सी. उदयभास्कर। संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) की वार्षिक बैठक और इससे इतर अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ द्विपक्षीय वार्ता के लिए PM Modi के अमेरिकी दौरे का पहला पड़ाव बना ‘Howdy Modi’ कार्यक्रम। मोदी के दौरे में सबसे ज्यादा चर्चा टेक्सास के ह्यूस्टन (Houston) शहर में 22 सितंबर को आयोजित इसी कार्यक्रम की रही।

अमेरिकी मानकों के लिहाज से यह भारी- भरकम भीड़ वाला जलसा था जिसमें करीब 50,000 लोग शामिल हुए जिनमें ज्यादातर भारतवंशी ही थे। भले ही अधिकांश अमेरिकी नागरिक थे, लेकिन उन्हें विदेशों में बसे मोदी समर्थक भी कहा जा सकता है जो भारतीय प्रधानमंत्री का स्वागत करने के लिए जुटे थे। अप्रत्याशित रूप से अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी उसमें मौजूद रहे। कई रिपब्लिकन एवं डेमोक्रेट सांसदों ने भी इसमें शिरकत की। दोनों दलों के प्रतिनिधियों की मौजूदगी से कार्यक्रम का स्वरूप व्यापक हो गया।

दोनों नेताओं ने एक-दूसरे की प्रशंसा

ह्यूस्टन में दोनों नेताओं ने एक-दूसरे की मुक्त कंठ से प्रशंसा की। चाहे वह व्यापार का मसला हो, सुरक्षा या राजनीतिक रुझान का, एकबारगी यही लगा कि विश्व के सबसे पुराने और सबसे बड़े लोकतांत्रिक देशों के नेता मानों एक सुर में बोल रहे हों। इससे यही संकेत मिले कि सभी विवादित द्विपक्षीय मुद्दों पर सार्थक चर्चा होगी और उनका जल्द से जल्द समाधान निकाला जाएगा।

दूर हुईं आशंकाएं

इससे पहले भारत में ट्रंप को लेकर कुछ असहजता का भाव था। इसमें एक तो उनके उस बयान की भूमिका थी जिसमें उन्होंने कहा था कि प्रधानमंत्री मोदी ने उनसे कथित रूप से कश्मीर मसले पर मध्यस्थता करने के लिए कहा था। इसके बाद जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने को लेकर नई दिल्ली को यह आशंका सता रही थी कि कहीं इस मसले पर पाकिस्तान को वाशिंगटन का साथ न मिल जाए। मोदी-ट्रंप मुलाकात से ये आशंकाएं निर्मूल साबित हुईं।

मोदी और ट्रंप की द्विपक्षीय वार्ता

ट्रंप ने जहां भारतीय प्रधानमंत्री को खास दोस्त और महान नेता बताया वहीं मोदी ने भी ऐसा ही किया। उन्होंने ‘अबकी बार, ट्रंप सरकार’ का नारा भी उछाला। इससे बचा जाना चाहिए था, लेकिन मोदी की यही सियासी शैली है। ह्यूस्टन की गुलाबी तस्वीर कुछ समय के लिए ही टिक पाई। इसके चंद दिन बाद पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान और उसके अगले रोज प्रधानमंत्री मोदी के साथ ट्रंप की द्विपक्षीय वार्ता में हकीकत से सामना हुआ। मोदी-ट्रंप वार्ता में भारत-अमेरिकी द्विपक्षीय रिश्तों की स्थाई प्रकृति और अवरोध भी स्पष्ट हुए।

यह धारणा सही नहीं कि भारत और अमेरिका लंबे समय से साझा हितों को पोषित करते आए हैं। दोनों देशों के रिश्तों में सुधार हालिया दौर की बात है। तकरीबन 34 वर्षों तक दोनों देश सुरक्षा एवं सामरिक हितों जैसे तमाम मुद्दों पर एक-दूसरे से काफी इतर रहे। रिश्तों में यह बर्फ एक दशक पहले ही पिघलनी शुरू हुई। इस दिशा में सक्रियता का आगाज 2008 के अंत में बुश-मनमोहन सिंह के कार्यकाल में हुआ। 

व्यापार समझौते पर नहीं बनी सहमति 

ह्यूस्टन में भले ही जश्न का माहौल रहा हो, लेकिन 24 सितंबर को जब दोनों नेता द्विपक्षीय मसलों पर बातचीत के लिए बैठे तो उसमें बहुप्रतीक्षित व्यापार समझौते पर सहमति नहीं बन पाई। भारत को अमेरिका से अच्छा-खासा व्यापार लाभ मिलता है। इसमें भारत को लगभग 24 अरब डॉलर का व्यापार अधिशेष हासिल है। ऐसे में भारत ट्रंप की उन देशों की सूची में शामिल है जो अनुचित व्यापार नीतियां चला रहे हैं। ट्रंप ने इसे सुधारने का वादा किया है। 

