नई दिल्ली (बद्री नारायण)। बहुजन राजनीति को अकादमिक एवं राजनीतिक विमर्श में ‘दलित राजनीति’ भी कहा जाता है। हालांकि बहुजन शब्द दलित शब्द से ज्यादा व्यापक सामाजिक समूहों को अपने अर्थ में समेटता है। यहां भी मैं बहुजन शब्द का प्रयोग दो अर्थो में कर रहा हूं। एक तो दलित शब्द के स्थानापन्न के रूप में। दूसरे इसकी व्यापकता को भी मैं निरुपित करने का प्रयास करूंगा। बहुजन राजनीति आज एक ऐसे मोड़ पर आ खड़ी हुई है जहां अनेक प्रश्न उठने लगे हैं। एक तरफ उपेक्षित, अनुसूचित एवं अति पिछड़े समुदायों में असमान विकास दिख रहा है। दूसरी ओर उनमें एक शिक्षित, प्रभावी एवं शक्तिशाली समुदाय उभर रहा है। वहीं उनका बहुलांश अभी भी उपेक्षा का शिकार है। ऐसे में बहुजन राजनीति को अपनी भाषा से ऐसे बहुस्तरीय बहुजन मानसिकता को संबोधित करना होगा। ऐसा न होने से बहुजन राजनीति में तरह-तरह के मुद्दे, भाषा एवं विमर्श से परिपूर्ण अनेक प्रकार के नेतृत्व के उभार की भी संभावना है।

कांशीराम और मायावती के नेतृत्व में उत्तर भारत में ‘दलित-बहुजन राजनीति’ ने प्रभावी सफलता हासिल की है, किंतु इसी प्रक्रिया में अनुसूचित जातियों में भी बहुस्तरीय एवं असमान विकास हुआ है। ऐसे में पिछले दशक से ही मायावती के सामने यह संकट आ खड़ा हुआ था कि कैसे इस बहुस्तरीय एवं बहुभेदी अनुसूचित जाति को एक भाषा एवं एक प्रकार के विमर्श से जोड़कर रखा जाए। कांशीराम के समक्ष अनेक जातियों एवं अस्मिताओं में बंटे अनुसूचित एवं बहुजन समाज को इकट्ठा करने की चुनौती थी, जिसके लिए उन्होंने अनेक बहुजन जातीय अस्मिताओं को सम्मान एवं स्थान देते हुए एक राजनीतिक भाषा विकसित की जो उत्तर भारत विशेषकर उत्तर प्रदेश की राजनीति में सफल भी हुई। फिर भी अनुसूचित समूहों में नवआकांक्षी वर्ग विशेषकर युवा जो शिक्षा और नौकरी की शक्ति से लरेज हो रहा था, वह जनमत निर्माता एवं नेतृत्वकारी शक्ति के रूप में उभरने लगा। इनमें से अधिकांश तो मायावती के नेतृत्व वाली बहुजन राजनीति से जुड़े रहे, परंतु तमाम लोगों में इस राजनीति के प्रति नाराजगी भी बढ़ी। बहरहाल यह नाराजगी, अपनों की नाराजगी है। नाराज होकर भी अंतत: उनके बहुलांश का समर्थन बसपा के नेतृत्व वाली बहुजन राजनीति के ही पक्ष में जाने की संभावना झलकती है। हालांकि अन्य सामाजिक समूहों की ही तरह अनुसूचित सामाजिक समूहों के राजनीतिक मत में भी अनेक धुरी, ध्रुव एवं राजनीतिक पक्षधरता बनने एवं विकसित होने की संभावना सदैव रहती है।

पिछले दिनों बहुजन राजनीति में अनेक दमनकारी घटनाओं का विरोध करने के क्रम में जिग्नेश मेवाणी और चंद्रशेखर जैसे युवा नेता की तरह उभरे। मूल रूप से सिविल सोसाइटी, एनजीओ आंदोलन से निकलकर आए इन नेताओं के पास अपने समाज के प्रभावी आधिपत्यशाली समूह, जो दलितों के साथ व्यवहार को लेकर सवालों में रहते हैं, के विरुद्ध एक आक्रामक भाषा है। इस भाषा में कई बार महाराष्ट्र में उभरे दलित पैंथर आंदोलन की भाषा की अनुगूंज भी सुनाई देती है। इनमें कई बार मार्क्‍सवाद और आंबेडकरवादी अनुगूंजों की ध्वनियां भी सुनाई देती हैं। कांशीराम और मायावती के नेतृत्व में उभरे बहुजन आंदोलन के शुरुआती दौर में भी बसपा के पास समाज के आधिपत्यशाली समूहों के विरुद्ध विद्रोह की भाषा थी, जिसके आधार पर बहुजन समाज की उनके पक्ष में गोलबंदी की शुरुआत हुई थी। इसमें ब्राह्मण, ठाकुर और बनिया जैसे सामाजिक समूहों को अपने से अलग मनुवादी सामाजिक समूह माना गया था। मगर जैसे-जैसे बहुजन राजनीति का विस्तार होता गया तो बसपा को ऐसी भाषा की जरूरत हुई जिसमें अनेक स्तरों में बंटा बहुजन समाज जगह पा सके। फिर और ज्यादा फैलाव होने के बाद उन्हें सवर्णो और अन्य प्रभावी जातियों को भी स्वयं से जोड़ने की जरूरत महसूस हुई। फिर जिस ब्राह्मण, बनिया एवं ठाकुर को बहुजन राजनीति अपने प्रारंभिक दौर में अलग मानती थी, उन्हें भी जोड़ने की दिशा में आगे बढ़ी। फिर बहुजन से सर्वजन की यात्रा शुरू हुई। लेकिन बसपा की इस बहुजन से सर्वजन की यात्रा के क्रम में अनुसूचित समूहों का एक बड़ा वर्ग जो आज भी राजनीति में अदृश्य सामाजिक समूह की तरह जीवित है, छूटने लगा।

कई अनुसूचित जातियों में तो अभी उनका सामाजिक एवं सामुदायिक नेतृत्व भी नहीं उभर पाया है। दूसरी ओर बहुजन समाज के प्रभावी समूहों को लगने लगा कि राजनीति एवं राज्य केंद्रित परियोजनाओं का हमारा हिस्सा बसपा एवं बहन जी सवर्णो एवं मुस्लिमों को दे रही हैं। कई बार राजनीतिक आंदोलन की केंद्रीयता बढ़ने से बहुजन आंदोलन में अनुसूचित जातियों, सामाजिक मुद्दे, उत्पीड़न के स्थानीय सवाल बसपा के एजेंडे में गौण होते गए।

बहुजन आंदोलन के सामाजिक प्रोजेक्ट के इसी निर्वात में से चंद्रशेखर जैसे स्वर का उभार हुआ। ध्यान रहे बसपा भी सामाजिक आंदोलनों से ही उभरकर आई। प्रश्न है कि जिग्नेश मेवाणी एवं चंद्रशेखर जैसे युवा नेतृत्व के उभार का बसपा की राजनीति एवं बहुजन आंदोलन पर क्या असर पड़ेगा। एक तो मायावती को इन स्वरों को अपने में समाहित करना होगा। एक ऐसी भाषा विकसित करनी होगी जिसमें बहुजन आंदोलन का सामाजिक अर्थ मुखर होकर सामने आए। हालांकि चंद्रशेखर ने जेल से छूटने के बाद मायावती से खून का रिश्ता घोषित किया, लेकिन मायावती ने इसे नकार दिया। वह शायद यह जानती हैं कि उनके करीब आकर चंद्रशेखर उनकी प्रतीकात्मक शक्ति को क्षीण कर सकते हैं। उनसे दूरी बना करके उनके असर को निष्प्रभावी करना मायावती की रणनीति का हिस्सा हो सकता है।

चंद्रशेखर ने अपने नाम के साथ लगा रावण उपनाम हटा दिया, क्योंकि उन्हें भान हुआ कि उपेक्षित समूहों में तमाम लोग रावण की प्रतीक छवि को आत्मसात नही करेगें। कबीर पंथ, रविदास पंथ, शिवनारायणी पंथ में विश्वास करने वाली अधिकांश बहुजन जनता राममय तो नहीं है, पर उन्हें रावण भी स्वीकार्य नहीं। यह चंद्रशेखर की बहुजन समाज के एक बड़े हिस्से को लामंद करने की आगामी रणनीति का हिस्सा है। मायावती को लगता है कि चंद्रशेखर एक ओर मुझसे करीबी रिश्ता घोषित कर रहा है, दूसरी तरफ भीम आर्मी को मजूत करने की बात कर रहा है। शायद इसी कारण वह चंद्रशेखर की राजनीतिक ईमानदारी को लेकर सशंकित हैं।

चंद्रशेखर ने आगामी चुनावों में भाजपा को हराने एवं गठंधन को समर्थन देने की घोषणा की है। देखना है कि यह किस रूप में मूर्त रूप लेता है। क्या वह भीम आर्मी को मजबूत करते हुए भी गैर भाजपाई दल से जुड़ेंगे? क्या वह इमरान मसूद से अपने व्यक्तिगत संबंधों के कारण जिग्नेश की तरह कांग्रेस से जुड़ पाएंगे। या मायावती उन्हें बसपा की राजनीति में जगह देंगी। या वह आगामी चुनाव में बिना किसी राजनीतिक दल का हिस्सा हुए अपनी राजनीतिक पक्षधरता तय करेगें। ये सभी प्रश्न अभी भविष्य के गर्भ में हैं। इनके उत्तर झलक तो रहे हैं, पर अभी स्पष्ट नही हुए हैं।

(लेखक गोविंद ल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान के निदेशक हैं)