[ क्षमा शर्मा ] कांग्रेस के वरिष्ठ नेता नारायण दत्त तिवारी के बेट रोहित शेखर की हत्या में उनकी पत्नी अपूर्वा शुक्ला की गिरफ्तारी की खबर के बाद से कई ऐसी खबरें आ चुकी हैं जो यह बताती हैं कि पत्नी ने प्रेमी या भाड़े के हत्यारों के साथ मिलकर पति की हत्या कराई। रोहित शेखर की हत्या के कारणों में प्रापर्टी विवाद से लेकर दूसरी महिला से संबंध आदि की गिनती हो रही है। दोनों के प्रेम विवाह को अभी एक साल ही हुआ था। सच क्या है, यह तो पूरी पड़ताल के बाद ही सामने आएगा, लेकिन पलवल की उस घटना से शायद सब लोग अवगत न हों जिसमें एक बहू ने अपने भाई की मदद से दूध लाने गई सास को गोली मरवा दी। बहू सास की इस बात से कुपित थी कि वह अपनी सारी जायदाद बेटी को दे देगी। दिल्ली में एक लड़की ने अपने बूढ़े पिता को पहले मारा-पीटा, फिर जब वह सीढ़ियों से उतरने लगे तो उन्हें धक्का दे दिया। चोट लगने से उनकी मौत हो गई। अब तो दोस्त भी मामूली बातों पर एक-दूसरे को मार रहे हैं। यहां तक कि छोटे बच्चे भी इस तरह की हिंसा से मुक्त नहीं रहे। एक आठ साल के बच्चे ने डेढ़ साल के बच्चे को मार डाला। जब उससे पूछा गया तो उसे यही नहीं पता था कि मारा जाना या मरना क्या होता है? प्रेमी के साथ मिलकर पति को मारने की खबरें तो अब आम हो चली हैं।

आम तौर पर यह माना जाता है कि जान लेने जैसे गंभीर अपराध बाहर वाले ही करते हैं और घर वाले तो जान बचाते हैं, लेकिन लगता है कि हालात बदल रहे हैं। अब तक हत्या और गंभीर अपराध पुरुषों के नाम ही होते थे, मगर अब ऐसे अपराधों में औरतें भी बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही हैं। वे ब्लैकमेलिंग करने के लिए भी तरह-तरह के उपाय अपना रही हैं। अपनी सहेली के प्रमोशन से जलकर उसे रास्ते से हटाने की कोशिश तक कर रही हैं। माता-पिता, बेटे-बेटी, भाई-बहन, मित्रों का भरोसा आपस में इतना क्यों टूट गया है? अगर भरोसा टूट भी जाए तो उस रिश्ते से दूर हटा जा सकता है। इतना गुस्सा कि दूसरे की जान ले ली जाए, कहां से आ रहा है। आखिर यह सोच क्यों बढ़ रही है कि कैसा भी अपराध कर लो, किसी न किसी बहाने बच निकलेंगे। क्रोध बुद्धि और विवेक का नाश करता है, पुराने जमाने की यह बात अधिकांश मामलों में सच होती दिखाई देती है।

यदि यह मान लें कि अपूर्वा शुक्ला ने प्रापर्टी के लिए पति को मार डाला तो सोचने की बात यह है कि परिवार में शायद ही कोई वारिस था। रोहित के भाई की शादी नहीं हुई थी। ऐसे में जो कुछ होता वह उसी का था। उसने ऐसा किया तो क्या सोचकर? महिलाओं का इस तरह से अपराधों में शामिल होना बेहद चिंताजनक है। क्या महिलाएं भी पुरुषों की उन राहों पर निकल पड़ी हैं जिनसे वे हमेशा परेशान रही हैं? क्या किसी से निपटने और मुक्ति का रास्ता उसके प्रति गंभीर अपराध और हत्या तक जाता है? सबसे अधिक अफसोस यह देखकर होता है कि जब अपराधियों से यह पूछा जाता है कि क्या उन्हें अपने किए पर पछतावा है तो वे मना करते हैं। गलती से अपराध हो गया, यह तो माना जा सकता है, मगर उसके लिए किसी भी प्रकार का अफसोस न होना समाज में बढ़ती नफरत और असहनशीलता का प्रतीक है। सहने को छोटेपन और कमजोरी की निशानी बना दिया गया है। बदला हमारे जीवन में हावी हो चला है। बदला भी किसी अन्य से नहीं बिल्कुल अपने करीबी से, अपने परिजनों से, जिनसे रोज मिलते हैं।

अगर समाज में अविश्वास फैलता जाएगा तो फिर हम समाज के विकास की बात तो सोच ही नहीं सकते। एक चिंता की बात यह भी है कि नकारात्मक खबरों से अब लोग डरते नहीं हैं, बल्कि उनसे प्रेरित होकर वैसे ही अपराध करने की सोचते हैं। इसीलिए अपराधों पर बनी फिल्में या धारावाहिक या वेब सीरीज सफलता प्राप्त कर रही हैं। यह साफ है कि चंद मनोवैज्ञानिकों या सामाजशास्त्रियों के विचार सुनकर कोई नहीं बदलने वाला। यदि बिल्कुल निकट के रिश्तों में विश्वास खत्म होने लगे, जिसे ट्रस्ट डेफीसिट कहा जाता है तो कैसे परिवार चलेगा और कैसे परिवारों से बनने वाला समाज चलेगा? इस सवाल के जवाब में अक्सर यह कह दिया जाता है कि समाज तो अपनी गति से चलता है, वह किसी के कहने- सुनने से नहीं बदलता। तो क्या करें? ऐसे ही चलने दें। परिवार में मौजूद तरह-तरह के रिश्तों को अपराध की डोर पकड़ते देखें और थोड़ी देर का दुख मनाकर निकल लें? जो लोग भी इस देश को बनाने की बातें करते हैं, जिनमें राजनेता प्रमुख हैं उन्हें समाज के हिंसक होते जाने के पहलुओं पर जरूर गौर करना चाहिए। मीडिया भी सिर्फ इस तरह की घटनाओं को दिखा-बताकर चुप न बैठ जाए, क्योंकि हिंसा वहीं तक रहकर चुप नहीं बैठ जाएगी। वह कब हमारे घर-परिवारों तक आ पहुंचेगी और हमें अपनी लपेट में ले लेगी, कहा नहीं जा सकता। यदि आतंकी हिंसा पर इतनी बातें हो सकती हैं तो घरों में, रिश्तों में बढ़ती हिंसा पर भी विचार-विमर्श होना बहुत जरूरी है। ईष्र्या और लालच से उपजी हिंसा को रोकने के उपायों पर गंभीरता से गौर किया ही जाना चाहिए।

( लेखिका साहित्यकार हैं)

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