[ केसी त्यागी ]: जनगणना की तैयारियों के बीच बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा जातिगत जनगणना की मांग उठाई गई है। इसके बाद कई संगठनों ने इस मांग के पक्ष में आवाज बुलंद कर दी है। केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता राज्यमंत्री मंत्री रामदास आठवले ने भी इसका पुरजोर समर्थन किया है। महाराष्ट्र की महात्मा फुले परिषद की ओर से उच्चतम न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर कर कहा गया है कि संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत अन्य पिछड़े वर्गों के कल्याण को आगे बढ़ाना सरकार की जिम्मेदारी है, इसलिए उनकी ठीक संख्या का पता न करना संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 340 का उल्लंघन है।

जाति आधारित जनगणना: सरकार की आरक्षण सरीखी नीतियां जाति आधारित ही होती हैं

जाति आधारित जनगणना के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क यही है कि सरकार की आरक्षण सरीखी नीतियां जाति आधारित ही होती हैं। यदि जाति की जनगणना से प्रामाणिक आंकड़े सरकार के पास होंगे तो उनसे संबंधित योजनाएं बनाने में मदद मिलेगी। देश में अभी तक 1931 के जाति के आंकड़ों के आधार पर ही योजनाएं बनाई जाती रही हैं, जो किसी भी रूप में उचित नहीं है। देश में 1931 तक सभी जातियों की गिनती होती रही। दूसरे विश्व युद्ध के बाद इस कार्य में रुकावट आई। 1941 के बाद जाति आधारित जनगणना का कार्य नहीं हुआ है। जातियों की गिनती न होने के कारण यह पता नहीं लग पा रहा कि देश में विभिन्न जातियों के कितने लोग हैं? उनकी शैक्षणिक, आर्थिक स्थिति कैसी है? उनके बीच संसाधनों का बंटवारा किस तरह है और भविष्य में उनके लिए किस तरह की नीतियों की आवश्यकता है? 

जब देश में पशुओं की गणना होती है तो फिर इंसानों की जातिगत जनगणना से परहेज क्यों होना चाहिए?

देश में जैसे राष्ट्रीय पिछड़ा आयोग है, वैसे ही कई राज्यों में पिछड़ी जातियों के मंत्रालय भी हैं। जब मंडल आयोग की अनुशंसाएं लागू की गई थीं तो अन्य पिछड़ा वर्ग की संख्या 52 प्रतिशत आंकी गई थी। हालांकि इस संख्या पर विवाद है। दरअसल 1901 के बाद देश में कई जाति समूह जनगणना करने वालों से अलग स्टेटस की भी मांग करने लगे। वंश परंपरा का हवाला देते हुए कुछ जातियों के लोग खुद को ब्राह्मण वर्ग में शामिल करने की मांग करने लगे। कुछ जातियों को क्षत्रिय एवं वैश्य साबित करने के लिए प्रयास होने लगे। यह जाति के आधार पर श्रेष्ठता तय करने का दौर था। निचली कही जाने वाली जातियों के कई लोग ऊंची जाति के रस्म रिवाज अपनाकर खुद के उच्च जाति का होने का दावा भी करने लगे। वे इस तरह से सामाजिक रुतबा बढ़ाना चाहते थे। वंचित समूह के नेताओं का मानना है कि जातिगत जनगणना के जो पुराने आंकड़े हैं, वे भ्रामक हैं। जाति किसी समूह के पिछड़ेपन की निशानी है। पिछड़े वर्ग के नेताओं का कहना है कि देश में उनकी आबादी करीब 60 फीसद है। जाहिर है कि यदि जातियों के सही आंकड़े सामने आते हैं तो देश एक बड़े राजनीतिक बदलाव का गवाह बन सकता है, पर इस तर्क को अनदेखा न किया जाए कि जब देश में पशुओं की गणना होती है तो फिर इंसानों की जातिगत जनगणना से परहेज क्यों होना चाहिए?

गैर-हिंदू समुदायों में पिछड़ी जातियों का वर्गीकरण: मुस्लिम-सिख-ईसाई आरक्षण में शामिल हो गए

मंडल आयोग ने तो गैर-हिंदू समुदायों में भी पिछड़ी जातियों का वर्गीकरण किया है, जिसके कारण कई मुस्लिम, सिख और ईसाई समुदायों को पिछड़े वर्ग में शामिल कर उन्हें भी आरक्षण की श्रेणी में शामिल किया गया। यद्यपि सैद्धांतिक तौर पर जाति प्रथा केवल हिंदू धर्म में है, लेकिन व्यवहार में भारत के सभी गैर हिंदू समुदायों को भी जाति प्रथा ने जकड़ रखा है। इसलिए धर्म परिवर्तन कर लेने के बाद भी वे सामाजिक पदानुक्रम और स्तरण की अवधारणा से मुक्त नहीं हो पाते।

नीतीश का सुझाव: बिहार सरकार की तर्ज पर केंद्र भी आरक्षण के लिए कर्पूरी फॉर्मूले पर करे अमल 

नीतीश कुमार के एक अन्य सुझाव पर भी काफी प्रतिक्रिया हुई है। उन्होंने बिहार सरकार की तर्ज पर केंद्र को भी आरक्षण के लिए कर्पूरी फॉर्मूले पर अमल करने का सुझाव दिया है। फिलहाल केंद्र सरकार द्वारा अति पिछड़ों के लिए आरक्षण के भीतर आरक्षण नहीं दिया गया है। बिहार में ओबीसी कोटे में कोटा 1978 से लागू है। बिहार के मुख्यमंत्री रहते हुए कर्पूरी ठाकुर ने मुंगेरीलाल कमीशन की रपट लागू कर 12 प्रतिशत कोटा अति पिछड़ों के लिए लागू किया था, जिसका बड़ा विरोध उन्हीं की जनता पार्टी ने किया। इसके कारण कर्पूरी को मुख्यमंत्री पद गंवाना पड़ा।

ओबीसी के अंतर्गत सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए 2017 में रोहिणी आयोग का गठन हुआ

जातिगत जनगणना कराने की नीतीश कुमार की मांग का स्वागत करते हुए अति पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष भगवान लाल साहनी ने सैद्धांतिक रूप से जस्टिस रोहिणी की अनुशंसा को लागू करने की आवश्यकता बताई है। दरअसल राजग सरकार द्वारा अक्टूबर 2017 में रोहिणी आयोग का गठन किया गया था। इसका मुख्य उद्देश्य अति पिछड़े वर्ग के अंतर्गत सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना है। ओबीसी में मौजूदा जातियों को उपवर्गीकृत करने के लिए इसका गठन किया गया है, ताकि सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में अवसरों के अधिक न्यायसंगत वितरण को सुनिश्चित किया जा सके।

1000 जाति समूह को ओबीसी आरक्षण से एक फीसद लाभ नहीं मिला

यद्यपि आधिकारिक तौर पर रोहिणी आयोग की रपट प्रकाशित नहीं हो पाई है, मगर कहा जा रहा है कि उसमें ओबीसी कोटे को चार भागों में बांटने की संस्तुति की गई है। आंकड़े बताते हैं कि पिछले पांच वर्षों में ओबीसी की 2633 जातियों में दस जाति समूह को कोटे का 25 फीसद लाभ मिला है। 37 जाति समूहों को 67 फीसद तो 100 जाति समूहों को कोटे का 75 फीसद लाभ पहुंचा है। 2486 जाति समूह ऐसे रहे, जिन्हें मात्र 25 फीसद लाभ मिल सका है। 1000 जाति समूह तो ऐसे भी रहे जिन्हें ओबीसी आरक्षण से एक फीसद लाभ नहीं मिला। इससे नई किस्म की असमानता पैदा हो रही है। ऐसे में इन वर्गों को रोहिणी आयोग की रपट का बेसब्री से इंतजार है।

( लेखक जदयू के प्रधान महासचिव हैं )