इसके चलते अमेरिका ने भारतीय कंपनियों को मिला जीएसपी दर्जा जून में वापस ले लिया। उम्मीद थी कि मोदी-ट्रंप द्विपक्षीय वार्ता में इन मुद्दों को सुलझा लिया जाएगा। यह अनुमान भी लगाया गया कि भारत भी अमेरिका से अधिक हाइड्रोकार्बन आयात की घोषणा करेगा, पर कोई द्विपक्षीय व्यापारिक करार नहीं हो सका। यह वैश्विक व्यापार परिदृश्य की जटिलताओं को दर्शाता है जो ट्रंप की औचक नीतियों और चीन के साथ व्यापार युद्ध के चलते लगातार अनिश्चित एवं अस्थिर बनता जा रहा है।

RCEP देशों के साथ समझौते पर काम कर रहा है भारत

व्यापार अधिशेष वाले देश के साथ परस्पर स्वीकार्य करार पर सहमति न बना पाने की नई दिल्ली की नाकामी वैश्विक परिदृश्य में कोई अच्छा संकेत नहीं है। फिलहाल भारत अमेरिका के साथ नहीं, बल्कि क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी यानी RCEP देशों के साथ समझौते पर काम कर रहा है जिनमें चीन और अधिकांश पूर्वी एशियाई देश शामिल हैं।

इन ज्यादातर देशों के साथ भारत को भारी व्यापार घाटा हो रहा है। भारत की बेचैनी इससे और गहरी हो जाती है कि घरेलू विनिर्माताओं की कीमत पर चीनी वस्तुओं का बोलबाला बढ़ सकता है। प्रमुख व्यापारिक देशों या समूहों के साथ किसी स्वीकार्य व्यापार समझौते को मूर्त रूप देने में नई दिल्ली की नाकामी की जड़ें वैश्विक निर्यात बाजार में भारत की कमजोरियों में छिपी हैं। भारत को अभी भी प्रतिस्पर्धी एवं गुणवत्तापरक विनिर्माता का दर्जा हासिल करना शेष है जो वैश्विक आपूर्ति शृंखला से जुड़ा हो।

अलग हैं ट्रंप की प्राथमिकताएं 

व्यापार को किनारे कर दें तो सुरक्षा और आतंकवाद के मसले पर भी द्विपक्षीय वार्ता के दौरान मोदी और ट्रंप के बीच असहमति नजर आई। ह्यूस्टन में प्रधानमंत्री मोदी का पूरा जोर जहां वैश्विक आतंकवाद खासतौर से पाकिस्तान में फैली जिहाद की विषबेल पर था, लेकिन ट्रंप के लिए प्राथमिकताएं अलग थीं। इमरान खान के साथ संवाददाता सम्मेलन में जब ट्रंप से पूछा गया कि क्या वह पीएम मोदी के आकलन से सहमत हैं कि पाक आतंकवाद की धुरी बना हुआ है? ट्रंप ने गोलमोल जवाब देते हुए कहा, ‘मेरा इशारा ईरान की ओर अधिक है। वह देश सच में आतंकी है।’

पाकिस्तानी आतंकवाद और ईरान के बारे में धारणा को लेकर नई दिल्ली और वाशिंगटन में यह मतभेद दशकों पुराना है और ह्यूस्टन में बने माहौल के बावजूद इसमें बदलाव के कोई आसार नहीं हैं। व्यापार और आतंकवाद के मसले पर ऐसे रुख का अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि रक्षा क्षेत्र में सहयोग की जरा भी गुंजाइश नहीं। अमेरिका भारत के सैन्य साजोसामान के सबसे बड़े आपूर्तिकर्ता के रूप में उभरा है और दोनों देशों के सैन्य बलों के बीच सक्रियता भी समय के साथ बढ़ी है।

तीन देशों के बीच नौसैन्य अभ्यास 

प्रशांत महासागर में इन दिनों भारत, अमेरिका और जापान के बीच त्रिपक्षीय मालाबार नौसैन्य अभ्यास जारी है। इस अभ्यास पर चीन की निगाह लगी होगी। यह भारत के लिए बड़ी चुनौती की ओर इशारा करता है। यह चुनौती पाकिस्तान नहीं, बल्कि चीन है। भारत इस चुनौती से कैसे निपटता है, यह मसला दीर्घावधि में भारत की सुरक्षा एवं समृद्धि के लिए अहम बना रहेगा।

भारत के लिए बेहतर यही होगा कि वह अपने राष्ट्रीय हितों से समझौता किए बिना अमेरिका और चीन, दोनों के साथ सौहार्दपूर्ण रिश्ते कायम करे। इस लिहाज से अक्टूबर की शुरुआत में मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग के बीच तमिलनाडु में प्रस्तावित अनौपचारिक वार्ता खासी अहम होगी। यह नई दिल्ली को राह दिखाएगी कि वह बीजिंग और वाशिंगटन के साथ रिश्तों को कैसे साध सकती है।

 

(लेखक सामरिक मामलों के विश्लेषक हैं)

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