[ राजीव सचान ]: चीन से विवाद को लेकर विभिन्न दलों के बीच जारी आरोप-प्रत्यारोप के अभद्र सिलसिले को राजनीति कहा जा रहा है, लेकिन यह राजनीति नहीं घटिया-छिछली राजनीति है। आखिर उन तौर-तरीकों को राजनीति कैसे कहा जा सकता है जो कलह पैदा करें, घोर संकट के समय भी राष्ट्रीय एकजुटता की भावना को भंग करें और लोगों के बीच भ्रम फैलाएं? क्या हम सबने यही नहीं पढ़ा-सुना कि राजनीति तो वह है जो जनता और समाज का मार्गदर्शन करती है? यदि किसी देश में राजनीति लोगों को सही दिशा दिखाने के बजाय खुद दिशाहीन हो जाए तो यह उससे ज्यादा उस देश का दुर्भाग्य है। भारतीय राजनीति हर गुजरते दिन के साथ अपने छिछलेपन को प्रकट कर रही है। वह पहले से ज्यादा सस्ती और ओछी होती जा रही है।

भारतीय राजनीति में बेतुके बोल

भारतीय राजनीति में बेतुके बोल बोलने, अनर्गल प्रलाप करने वालों और यहां तक कि तू-तड़ाक की भाषा का इस्तेमाल करने वालों की भरमार भले न हो, लेकिन उन्हेंं जिस तरह प्रमुखता मिलती है उससे यही लगता है कि खोटे सिक्कों को इसलिए आगे किया जाता है ताकि वे अच्छे सिक्कों को चलन से बाहर कर दें। इसकी पुष्टि विभिन्न दलों के उन प्रवक्ताओं से होती है जो आम तौर पर गाली-गलौज करने के लिए अधिक जाने जाते हैं। राजनीति के नाम पर जैसे सस्ते-ओछे तौर-तरीके चलन में आ गए हैं उन्हेंं देखते हुए इसके आसार और कम होते जा रहे हैं कि भारत अपनी चुनौतियों का सामना करने और एक सबल राष्ट्र के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल होगा।

कोरोना कहर से निपटने के मामले में राजनीतिक एकजुटता को छिन्न-भिन्न किया गया

राजनीतिक दल राष्ट्रीय हितों की चिंता करने का चाहे जितना दम भरें उनका मुख्य काम एक-दूसरे की टांग खींचना, हर काम में अड़ंगा लगाना और राष्ट्रीय सहमति को छिन्न-भिन्न करना है। क्या यह किसी से छिपा है कि कोरोना कहर से निपटने के मामले में राजनीतिक एकजुटता को किस तरह छिन्न-भिन्न किया गया? एक समय था कि विदेश नीति तू तू-मैं मैं की राजनीति से बची हुई थी, लेकिन सियासी डायन ने उसे भी लील लिया और अब तो ऐसा कोई क्षेत्र, संस्था ही नहीं बची जिस पर राजनीतिक क्षुद्रता के चलते आक्षेप न लगाए जाते हों।

राहुल गांधी यह साबित करने पर तुले हैं कि प्रधानमंत्री ने चीन के सामने समर्पण कर दिया

हालत यह है कि राजनीतिक दल अब इसकी भी परवाह नहीं करते कि उनकी हरकतों से किसी देश के साथ संबंध प्रभावित तो नहीं होंगे? शायद ही कोई भूला हो कि लोकसभा चुनाव के समय राहुल गांधी किस तरह यह साबित करने के लिए सनक गए थे कि राफेल सौदे में खुद नरेंद्र मोदी ने देश का पैसा उद्योगपतियों की जेब में डाला है। तब उनकी ओर से बस यही कहना शेष रह गया था कि मोदी ने फ्रांस के नेताओं को भी दलाली खिलाई है। अब वह यह साबित करने पर तुले हैं कि प्रधानमंत्री ने चीन के सामने समर्पण कर दिया है। आखिर चीन इससे खुश क्यों नहीं होगा कि उसे मोदी को कमजोर दिखाने-बताने वाला एक नेता भारत में ही मिल गया है?

चीनी सेना के अतिक्रमणकारी रुख के चलते विश्व समुदाय की निगाहें भारत पर हैं

लद्दाख में चीनी सेना के अतिक्रमणकारी रुख के चलते विश्व समुदाय की निगाहें भारत पर हैं। वह और खासकर चीन से पीड़ित देश उत्सुकता के साथ यह देख रहे हैं कि भारत तानाशाह चीन की गुंडागर्दी का जवाब कैसे देता है, लेकिन उन्हेंं यह देखने को मिल रहा कि भारत के राजनीतिक दल एक-दूसरे पर ओछे हमले करने में जुटे हुए हैं। शातिर चीनी सत्ता भी यह देख रही होगी कि भारत के राजनीतिक दल तो उसके खिलाफ एकजुट होने के बजाय आपस में उलझे हुए हैं। वह खुश होगा और हैरत नहीं कि उसका दुस्साहस भी बढ़ रहा हो। राहुल को तो वह खास तौर पर धन्यवाद दे रहा होगा। वह इस कारण वाम दलों पर भी मुदित होगा कि उनके नेता उस पंचशील समझौते का राग अलाप रहे हैं जिसे उसने खुद जमींदोज किया था।

सर्वदलीय बैठक: सोनिया ने सुपर पीएम वाले अवतार में आकर राजनीतिक एका में पलीता लगाया

चीन के मामले में प्रधानमंत्री ने सर्वदलीय बैठक बुलाकर एक सही शुरुआत की थी, लेकिन उसमें सोनिया गांधी ने सुपर प्राइम मिनिस्टर वाले अवतार में आकर राजनीतिक एका में पलीता लगा दिया। इसके बाद भाजपा भी कांग्रेस के खिलाफ खुलकर मैदान में आ गई। उसने चीनी चंदे का मामला उछाला और यह साबित करने की कोशिश की कि राजीव गांधी फाउंडेशन को चीन से मिले चंदे के बदले संप्रग सरकार ने चीनी हितों की चिंता करनी शुरू कर दी।

देश के सामने दो संकट- कोरोना के कहर को थामने की चुनौती और चीन की गुंडागर्दी का जवाब देना

सच जो भी हो, इसमें दो राय नहीं कि भारतीय राजनीति दलगत क्षुद्रता की सारी सीमाओं को एक ऐसे समय पार कर रही जब देश एक साथ कई मोर्चों पर संकटों से घिरा है। एक ओर कोरोना के कहर को थामने की चुनौती है तो दूसरी ओर चीन की गुंडागर्दी का जवाब देने की।

कांग्रेस संयम के सारे बांध तोड़ने पर आमादा

यह सही है कि राष्ट्रीय महत्व के मसलों पर राजनीतिक एका कायम करने की जिम्मेदारी सत्ताधारी दल की होती है, लेकिन वह तभी सफल हो सकता है जब विपक्षी दल तुक की बात करें-तार्किक व्यवहार करें। जब अन्य विपक्षी दल अपेक्षाकृत संयमित आचरण कर रहे हैं तब कांग्रेस संयम के सारे बांध तोड़ने पर आमादा है।

भाजपा कब तक कीचड़ के जवाब में कीचड़ उछालना पसंद करेगी

हालांकि कांग्रेस और खासकर राहुल गांधी के रुख-रवैये में सुधार के रत्ती भर भी संकेत नहीं, लेकिन बेहतर हो कि भाजपा यह तय करे कि वह कब तक कीचड़ के जवाब में कीचड़ उछालना पसंद करेगी? यह कीचड़बाजी तो देश की राजनीति को और गहरे-बदबूदार दलदल में ही धंसाएगी। जिस देश की राजनीति राष्ट्रीय हितों को धता बताने वाली हो वह कभी भी बड़े लक्ष्य हासिल नहीं कर सकता।

हम दुनिया में अपना वह स्थान नहीं बना पा रहे जिसके हकदार माने जाते हैं 

लगता है हमारे राजनीतिक दलों ने उन देशों से कुछ न सीखने की कसम खा रखी है जहां दलगत राजनीति का असर उनकी विदेश, रक्षा और आर्थिक-व्यापारिक नीतियों पर नहीं पड़ता। चूंकि हमारे राजनीतिक दलों के पास ऐसा कोई साझा लक्ष्य ही नहीं जिसे हासिल करने पर उनमें सहमति हो इसलिए हैरत नहीं कि हम दुनिया में अपना वह स्थान नहीं बना पा रहे जिसके हकदार माने जाते हैं।

( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं )