संजय दूबे। CAA vs NRC: मुसलमानों को आखिर केंद्र सरकार से क्या दिक्कत है? क्या वाकई सरकार इनके खिलाफ है? वह जब चाहती है, जो चाहती है बिना इस तबके को भरोसे में लिए एकतरफा फैसला ले रही है? ऐसी चर्चा इन दिनों आम है। इसी संदर्भ में सरकार ने एक सराहनीय फैसला लिया है। दरअसल तीन करोड़ परिवारों के बीच भाजपा के नुमाइंदे जाएंगे जो सीएए और एनआरसी जैसे मुद्दे पर लोगों के बीच कायम भ्रम को दूर करेंगे। सरकार की ओर से अपनाया गया यह एक सकारात्मक रवैया है।

इस मुद्दे को लेकर जिस तरह से राजनीति हो रही है, वह ठीक नहीं है। ना तो देशहित में, और ना ही स्थानीय हित में। प्रदर्शन करना लोकतांत्रिक अधिकार है। इसे रोका नहीं जा सकता। विरोध और प्रदर्शन लोकतंत्र की शान हैं। इन्हीं विरोधों और धरना-प्रदर्शनों से सरकारों के आने जाने का कार्यक्रम तय होता है। लेकिन यह सब व्यवस्थित और नेतृत्व के तहत होता है जिससे इसमें हिंसा की गुजांइश नहीं बचती। जबकि सीएए के विरोध को लेकर ऐसा नहीं हुआ। उत्तर प्रदेश में जिस तरह इसको लेकर हिंसक प्रदर्शन हुए उसकी रहनुमाई किसी दल ने नहीं की। अगर की भी है तो इसकी आधिकारिक घोषणा नहीं हुई ताकि सीधे-सीधे कहा जाय कि अमुक दल के कार्यकर्ताओं ने ये हिंसा की है।

हालांकि कई राजनीतिक दलों का मानना है कि यह एक स्वत: स्फूर्त आंदोलन था जो हिंसा में परिवर्तित हो गया। इसे मानने पर कई तरह के सवाल खड़े होते हैं। आज जो भी राजनीतिक दल हैं उसमें सभी के पास छात्र राजनीति से आए हुए नेता हैं। क्या वे यह बताएंगे कि इस तरह के हिंसापूर्ण आंदोलन उन्होंने कब किए हैं? उसका प्रत्युत्तर सरकार ने किस तरह दिया है? मंडल कमीशन रिपोर्ट को लेकर पक्ष विपक्ष, दोनों के लिए प्रदर्शन हुए। हिंसा भी हुई। मगर एक बार भी छात्रों ने मुद्दे से हटकर नारे नहीं लगाए। जबकि अकस्मात सड़कों पर गलियों से निकले लोगों ने ऐसे नारे लगाए जिसका संबंध कश्मीर से था।

ऐसा तभी होता है जब भीड़ बिना किसी खास मकसद के कहीं एकत्रित होती है। फिर अचानक से उसमें कुछ उपद्रवी तत्व नेता की भूमिका में आ जाते है। भीड़ उसके इशारे पर चलने लगती है, बिना यह जाने समझे कि उसका कैसा इस्तेमाल हो रहा है? यह मनोविज्ञान है कि एकत्रित समूह में से कुछ विशेष से दिखने वाले लोग जब कोई कदम उठाते हैं, तब भीड़ उसका अनुसरण करने लगती है। फिर वह भीड़ कुछ देर तक जैसा चाहे वैसा करती है। ऐसा ही इस मुद्दे को लेकर भी हुआ, क्योंकि मुसलमानों के भीतर की बेचैनी से कई नेताओं का फायदा दिख रहा है। वो इनके असंतोष को अपने पक्ष में करने के लिए लगे हैं। एक बार किसी विवाद के चलते अगर यह कौम इनके साथ खड़ी हो गई, तब किसी भी मुस्लिम नेता का सियासी कद बढ़ना तय है। फिर चाहे वह कांग्रेस, राजद, सपा या फिर अन्य कोई दल क्यों न हो, वहां इन्हें भय दिखाकर अपनी सियासी पारी की शुरुआत जोरदार ढंग से की जा सकती है।

सीएए के साथ-साथ अब एनपीआर भी इसमें जुड़ गया है। इन दोनों को ही लेकर फिलहाल सियासत हो रही है। खुद कांग्रेस भी, जो मोदी सरकार को बेरोजगारी, जीडीपी विकास दर को लेकर रात-दिन एक किए रहती थी, सरकार को मूलभूत सुविधाओं के सवालों पर घेरे रहती थी, आज खुद ब खुद भाजपा द्वारा खड़े किए गए इस मुद्दे पर घिरती जा रही है। ऐसा सभी जानते हैं कि किसी को रातों-रात इस देश से नहीं निकाला जा सकता।

मगर देश के आम मुसलमान को लगता है कि सरकार इनके मामले में बिना इनकी राय के एक तरफा फैसला ले लेती है, तीन तलाक, धारा 370 जिस तरह सरकार ने एक झटके में लागू कर दिए, ठीक ऐसा ही इनकी नागरिकता मामले में भी हो सकता है। इसी डर को अन्य दल भुनाने के चक्कर में हैं, जबकि सरकार को चाहिए कि इस मुद्दे पर राष्ट्रीय स्तर पर वे जनता के बीच व्यापक चर्चा-परिचर्चा कराएं जिनमें उलेमा भी शिरकत करें ताकि इस कौम के मन में बैठे डर को भगाया जा सके।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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