नई दिल्ली, अरुण जेटली। अर्थव्यवस्था को अनौपचारिक से औपचारिक रूप देने की प्रक्रिया में सरकार ने जो कई अहम फैसले किए उनमें नोटबंदी बेहद महत्वपूर्ण रही। सबसे पहले सरकार ने देश से बाहर जमा काले धन पर शिकंजा कसा। लोगों को विकल्प दिया कि वे कुछ जुर्माना राशि देकर अपने कालेधन को वापस ला सकते हैं। जिन लोगों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया उन पर काला धन अधिनियम के तहत मुकदमा चलाया गया। सरकार के पास पहुंचे ब्योरे में उल्लंघन करने वालों के खिलाफ कार्रवाई भी की गई। करों के दायरे का विस्तार करने और प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष करों का रिटर्न फाइल करने के लिए तकनीक का इस्तेमाल किया गया।

वित्तीय समावेशन भी एक और महत्वपूर्ण कदम रहा जिसमें सुनिश्चित किया गया कि समाज का कमजोर से कमजोर तबका भी औपचारिक अर्थव्यवस्था से जुड़ जाए। जन धन खातों के जरिये वे भी बैंकिंग तंत्र से जुड़े जो बैंकिंग सुविधाओं से वंचित थे। आधार कानून से भी यह तय किया गया कि सरकारी योजनाओं का लाभ लाभार्थियों तक सीधे उनके बैंक खातों में पहुंचे। अप्रत्यक्ष करों के मामले में वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी ने कर प्रकिया और उनके अनुपालन को आसान बना दिया। इन्हीं प्रयासों का परिणाम है कि अब कर चोरी करना मुश्किल होता जा रहा है।

हमारी अर्थव्यवस्था पूरी तरह नकदी पर आश्रित थी। नकद लेनदेन में लोगों की पहचान छिपी रहती है। यह कर चोरी के रास्ते खोलती है। नोटबंदी ने नकदी जमा करके बैठे लोगों को उसे बैंकों में जमा कराने पर मजबूर कर दिया। जिस पैमाने पर बैंकों में नकदी जमा कराई गई उससे 17.42 लाख संदिग्ध खाताधारकों की निशानदेही की गई। उनसे जवाब-तलब किए गए। जिन्होंने भी उल्लंघन किया उन पर कड़ी कार्रवाई की गई। बैंकों में जमा भारी नकदी से बैंकों की कर्ज देने की क्षमता में सुधार हुआ। इसमें से अधिकांश रकम को आगे निवेश के लिए म्यूचुअल फंडों में लगाया गया। इस तरह यह औपचारिक तंत्र का हिस्सा बन गया।

नोटबंदी की एक अतार्किक आलोचना यह भी हुई कि तंत्र की सारी नकदी बैंकों में जमा हो गई। नकदी को जब्त करना नोटबंदी का मकसद नहीं था। इसका व्यापक उद्देश्य नकदी को औपचारिक अर्थव्यवस्था में लाकर अधिक नकदी वालों से कर वसूलना था। भारत को नकदी आधारित लेनदेन वाली अर्थव्यवस्था से डिजिटल लेनदेन वाले तंत्र में बदलने के लिए ऐसी हलचल जरूरी थी। ऊंचे कर राजस्व और व्यापक कर दायरे का इस पर स्वाभाविक रूप से असर पड़ा। डिजिटल भुगतान के मोर्चे पर यूनाइटेड पेमेंट इंटरफेस यानी यूपीआइ की शुरुआत 2016 में हुई। इसमें दो मोबाइल फोन धारकों के बीच रियल टाइम भुगतान होता है।

अक्टूबर 2016 के दौरान इसमें जहां 0.5 अरब रुपये के लेनदेन हुए तो सितंबर 2018 में यह आंकड़ा बढ़कर 598 अरब रुपये हो गया। इसी तरह त्वरित भुगतान के लिए एनपीसीआइ ने भीम एप बनाया। फिलहाल 1.25 करोड़ से अधिक लोग इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। सितंबर 2016 में भीम एप से जहां 0.02 अरब रुपये का ही लेनदेन हुआ था वहीं सितंबर 2018 में यह आंकड़ा बढ़कर 70.6 अरब रुपये हो गया। जून 2017 में यूपीआइ पर होने वाले सभी लेनदेन में भीम एप की हिस्सेदारी लगभग 48 प्रतिशत थी। रुपे कार्ड भी पीओएस मशीनों से लेकर ई-कॉमर्स, दोनों में इस्तेमाल हो रहा है। नोटबंदी से पहले पीओएस पर जहां यह आठ अरब रुपयों के लिए ही इस्तेमाल हुआ वहीं सितंबर 2018 में इसका आंकड़ा 67.3 करोड़ रुपये हो गया। इसी अवधि में ई-कॉमर्स के लिए भी इसका आंकड़ा तीन अरब रुपये से बढ़कर 27 अरब रुपये हो गया। भारत में विकसित यूपीआइ और रुपे कार्ड से वीजा और मास्टरकार्ड की बाजार हिस्सेदारी सिकुड़ती जा रही है, क्योंकि देश में डेबिट और क्रेडिट कार्ड के जरिये 65 प्रतिशत लेनदेन इसी माध्यम से हो रहे हैं।

निजी आयकर संग्रह पर भी नोटबंदी से सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। चालू वित्त वर्ष में आयकर संग्रह के सर्वोच्च आंकड़े प्राप्त हुए हैं और ये भी इस साल 31 अक्टूबर तक के हैं। पिछले वर्ष के मुकाबले इसमें 20.2 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है। कारपोरेट कर में भी 19.5 फीसद का इजाफा हुआ है। नोटबंदी से दो साल पहले प्रत्यक्ष करों में 6.6 प्रतिशत और अप्रत्यक्ष करों में 9 प्रतिशत की सालाना बढ़ोतरी हुई थी। नोटबंदी के दो वर्षो के दौरान 2016-17 (नोटबंदी से पहले की भी अवधि) में इसमें 14.6 प्रतिशत तो 2017-18 में 18 प्रतिशत की तेजी आई। इसी तरह वर्ष 2017-18 में टैक्स रिटर्न का आंकड़ा 6.86 करोड़ तक पहुंच गया जिसमें पिछले वर्ष की तुलना में 25 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। इस साल 31 अक्टूबर तक 5.99 करोड़ रिटर्न फाइल हो चुके हैं जो पिछले वर्ष इसी तारीख तक दाखिल हुए रिटर्न की तुलना में 54.33 फीसद अधिक है। इस साल इसमें 86.35 लाख नए लोग जुड़े हैं। मई 2014 में जब सरकार ने कार्यभार संभाला था तब देश में कुल 3.8 करोड़ करदाता थे। चार वर्षो के कार्यकाल में करदाताओं का आंकड़ा 6.86 करोड़ हो गया है। कार्यकाल के अंत तक हम कर आधार को दोगुने तक बढ़ाने में सफल हो सकेंगे।

नोटबंदी और जीएसटी ने नकद लेनदेन पर बड़ी चोट की है। डिजिटल लेनदेन में तेजी प्रत्यक्ष है। 64 लाख करदाताओं का दायरा जीएसटी के बाद बढ़कर 1.2 करोड़ हो गया है। अब वस्तुओं और सेवाओं की दर्ज होती वास्तविक खपत कर दायरे में बढ़ोतरी का संकेत करती है। इससे अप्रत्यक्ष करों की वृद्धि तेज हुई है जिससे केंद्र और राज्यों दोनों को लाभ हुआ है। जीएसटी के बाद प्रत्येक राज्य को करों में सालाना 14 प्रतिशत की अनिवार्य बढ़ोतरी मिल रही है। वर्ष 2014-15 में जीडीपी के अनुपात में अप्रत्यक्ष करों का हिस्सा 4.4 प्रतिशत था जो जीएसटी के बाद एक प्रतिशत बढ़कर 5.4 फीसद हो गया। यहां तक कि छोटे करदाताओं को 97,000 करोड़ रुपये सालाना और जीएसटी में भी 80,000 करोड़ रुपये की राहत देने के बावजूद कर संग्रह में तेजी आई है।

प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष, दोनों करों में कटौती हुई है, लेकिन कर संग्रह में बढ़ोतरी हुई है। जीएसटी की शुरुआत के समय से जिन 334 वस्तुओं पर 31 फीसद कर की दर प्रभावी थी, उन पर दर घटाई जा चुकी है। सरकार ने इन संसाधनों का उपयोग बेहतर बुनियादी ढांचा निर्माण, सामाजिक क्षेत्र और ग्रामीण भारत के ऊपर किया है। इसके अभाव में हम गांवों को सड़कों से और हर घर तक बिजली कैसे पहुंचा सकते हैं? ग्रामीण स्वच्छता का दायरा 92 प्रतिशत तक पहुंच गया है और एक सफल आवासीय योजना के साथ ही आठ करोड़ गरीब घरों में रसोई गैस पहुंचाई जा चुकी है। दस करोड़ परिवार आयुष्मान भारत के दायरे में हैं।

खाद्य सब्सिडी पर 1,62,000 करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं। एमएसपी में 50 प्रतिशत की बढ़ोतरी और एक सफल फसल बीमा योजना लागू की गई है। यह अर्थव्यवस्था के औपचारिक होने का ही प्रभाव है कि 13 करोड़ उद्यमियों को मुद्रा ऋण मिल रहे हैं। हफ्तों के भीतर ही सातवां वेतन आयोग लागू कर दिया गया और वन रैंक-वन पेंशन की भी अर्से से चली आ रही मांग भी पूरी हो गई। अर्थव्यवस्था के अधिक औपचारिक होने का अर्थ है कि राजस्व बढ़ेगा जिससे गरीबों के लिए संसाधन बढ़ेंगे, बुनियादी ढांचा बेहतर होगा और नागरिकों के जीवन स्तर में सुधार होगा।

(लेखक केंद्रीय वित्त मंत्री हैं)