[ राजीव सचान ]: पांच अगस्त के बाद से ही कश्मीर खबरों में छाया हुआ है, लेकिन यह जरूरी नहीं कि कश्मीर से आने वाली या फिर उससे संबंधित हर खबर देश का ध्यान आकर्षित कर रही हो। इसका उदाहरण हाल में आई वह खबर है जो यह बताती है कि 30 साल बाद श्रीनगर में हत्या के एक मामले की सुनवाई शुरू होने वाली है। यह हत्या का सामान्य मामला नहीं। यह 1990 में गणतंत्र दिवस से एक दिन पहले यानी 25 जनवरी को श्रीनगर के बाहरी इलाके में वायुसेना के चार कर्मियों की हत्या का मामला है। इस मामले का मुख्य आरोपी यासीन मलिक है, जो जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट का मुखिया है और फिलहाल आतंकी फंडिंग के आरोप में न्यायिक हिरासत में है। उसे राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने अनुचित तरीके से बाहर से पैसा हासिल करने और पत्थरबाजों को उकसाने के आरोप में गिरफ्तार किया था।

यासीन मलिक पर रुबिया सईद के अपहरण का आरोप

यासीन मलिक पर 1989 में केंद्रीय गृह मंत्री रहे मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी के अपहरण का भी आरोप है, लेकिन पिछले दिनों जब उसके संगठन जेकेएलएफ पर पाबंदी लगाई गई तो इसका विरोध जिन लोगों ने किया उनमें मुफ्ती मुहम्मद सईद की दूसरी बेटी और पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती भी शामिल थींं। उन्होंने इस पाबंदी को गलत बताते हुए कहा कि अगर वह सत्ता में आईं तो जेकेएलएफ पर लगाए गए प्रतिबंध को हटा देंगी। पता नहीं उनकी यह इच्छा पूरी होगी या नहीं, लेकिन यासीन मलिक के मुरीद फारूक अब्दुल्ला भी हैैं। वास्तव में महबूबा और फारूक, दोनों ही यह मान रहे हैैं कि यासीन मलिक कश्मीर मसले का एक पक्ष है। ऐसा मानने वाले और भी हैैं-न केवल कश्मीर में, बल्कि दिल्ली में भी।

यासीन मलिक पर वायु सेना के चार कर्मियों की हत्या का आरोप

वायु सेना के चार कर्मियों की हत्या के मामले की जांच करते हुए सीबीआइ ने अगस्त 1990 में ही जम्मू की टाडा अदालत में यासीन मलिक के खिलाफ आरोपपत्र दायर कर दिया था, लेकिन 1995 में जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट की एकल पीठ ने यह कहते हुए मलिक के खिलाफ सुनवाई पर रोक लगा दी कि श्रीनगर में टाडा अदालत नहीं है। इसी के साथ रुबिया सईद के अपहरण के मामले की भी सुनवाई थम गई। इस मामले में आरोप पत्र सितंबर 1990 में दाखिल हुआ था। कोई नहीं जानता कि इसके बाद किसी ने इसकी सुध क्यों नहीं ली कि इस मामले की सुनवाई आगे बढ़े? आखिर कोई वायु सेना के चार कर्मियों की हत्या की अनदेखी कैसे कर सकता है? चूंकि यासीन मलिक पर टाडा के तहत मामले की सुनवाई पर रोक का आदेश हाईकोर्ट की एकल पीठ ने दिया था इसलिए उसे आसानी से चुनौती दी जा सकती थी, लेकिन ऐसा नहीं किया गया।

यासीन मलिक के खिलाफ नहीं हुई सुनवाई

अगर जम्मू की टाडा अदालत में इस मामले की सुनवाई नहीं होे सकती थी तो किसी अन्य अदालत में तो हो ही सकती थी। दुर्भाग्य से ऐसा भी नहीं हो सका। इस मामले की सुनवाई शायद इसलिए आगे नहीं बढ़ सकी, क्योंकि किसी ने इसमें दिलचस्पी नहीं ली कि इस बड़ी आतंकी वारदात को अंजाम देने वालों को यथाशीघ्र सजा मिले। बहुत संभव है कि इस मामले के ठंडे बस्ते में चले जाने के पीछे एक कारण अनुच्छेद 370 के प्रावधान रहे हों, लेकिन इसका कोई मतलब नहीं कि इतनी बड़ी आतंकी घटना की कोई सुध न ले। क्या ऐसा इसलिए हुआ कि यासीन मलिक ने बाद में कथित तौर पर हिंसा का रास्ता छोड़ने का एलान कर दिया था?

यासीन मलिक ने बदला पाला

पता नहीं सच क्या है, लेकिन यह किसी से छिपा नहीं कि कुछ लोग उसे गांधीवादी बताने लगे थे। इसके बाद वह हुर्रियत कांफ्रेंस का हिस्सा बनकर कश्मीर मसले के हल के लिए केंद्र सरकार से होने वाली वार्ताओं में भी शामिल होने लगा। ऐसा लगता है कि इस दौरान इस बात को भुलाना ही बेहतर समझा गया कि कश्मीरी पंडितों के पलायन में भी यासीन मलिक और उसके साथियों की बड़ी भूमिका थी। उसके अतीत से भली तरह परिचित होते हुए भी पता नहीं कैसे यासीन मलिक को कश्मीर समस्या के समाधान में सहायक मान लिया गया? चूंकि ऐसा मान लिया गया इसलिए उसकी एक तरह से मेहमानवाजी होने लगी।

यासीन मलिक बना रोल मॉडल

हत्या और अपहरण के मामले में वांछित होने के बाद भी यासीन मलिक को देश से बाहर जाने की इजाजत मिल गई। इतना ही नहीं, वह टीवी चैनलों में कश्मीर के विशेषज्ञ के तौर पर उपस्थित होने लगा और उसे कश्मीर के युवाओं के लिए रोल मॉडल के तौर पर भी पेश किया जाने लगा। कुछ लोग ऐसे भी थे जो उसे मानवाधिकारों के मसीहा के तौर पर रेखांकित करते थे।

हत्या और अपहरण के आरोप साबित नहीं हुए

यह सही है कि जब यह सब हो रहा था तब उस पर हत्या और अपरहण के आरोप भर थे और वे साबित नहीं हुए थे, लेकिन आखिर ऐसा कौन देश है जो अपने सैनिकों के हत्यारोपी से इतनी नरमी से पेश आता है? साफ है कि इसकी जानबूझकर अनदेखी की जा रही थी कि यासीन मलिक वायुसेना के चार कर्मियों की हत्या का आरोपी है। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि आखिरकार तीस साल बाद यासीन मलिक के मामले की सुनवाई होने जा रही है, क्योंकि इसी के साथ यह भी पता चलना चाहिए कि आखिर इस मामले में इतनी देरी के लिए कौन जिम्मेदार है?

यासीन मलिक के प्रति  नरमी

1990 में श्रीनगर में मारे गए वायु सेना के चार कर्मियों में से एक स्क्वाड्रन लीडर रवि खन्ना भी थे। उनकी पत्नी के अनुसार तीस साल बाद उन्हें उम्मीद की एक रोशनी नजर आई है, लेकिन उनके इस सवाल का जवाब शायद ही किसी के पास हो कि आखिर उनके पति का कसूर क्या था? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि 1995 से 2019 तक यह मामला ठंडे बस्ते में क्यों पड़ा रहा? वास्तव में यह देर नहीं अंधेर है। यह अंधेर उस दौरान हुई जब यह बार-बार दोहराया जा रहा था कि आतंक के खिलाफ सख्ती से निपटा जाएगा। अगर यह सख्ती थी तो फिर नरमी किसे कहते हैैं? नि:संदेह यासीन मलिक का मामला एकलौता प्रकरण नहीं है। कश्मीर में इस तरह के तमाम मामले हैैं जिनकी सुनवाई का अता-पता नहीं। इनमें कई मामले कश्मीरी पंडितों की हत्या के भी हैैं।

( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैैं )