शास्त्री कोसलेंद्रदास

एक शांत निर्मल वातावरण में दीपावली ऐसे आती है जैसे हमारे भीतर बैठे राम अयोध्या में माता कौशल्या की गोद में उतर रहे हों। उसी करुणामय भाव और निर्मलता में सारी सृष्टि तुलसी वन-सी महक उठती है। यही अमरता है दीपावली की, जो हर साल इसकी रोशनी को बढ़ा रही है। रोशनी शब्द का मूल संस्कृत के ‘रोचना’ शब्द में है जो ईरान में जाकर ‘रोशनी’ में बदल गया। माता लक्ष्मी का एक नाम ‘रोचनावती’ है। आज जो दीये हमारे घर-आंगन में जलने हैं उनकी उम्र कोई आज-कल की नहीं, कई युगों की है। यह भले किंवदंती हो कि दीपावली की रात माता सीता, लक्ष्मण और हनुमान के साथ श्रीराम के अयोध्या लौटने पर मनाई गई थी, पर यह जनश्रुति हमारी अंतश्चेतना में इतना समा गई है कि दीपावली हमारे लिए राम के पुन: अयोध्या लौट आने का महापर्व है।

यही दीवाली तब अयोध्या में ‘पादुका-प्रशासन’ से मुक्ति का पर्व बनी थी। सर्वश्रेष्ठ राज्य की स्थापना की रोशनी फैलाने के लिए असंख्य दीये एक साथ जगमगाए थे, जहां राजा नहीं प्रजा प्रमुख थी। जनता उत्साहित और उल्लासित थी कि ‘पादुका-पूजन’ के दिन अब लद गए। असली महाराजा राम और महारानी सीता अयोध्या में पधार चुके हैं। इसीलिए अब 14 साल से पसरे अंधेरे को हटाकर अमावसी रात को पूर्णिमा में बदलना है। तभी से आज तक दीपावली पादुका-प्रशासन की समाप्ति का पर्व बनकर जगमगा रही है। यह सतत संदेश दे रही है कि मानव मात्र को निरंतर प्रकाश की ओर बढ़ना है और हर कहीं हर किसी को अंतस के आनंद से प्रकाशित करना है। श्रीराम की अयोध्या वापसी पर जो दीपमालाएं अयोध्या में जगमगाईं होंगी, उनकी किरणों हमारे घर में उजास फैला रहे दीपों में मंडरा रही हैं।

निश्चित ही इन दीपों ने सहस्नों साल पहले के त्रेतायुग में अयोध्या वालों के उल्लास को देखा था। सरयू की बहती जलधारा में अपने प्रतिबिंब निहारे थे। राम और भरत के भातृभाव के बेजोड़ दृश्य को देखा था। साथ ही देखा था माता कैकेयी के मन में मिटते अंधेरे को और मंथरा की दम तोड़ती जालसाजी को। राम आए तो सबसे पहले माता कैकेयी से भेंट हुई और सारा अंधेरा मिटता रहा। अयोध्या की उस रात्रि में जले दीयों के प्रकाश की किरणों प्रत्येक वर्ष हमें चेताने आती हैं कि मन में रावण की लंका को मारकर वहां राम की अयोध्या बनाओ। हमें हर क्षण चेतना होगा और अंधेरे को दूर करने के लिए नित नए प्रयत्न करने होंगे। जब तक कहीं भी असत्य, अन्याय या असमानता रूपी अंधेरा है तब तक प्रकाश के सहारे हमें आगे बढ़ना होगा। एक ऐसा समाज रचना ही दीपावली का संदेश है जिसमें दु:ख और अभाव के लिए कोई स्थान न हो। इसके लिए हमें बाहर के अंधेरे के साथ ही अंतस के अंधेरे से भी लड़ना होगा। यह एक निरतंर प्रक्रिया है।

दीपावली यह स्मरण कराती है कि इस प्रक्रिया को बल देते रहना है। राम के समय यदि लंका में विलास और मादकता का राज था तो अयोध्या में सिर्फ धर्म और सदाचरण था। एक मान्यता है कि जहां बहुत धन-धान्य होता है वहां धर्म का गला घुटने लगता है। इस स्थिति से बचना होगा। धन-धान्य के साथ सबके लिए सुखमय जीवन हमारा अभीष्ट होना चाहिए और उसकी प्राप्ति हम सबका साझा लक्ष्य होना चाहिए। हमें आगे बढ़ना है, लेकिन यह देखते हुए कि इस क्रम में सुख-समृद्धि के प्रसार में असंतुलन न रहे। आज जरा देखें अपने महानगरों की हालत। उनकी हालत इसीलिए बिगड़ी, क्योंकि हम दीपोत्सव का मर्म सही तरह नहीं समझ सके। नि:संदेह दीपावली पर ये सारे शहर खूब चमकेंगे, पर क्या उनकी चमकती किरणों कमजोर-बीमार और किसान-गांव को आलोकित कर सकेंगी? अच्छा हुआ कि राम की अयोध्या 14 साल में नहीं बदली थी वरना उसे देखकर राम की आंखें नम हो जातीं। वह अपनी अयोध्या को पहचान नहीं पाते।

चूंकि राम की अयोध्या में धर्म का वास था इसलिए वहां सच्चे मायने में दीपावली मनती थी। राम की अयोध्या अनूठी थी-‘नहिं दरिद्र कोऊ दुखी न दीना’। वहां चहुं ओर प्रकाश ही प्रकाश है। अंधेरे के लिए कहीं कोई गुंजाइश नहीं है। क्या राम के समय की प्रकाश-किरणों हमारी किरणों से मेल खा रही हैं? बढ़ता राजनीतिक अनियंत्रण, भाषा, अन्न और शिक्षा मंदिरों का लगातार प्रदूषित होते जाना दीपावली की किरणों को अयोध्या से दूर कर रहा है। फिर इस दीवाली राम कैसे पहचानेंगे? वह लंका से अयोध्या कैसे लौटेंगे? दीवाली अंधेरे पर उजाले की जीत का त्योहार तो है पर यह उजाले के आपसी संबंधों के अवलोकन और अन्वेषण का पर्व भी है। ऐसा न हो जाए कि किसी का उजाला किसी के अंधेरे की कीमत पर पनप रहा हो!

यदि ऐसा हुआ तो वनवास से लौटे राम सरयू में अपने पांव धोए बिना कहीं वापस दूसरे वनवास में न चले जाएं! दीवाली दीपोत्सव भी है। यह नाम पुराना है। कालिदास-भवभूति से पुराना, रामायण-महाभारत से भी पुराना। पांच दिनों तक लगातार चलने वाले त्योहार में भगवती महालक्ष्मी की पूजा का विधान है। लक्ष्मी वह है जो अमृत-सहोदरा है। वह चंद्रमा की समुद्र से पैदा हुई बहन है। लक्ष्मी भगवान विष्णु की पत्नी हैं। घनघोर काली रात में प्रकट होकर भी वह स्वर्ण वर्षा करती हैं। वेदों ने ‘श्रीसूक्त’ में लक्ष्मी को धरती माता के रूप में देखा। भारतीय दर्शन में अंधेरा अनादि है। यह सृष्टि की शुरूआत के पहले से है, पर इसे जीतने के लिए दीप जलाया जा सकता है और चहुंओर उजाला फैलाया जा सकता है। अंधकार भले ही बलवान है, पर डरे बिना उससे जूझने का संकल्प मानव की विजय है।

किसी दिन एक शुभ मुहूर्त में दीये तेल और रुई की बत्ती का अग्नि से संयोग आदिमानव ने पहले-पहल किया होगा। यह संकल्प शक्ति के पांचजन्य का माधवी नाद था। मनुष्य को अंधेरे से जीतने की प्रेरणा थी। इसी प्रेरणा के परिणाम में किसी ने पहला दीप बनाया होगा। दीप भी ऐसे जो अपना बलिदान कर प्रकाश को स्थापित करने वाले हैं। ये दीप धन्य हैं। इनका प्रकाश सूरज और चांद की रोशनी से बड़ा है, क्योंकि इन्हें विधाता ने नहीं, बल्कि मानव ने अपने हाथों से बनाया। दीपावली की रात मनुष्य के हाथ में हथियार के रूप में दीप अंधकार से लड़ते हैं। अंधेरे को जीतने के प्रयत्न की यही प्रक्रिया भारतीय परंपरा में तमसो मा ज्योतिर्गमय है।

[लेखक दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक हैं]