नई दिल्ली (ब्रिगेडियर आरपी सिंह)। सितंबर 1947 में जब महाराजा हरि सिंह ने कश्मीर के भारत में विलय की पेशकश की थी तब नेहरू ने इससे इन्कार कर दिया था, क्योंकि वह न केवल पहले शेख अब्दुल्ला की रिहाई, बल्कि उन्हें जम्मू-कश्मीर का प्रधानमंत्री भी बनवाना चाहते थे। महाराजा के लिए यह स्वीकार्य नहीं था। उधर आजादी के बाद से ही पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर पर हमला करने की फिराक में था। पाकिस्तानी हमले की रूपरेखा से जुड़ा एक पत्र संयोगवश मेजर ओएस कल्लत के हाथ लग गया। उस समय वह पाकिस्तानी इलाके बन्नू में थे। उन्होंने तुरंत भारत आकर आगाह किया। यह जानकर पटेल और तत्कालीन रक्षा मंत्री बलदेव सिंह घुसपैठियों से निपटने के लिए पाक से लगी जम्मू-कश्मीर सीमा पर सेना भेजना चाहते थे, लेकिन नेहरू इसके लिए राजी नहीं हुए। यह इतनी बड़ी गलती थी जिसकी मिसाल देना मुश्किल है। वहां जनमत संग्रह और इस मसले को यूएनओ ले जाना नेहरू की और भी बड़ी गलतियां थीं। इसके पहले नेहरू ने ऐसी ही एक गलती तब की थी जब उन्होंने शेख अब्दुल्ला को जेल से रिहा कराने के लिए कश्मीर जाने का फैसला किया और वहां महाराजा से भिड़ गए। नेहरू के बाद इंदिरा ने भी कई गलतियां कीं। वह अगर 1971 की लड़ाई को ढाका की आजादी के बाद कुछ दिन और खींचतीं तो गिलगित-बाल्टिस्तान सहित समूचे पीओके को भी आजादी मिल गई होती। साथ ही शिमला समझौते पर हस्ताक्षर के दौरान उन्हें जुल्फिकार अली भुट्टो पर दबाव बनाना चाहिए था कि वह नियंत्रण रेखा को दोनों देशों के बीच अंतरराष्ट्रीय सीमा के रूप में मान्यता दें।

वर्ष 1975 में इंदिरा गांधी-शेख अब्दुल्ला समझौता उनकी एक और बड़ी गलती थी जिसके चलते शेख मुख्यमंत्री बन गए। यह समझौता कश्मीर के लिए बहुत घातक साबित हुआ। इसने जनमत संग्रह की आग भड़काई। इससे आंतरिक रूप से अशांत होने के साथ ही कश्मीर का तेजी से इस्लामीकरण होने लगा। पाक परस्त ताकतें सिर उठाने लगीं। उन्हें अहम पदों से नवाजा जाने लगा। अल-फतेह के उपद्रवी पुलिस बल को भी निशाना बनाने लगे। शेख के निधन के बाद उनके बेटे फारूक अब्दुल्ला उनकी गद्दी पर बैठे। इंदिरा गांधी ने जुलाई 1984 में उन्हें बर्खास्त करके उनके बहनोई जीएम शाह को मुख्यमंत्री बनाया। फिर 1986 में राजीव गांधी ने शाह को बर्खास्त कर दिया।

वर्ष 1987 में राजीव-फारूक समझौते ने फारूक अब्दुल्ला का राजनीतिक पुनर्वास करा दिया। फारूक ने भारत विरोधी तत्वों को खामोशी के साथ शह दी। फारूक को 1987 में विधानसभा चुनावों में हेराफेरी का भी दोषी माना जाता है। इसके कारण कश्मीरी युवाओं ने हथियार उठा लिए। सैयद अली शाह गिलानी और मुहम्मद यूसुफ शाह जैसे लोगों ने चुनाव लड़ा। इन हालात में यूसुफ शाह सलाहुद्दीन बन गया और हिज्बुल मुजाहिदीन का उभार हुआ। 2008 के विधानसभा चुनाव में फारूक अब्दुल्ला मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़े। मगर त्रिशंकु विधानसभा में नेशनल कांफ्रेंस के सबसे बड़े दल के रूप में उभरने के बाद वंशवादी शैली में उन्होंने अपने बेटे उमर अब्दुल्ला की यह कहकर दावेदारी आगे बढ़ाई कि इस पद के लिए अब युवा खून की दरकार है। 2008 में हालात काफी गंभीर हो गए। उमर के दो साल से भी कम समय के शासन में जम्मू-कश्मीर फिर से बुरी तरह अस्थिरता की चपेट में आ गया था। जब उन्हें लगा कि हालात काबू से बाहर हो रहे हैं तो उन्हें सेना का सहारा लेना पड़ा।

