[ रमेश कुमार दुबे ]: देश की राजधानी दिल्ली से सटे ग्रेटर नोएडा में कॉप-14 (कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज) सम्मेलन को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब यह कहा कि भारतीय परंपरा में पृथ्वी को माता का दर्जा दिया गया है और उसकी सेहत की चिंता की जानी चाहिए तो लोगों का ध्यान इस पर गया कि धरती के समक्ष कैसे-कैसे खतरे उत्पन्न हो चुके हैैं? अच्छी बात यह है कि भारत सरकार इन खतरों से निपटने के लिए मरुस्थलीकरण रोकने, वन क्षेत्र बढ़ाने, सिंगल यूज प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाने जैसे उपाय कर रही है। इसके अलावा सरकार जीरो बजट प्राकृतिक खेती पर ध्यान देने के साथ-साथ जल संरक्षण को भी जनांदोलन बना रही है। साथ ही स्वच्छ भारत मिशन की तरह अब पर्यावरण संरक्षण की मुहिम शुरू की गई है।

धरती को बीमार बनाने का हक नहीं

देखा जाए तो धरती की सेहत बिगाड़ने में एक बड़ा योगदान रासायनिक उर्वरकों-कीटनाशकों का रहा है। इसी को देखते हुए इस साल स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्र के नाम संबोधन में प्रधानमंत्री ने पर्यावरण अनुकूल खेती पर जोर देते हुए रासायनिक उर्वरकों-कीटनाशकों के उपयोग को धीरे-धीरे कम करने और अंतत: इनका इस्तेमाल बंद करने का आह्वान किया था। उन्होंने यह भी कहा था कि एक किसान के रूप में हमें धरती को बीमार बनाने का हक नहीं है। इस साल के बजट में भी जीरो बजट खेती का एलान किया गया है। इसमें खेती के लिए जरूरी बीज, खाद, पानी आदि का इंतजाम कुदरती रूप से किया जाता है।

जैविक खेती को बढ़ावा

केंद्र सरकार ने जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए परंपरागत कृषि विकास योजना बनाई है। इसके तहत तीन साल के लिए प्रति हेक्टेयर 50,000 रुपये की सहायता दी जा रही है। मोदी सरकार की धरती बचाने की यह पहल अकारण नहीं है। देश में रासायनिक उर्वरकों-कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से एक ओर धरती की उर्वरा शक्ति नष्ट हो रही है तो दूसरी ओर अनाज-सब्जियों के माध्यम से यह जहर लोगों के शरीर में भी पहुंच रहा है और वे तरह-तरह की बीमारियों का शिकार बन रहे हैं।

प्राकृतिक खेती अपनाने से आमदनी में बढ़ोतरी

अभी तक यह भ्रामक धारणा थी कि रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल बंद करने से उत्पादन घट जाएगा, लेकिन कई अध्ययनों से यह साबित हो गया है कि रासायनिक उर्वरक-कीटनाशक मुक्त खेती से न केवल लागत में कमी आती है, बल्कि उत्पादन में भी बहुत फर्क नहीं पड़ता। अंतरराष्ट्रीय कृषि विकास कोष (आइएफएडी) द्वारा भारत और चीन में किए गए अध्ययनों के आधार पर इस बात की पुष्टि की गई है कि प्राकृतिक खेती अपनाने से किसानों की आमदनी में काफी बढ़ोतरी होती है।

देश की 30 फीसद जमीन बंजर होने के कगार पर

सेंटर फॉर साइंस एंड एंवायरनमेंट की रिपोर्ट के मुताबिक देश की 30 फीसद जमीन बंजर होने के कगार पर है। इसका कारण यूरिया का अंधाधुंध इस्तेमाल है जिसे हरित क्रांति के दौर में उत्पादन बढ़ाने का अचूक मंत्र मान लिया गया था। यूरिया इस्तेमाल के दुष्प्रभाव के अध्ययन के लिए वर्ष 2004 में सरकार ने सोसायटी फॉर कंजरवेशन ऑफ नेचर की स्थापना की थी। उसने भी यूरिया को धरती की सेहत के लिए घातक बताया था। रासायनिक उर्वरक-कीटनाशक आधारित खेती की शुरुआत यूरोप में औद्योगिक क्रांति के साथ हुई थी, ताकि कम भूमि में अधिक पैदावार हासिल किया जा सके। आगे चलकर विकासशील देश भी औद्योगीकरण और आधुनिक खेती को विकास का पर्याय मानने लगे।

रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों से कृषि मित्र जीव-जंतुओं का विनाश

भारत ने भी इसी नीति का अनुसरण किया। परिणामस्वरूप देश भर में उर्वरक कारखाने लगे और गेहूं एवं धान के संकरित बीजों को रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों के साथ उगाया जाने लगा। इससे शुरू में तो उत्पादकता बढ़ी, लेकिन आगे चलकर मिट्टी की नमी और उसके भुरभुरेपन में कमी आई और कृषि मित्र जीव-जंतुओं का बड़े पैमाने पर विनाश हुआ। जैसे-जैसे मिट्टी की प्राकृतिक शक्तियां घटीं वैसे-वैसे रासायनिक उर्वरकों की जरूरत भी बढ़ी। इसके साथ ही उत्पादकता में भी ढलान आनी शुरू हुई। उदाहरण के लिए 1960 में एक किलोग्राम रासायनिक खाद डालने पर उत्पादन में 25 किलोग्राम की बढ़ोतरी होती थी, जो 1975 में 15 किलोग्राम तथा 2009 में मात्र 6 किलोग्राम रह गई।

रासायनिक उर्वरकों की खपत से आई उत्पादकता में गिरावट

इस प्रकार रासायनिक उर्वरकों की खपत बढ़ने से जहां एक ओर लागत बढ़ी वहीं दूसरी ओर उत्पादकता में गिरावट आने से किसानों के लाभ में भी कमी आई। रासायनिक उर्वरकों की बढ़ती खपत का सीधा प्रभाव सब्सिडी पर पड़ा। 1976-77 में 60 करोड़ रुपये की उर्वरक सब्सिडी दी गई थी, जो वर्ष 2007-08 में 40,338 करोड़ रुपये हो गई। वर्ष 2019-20 में इसके 80,000 करोड़ रुपये तक पहुंचने का अनुमान है।

यूरिया के इस्तेमाल से नाइट्रोजन चक्र प्रभावित

पिछली सरकारों ने रासायनिक उर्वरकों के संतुलित इस्तेमाल की ओर ध्यान नहीं दिया जिससे उर्वरक सब्सिडी यूरिया केंद्रित बनकर रह गई। इसका नतीजा यह हुआ कि यूरिया नमक से भी सस्ती बिकने लगी। इससे उर्वरकों के असंतुलित इस्तेमाल को बढ़ावा मिला। उदाहरण के लिए 83 फीसद रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल देश के महज 292 जिले करते हैं, जबकि शेष 433 जिलों के हिस्से में 17 फीसद यूरिया आती है।नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश का आदर्श अनुपात 4:2:1 है, लेकिन पंजाब में यह अनुपात 31:8:1 और हरियाणा में 28:6:1 तक बिगड़ चुका है। कमोबेश यही स्थिति दूसरे राज्यों की भी है। यूरिया के अत्यधिक इस्तेमाल ने नाइट्रोजन चक्र को बुरी तरह प्रभावित किया है। नाइट्रोजन चक्र बिगड़ने का दुष्परिणाम केवल मिट्टी-पानी तक सीमित नहीं रहा है। नाइट्रस ऑक्साइड के रूप में यह एक ग्रीनहाउस गैस भी है और वैश्विक जलवायु परिवर्तन में इसका बड़ा योगदान है। गौरतलब है कि ग्रीनहाउस गैस के रूप में कार्बन डाईऑक्साइड के मुकाबले नाइट्रस ऑक्साइड 300 गुना अधिक प्रभावशाली है।

सस्ती यूरिया से बंजर बनी जमीन

सस्ती यूरिया से न सिर्फ जमीन बंजर बनी, बल्कि तस्करी के जरिये यह बड़े पैमाने पर नेपाल और बांग्लादेश पहुंचने लगी। इतना ही नहीं यूरिया का इस्तेमाल नकली दूध, विस्फोटक बनाने आदि में भी होने लगा था। इसी को देखते हुए साल 2015 में मोदी सरकार ने नीम कोटेड यूरिया का उत्पादन करना अनिवार्य कर दिया जिससे यूरिया का दुरुपयोग रुक गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने धरती की सेहत सुधारने की जो बहुआयामी मुहिम छेड़ी वह पर्यावरण संरक्षण की दिशा में मील का पत्थर साबित हो, इसकी कोशिश सभी को करनी चाहिए।

( लेखक केंद्रीय सचिवालय सेवा में अधिकारी हैैं )