[ निरंजन कुमार ]: उच्च शिक्षा में सुधार को लेकर पिछले एक दशक से चल रही बहसों का एक निष्कर्ष यह रहा है कि इसमें एक क्रमबद्ध परिवर्तन की आवश्यकता है। शायद इसी के मद्देनजर भारत सरकार ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी को समाप्त कर उसकी जगह ‘भारतीय उच्च शिक्षा आयोग’ के गठन का फैसला किया है। इससे संबंधित मसौदे को लेकर शिक्षाविद दो फाड़ हो गए हैं। एक तरफ इसे प्रगतिशील, दूरगामी और प्रभावकारी बताया जा रहा है तो दूसरी ओर इसे प्रतिगामी, अदूरदर्शी और राजनीतिक हस्तक्षेप को बढ़ावा देने वाला भी बताया जा रहा है।

अच्छी बात यह है कि सरकार ने मसौदे पर सुझाव और टिप्पणियां मांगी हैं ताकि अंतिम विधेयक में उचित सुझावों को शामिल किया जा सके। इस मसौदे की धारा-24 के तहत एक परामर्शदात्री परिषद की स्थापना का प्रावधान है। यह कदम उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सहकारी संघवाद का एक अच्छा उदाहरण होगा। यूजीसी व्यवस्था में यह प्रावधान नहीं था। इस परामर्शदात्री परिषद के अध्यक्ष केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री होंगे। अन्य सदस्यों में नए आयोग के सभी सदस्यों के अतिरिक्त सभी राज्यों के उच्च शिक्षा परिषद के अध्यक्ष भी इसमें शामिल होंगे। यह बिंदुु इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि कुछ मामलों में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में केंद्र से कहीं अधिक बड़ी जिम्मेदारी राज्य सरकारों की होती है।

देश में लगभग 70 प्रतिशत विश्वविद्यालय और 90 प्रतिशत कॉलेज राज्य सरकारों के अधीन हैं। जबकि अब तक उच्च शिक्षा संबंधित नीति निर्माण में राज्यों की भूमिका लगभग नगण्य थी। प्रस्तावित परामर्शदात्री परिषद में केंद्र और राज्य सरकारें उच्च शिक्षा से संबंधित समन्वय के बिंदुओं की पहचान करेंगी। बेहतर होगा कि इसे और व्यापक एवं समावेशी बनाते हुए केंद्रीय और राज्य विश्वविद्यालयों के शिक्षक संघों ‘फेडक्यूटा’ और ‘एआइफुक्टो’ से एक-एक प्रतिनिधि भी इसमें शामिल किए जाएं।

नया आयोग ‘न्यूनतम दखल और अधिकतम काम’,‘अनुदान कार्यों को अलग करना’, ‘इंस्पेक्टर राज का अंत’, ‘अकादमिक गुणवत्ता पर ध्यान केंद्रित करना’, ‘नियमन और लागू कराने का अधिकार’ के सिद्धांतों पर आधारित होगा। इन सिद्धांतों में ‘नियमन और लागू कराने का अधिकार’ उल्लेखनीय है। यूजीसी इस मामले में सर्वथा दंतहीन था। अगर कोई संस्थान उसके आदेशों का अनुपालन नहीं करता था तो वह अधिक से अधिक उसका अनुदान रोक सकता था।

निजी क्षेत्र के संस्थानों की मनमानी पर तो उसका और भी कोई जोर नहीं था, लेकिन अब नियमों एवं मानकों का जानबूझकर अथवा लगातार उल्लंघन कर रहे स्तरहीन संस्थानों को बंद करने का अधिकार उच्च शिक्षा आयोग के पास होगा। अनुपालन नहीं करने की स्थिति में जुर्माना और जेल का भी प्रावधान है। इसी तरह से ‘इंस्पेक्टर राज’ के अंत की भी घोषणा कर दी गई है।

नया आयोग संस्थानों को शुरू और बंद करने के लिए मानक और नियम तय करेगा और इस आधार पर उन्हें चलाने अथवा बंद करने का आदेश दे सकेगा। नई व्यवस्था में सारी प्रक्रिया ऑनलाइन होगी और सूचनाएं संस्थानों की वेबसाइट पर उपलब्ध होंगी ताकि सभी को संस्थान संबंधित पूरी जानकारी हो सके और जरूरत पड़ने पर शिकायत भी की जा सके। यह समूची प्रक्रिया ‘न्यूनतम दखल और अधिकतम काम’ के सिद्धांत पर ही आधारित है।