जम्मू-कश्मीर में इस्लाम की धारा फारस के रास्ते दाखिल हुई जिसमें सूफी भाव शामिल था। हिंदुत्व के साथ मिलकर यह धारा और नरम हुई। इसी सांस्कृतिक मिश्रण को कश्मीरियत का नाम दिया गया। अल्पसंख्यकों को सताने वाले कुछ निरंकुश शासकों को छोड़ दिया जाए तो सात शताब्दियों तक यहां सौहार्द का माहौल बना रहा। जब गांधी जी ने खिलाफत आंदोलन को समर्थन दिया तो जम्मू-कश्मीर में इस्लामिक लहर चल निकली। 1931 में जम्मू कश्मीर मुस्लिम कांफ्रेंस (एमएनसी) की स्थापना हुई। बाद में मुस्लिम शब्द हटाकर नेशनल कांफ्रेंस तो बन गई, लेकिन वह कभी भी धर्मनिरपेक्ष साख नहीं अर्जित कर सकी। मुस्लिम नेतृत्व के एक बड़े वर्ग ने कश्मीर में अलगाववादी मुहिम चलाई। जम्मू-कश्मीर का प्रधानमंत्री बनने के कुछ महीनों बाद ही शेख अब्दुल्ला ने पाकिस्तान की जुबान बोलनी शुरू कर दी। फिर 1953 में उन्हें किसी और ने नहीं, बल्कि उनके सहोदर नेहरू ने ही जेल में डाला।

नेशनल कांफ्रेंस द्वारा 1987 के चुनावों में हेराफेरी से घाटी में वहाबियों के लिए रास्ता साफ हुआ। इससे निकली आजादी की आवाज ने कश्मीरियत को कुचल दिया। कश्मीरी पंडितों को बंदूक की नोक पर उनके घरों से बेदखल किया गया। कश्मीर को अल्पसंख्यकों से मुक्त कराने के लिए नस्लीय सफाया हुआ। इसका मकसद लोगों पर जबरन इस्लाम थोपना था। इसके साथ ही कश्मीरियत हमेशा के लिए दफन हो गई और चरमपंथी इस्लाम की वैचारिक धुरी मानी जाने वाली वहाबी धारा हावी हो गई। मस्जिदें-मदरसे इस्लामी चरमपंथ, भारत विरोध और पाकिस्तान परस्ती का केंद्र बन गए। शरीयत और इस्लामिक कानूनों को लागू करना ही एकमात्र मकसद बन गया। खासतौर से युवाओं का वह तबका इसमें जी-जान से जुटा जो पाकिस्तानी आतंकी समूहों और आइएसआइ की कठपुतली बन चुका था।

ऐसे में प्रोत्साहन और दंडित करने वाली जांची परखी नीति ही उपयुक्त है। राज्यपाल शासन में हालात सामान्य बनाने के लिए सुरक्षा बलों को और आजादी दी जाए। पत्थरबाजों से निपटने के लिए उन पर सख्ती करने में भी कोताही न की जाए। अलगाववादियों पर शिकंजा कसने के साथ ही उन्हें और उनके परिवारों को मिली सुविधाएं वापस ली जानी चाहिए। कश्मीरियत और आपसी भरोसे की बहाली के साथ ही आइटी पार्क खोलने एवं रोजगार सृजन पर ध्यान दिया जाए। मदरसों के आधुनिकीकरण के साथ ही धार्मिक स्थल एवं श्राइन अधिनियम, 1988 के दुरुपयोग को रोकने के लिए भी कदम उठाने होंगे। सऊदी अरब से आने वाली संदिग्ध वित्तीय मदद पर नजर रखने, पाकिस्तान की छवि नाकाम मुल्क के तौर पर स्थापित करने और भारत की सफलता गाथा से पाकिस्तानी दुष्प्रचार को मात देने की दरकार है। यह स्थानीय लोगों की मदद से संभव होगा।

मीडिया को भी बुरहान वानी जैसे आतंकी के महिमामंडन से रोकना होगा। बालिका शिक्षा और महिला सशक्तीकरण के साथ ही कश्मीरी पंडितों की वापसी भी सुनिश्चित करनी होगी। पुलिस को आधुनिक बनाना होगा जिसमें उन्हें बेहतर हथियारों के साथ लोगों के साथ घुलने-मिलने का प्रशिक्षण देना होगा जिससे सेना का दायरा कम हो सके। सोशल मीडिया के दुरुपयोग को रोकने, पंचायती राज संस्थानों को सशक्त बनाने और कश्मीरी युवाओं को राष्ट्र की मुख्यधारा के साथ जोड़ने की भी दरकार है। एनसीसी इसमें अहम भूमिका निभा सकती है। चरमपंथ से निपटना असल में धारणा से जुड़ी लड़ाई है। इसके लिए लोगों के दिलों को जीतने की नई-अनूठी एवं निरंतर कोशिशें करनी होंगी। इस संकट से निपटने में कुशलता के साथ किए गए प्रयास ही हालात सामान्य कर सकते हैं।

(लेखक सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी हैं)