दौरान कांग्रेस के कई पारंपरिक वोटबैंक या तो छिटक गए या फिर इनका आधार कमजोर हो गया। ऐसे में भूपेश के लिए गांवों पर दोबारा मजबूत पकड़ बनाना जरूरी है। इसलिए इसमें कोई हैरत की बात नहीं कि भूपेश सरकार की ज्यादातर योजनाओं में गांव-गिराव बीच में दिखाई देती है। फिर सियासत में गोबर जैसा विषय लीक से थोड़ा हटकर भी है। और जहां तक लीक छोड़कर नया रास्ता बनाने की बात है तो मुख्यमंत्री भूपेश बघेल आए दिन ऐसा प्रयोग करते रहे हैं। कुछ भी हो, गोबर खरीद योजना के बहाने छत्तीसगढ़ इन दिनों चर्चाओं तो आ ही गया है।

[राज्य संपादक, छत्तीसगढ़]