मसौदे की धारा-15(4)(एल) के तहत नया आयोग शिक्षण संस्थानों द्वारा वसूले जाने वाले शुल्क को निर्धारित करने के लिए मानक और प्रक्रिया भी बनाएगा। इस प्रावधान के महत्व को ऐसे समझा जाए कि इससे निजी संस्थानों द्वारा अनाप-शनाप फीस निर्धारित करने और वसूलने पर एक बड़ी हद तक नियंत्रण लग सकेगा। साथ ही आयोग केंद्र और राज्य सरकारों को शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने के लिए जरूरी कदमों की जानकारी भी देगा।

नए प्रावधानों में सबसे ज्यादा विवादास्पद ‘अनुदान कार्यों’ से आयोग को अलग करना है।

सैद्धांतिक रूप से तो यह सही है कि एक ही निकाय में दो शक्तियां नहीं होनी चाहिए, लेकिन समस्या यह है कि अनुदान का यह कार्य मंत्रालय के अधीन किया जाना है। यह अनेक जटिलताओं को जन्म देगा, क्योंकि अनुदान प्रणाली को राजनीतिक हस्तक्षेप के साथ-साथ नौकरशाही की लालफीताशाही की दोहरी मार सहनी पड़ेगी। पहले भी अनुदान कार्य राजनीतिक हस्तक्षेप और लालफीताशाही से अछूते नहीं रहे हैं, लेकिन स्वायत्त यूजीसी के हाथ में होने से अनुदान संबंधी कामकाज अपेक्षाकृत ठीक-ठाक चलते रहे हैं।

दरअसल उच्च शिक्षा में प्रोजेक्ट, रिसर्च से लेकर आधारभूत संरचना में धन का आवंटन नौकरशाही के चश्मे से नहीं किया जा सकता। खास तौर से तब और भी नहीं जब भारतीय नौकरशाही का पुराना रिकॉर्ड बहुत उत्साहवर्धक न रहा हो । अनुदान कार्यों के लिए चाहे एक अलग स्वायत्त निकाय हो अथवा यह नए आयोग के पास ही रहे, यह बहुत जरूरी है कि मंत्रालय से यह स्वतंत्र ही हो। यह भी जरूरी है कि अनुदान की प्रक्रिया पूर्णतया पारदर्शी होनी चाहिए।

प्रस्तावित उच्च शिक्षा आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों को लेकर भी कुछ समस्याएं हैं। मसौदे की धारा 3(6)(ए) के अनुसार एक प्रतिष्ठित शिक्षाविद एवं शैक्षिक प्रशासक जिसमें उच्च शिक्षा संस्थानों के निर्माण और शासन की सिद्ध क्षमता हो, वह भी अध्यक्ष बन सकता है। यह अपने आप में अत्यंत खतरनाक प्रावधान है।

इस व्यवस्था से तो कोई शक्तिशाली राजनेता या व्यवसायी और उद्योगपति, जिनके अपने कॉलेज/ विश्वविद्यालय हों अथवा शिक्षा विभाग से जुड़ा हुआ कोई प्रभावशाली नौकरशाह भी अध्यक्ष की कुर्सी पर काबिज हो सकता है। उच्च शिक्षा की इससे जो दुर्दशा होगी उसका अंदाजा ही लगाया जा सकता है।

यह प्रावधान स्पष्ट होना चाहिए कि अध्यक्ष सिर्फ और सिर्फ विश्वविद्यालय का प्रोफेसर ही होगा, क्योंकि उच्च शिक्षा की जटिलता एवं उसे समग्रता में केवल एक प्रोफेसर ही समझ सकता है। यह भी चिंताजनक है कि आयोग के 12 सदस्यों में केवल दो प्रोफेसर होंगे जबकि यूजीसी अधिनियम में 10 सदस्यों में न्यूनतम चार प्रोफेसरों का प्रावधान था। यह जरूरी है कि नए बनने वाले आयोग में कम से कम पांच प्रोफेसर हों और न्यूनतम चार सरकारी विश्वविद्यालयों से हों।

बेहतर होगा कि अध्यक्ष और उपाध्यक्ष बनाने के लिए सर्च कमेटी जो पैनल तैयार करे उसका चयन अकेले सरकार न करे। इससे विवाद की गुंजाइश कम होगी। और भी अच्छा होेगा कि प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली एक उच्च प्राधिकार समिति ही इसका चयन करे। समिति के अन्य सदस्यों में लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और एचआरडी मंत्री शामिल हो सकते हैैं।

[ लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं ]