[ महेश जेठमलानी ]; देश में एक तबका नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए के खिलाफ मुहिम छेड़े हुए है। विरोध करने वाले पाकिस्तान के अहमदिया और शिया मुसलमानों के लिए पैरवी कर रहे हैं और साथ ही म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों और श्रीलंकाई तमिलों के लिए भी आवाज उठा रहे हैं। ऐसे में हमें इन देशों के ढांचे और सीएए के स्वरूप को समझना होगा। सीएए में भारतीय नागरिकता देने का आधार ही धार्मिक उत्पीड़न है। चूंकि ये तीनों देश घोषित रूप से इस्लामिक राष्ट्र हैं तो वहां मुसलमानों के धार्मिक उत्पीड़न की दलील टिकती नहीं।

अहमदिया ने पाक में धर्मनिरपेक्षता की बची-खुची उम्मीदों पर पानी फेरने का काम किया

अहमदिया मुसलमानों के बारे में हमें पता होना चाहिए कि पाकिस्तान के मुख्य शिल्पकारों में से एक सर जफीरूल्ला खान अहमदिया थे। उन्होंने ही 1940 के उस कुख्यात लाहौर प्रस्ताव की अवधारणा पेश की थी जिसने पाकिस्तान को एक धार्मिक मुल्क बनाने का आधार तैयार किया। वह पाकिस्तान की पहली संविधान सभा के उन प्रमुख सदस्यों में से एक थे जिन्होंने पाकिस्तान में धर्मनिरपेक्षता की बची-खुची उम्मीदों पर पानी फेरने का काम किया।

जिन्ना ने पाक को सेक्युलर ढांचा देने के संकेत दिए थे, लेकिन उनकी मौत के साथ ही वे दफन हो गए

हालांकि पाक के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना ने शुरुआती दौर में अपने मुल्क को सेक्युलर ढांचा प्रदान करने के संकेत दिए थे, लेकिन उनकी मौत के साथ ही वे दफन हो गए। रही-सही कसर जिन्ना के उत्तराधिकारी लियाकत अली खान ने पूरी कर दी जिन्होंने मार्च 1949 में ‘ऑब्जेक्टिव रिजोल्यूशन’ के जरिये पाक को एक धर्मांध इस्लामिक देश बनाने की राह पर धकेला। यह प्रस्ताव पाक में गैर-मुस्लिमों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने के लिए ही था। शिया और अहमदिया ने भी इसका समर्थन किया। दरअसल पाक में प्रत्येक मुस्लिम का अरमान अपने मुल्क को मजहबी खाका प्रदान करना था।

लियाकत अली के प्रस्ताव ने पाक को इस्लामिक देश और गैर-मुस्लिमों को दोयम दर्जे का नागरिक

इस प्रस्ताव के अमल में आने के बाद पाक में हिंदू, सिख और ईसाइयों के हिस्से में उत्पीड़न के सिवाय कुछ नहीं आया। पाकिस्तानी आबादी के अनुपात से इसकी पुष्टि भी होती है। गैर-मुस्लिमों से छुटकारा पाने के बाद बहुसंख्यक सुन्नियों ने अहमदिया को निशाना बनाना शुरू किया। उन्हें मुस्लिम न मानने को लेकर अभियान छेड़ा गया। अहमदिया के बाद शिया निशाने पर आए।

पाक मुस्लिमों को सीएए में शामिल करने की दलील देने वाले दोहरा रवैया अपनाते हैैं

जो लोग पाकिस्तानी मुस्लिमों को सीएए में शामिल करने की दलील दे रहे हैं, उनका आधार शिया और अहमदिया मुसलमानों की मौजूदा स्थिति है। ऐसी दलील देने वाले लोग खुद दोहरे रवैये वाले हैैं। प्रमुख मुस्लिम नेताओं में शुमार असदुद्दीन ओवैसी ने जून 2008 में आंध्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री वाईएस राजशेखर रेड्डी से अनुरोध किया था कि वे हैदराबाद में अहमदिया मुसलमानों को रैली आयोजित न करने दें और ठीक वैसा ही हुआ। इसी तरह मुस्लिम विद्वानों की एक प्रमुख संस्था एमटीएनके ने 2011 की जनगणना में अहमदिया को मुस्लिम मानने पर केंद्र सरकार की आलोचना की।

शाही इमाम के आह्वान पर दिल्ली में 2011 में अहमदिया की प्रदर्शनी रोकी गई

सितंबर 2011 में जामा मस्जिद के शाही इमाम के आह्वान पर दिल्ली में अहमदिया की एक प्रदर्शनी रोकी गई। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड में भी अहमदिया का प्रतिनिधित्व नहीं है। फरवरी 2012 में आंध्र प्रदेश वक्फ बोर्ड ने अहमदिया मस्जिदों को जब्त करने का फरमान सुनाया कि शिया-सुन्नी मस्जिदों का प्रबंधन गैर-मुस्लिमों द्वारा नहीं किया जा सकता। इसके अगले महीने हैदराबाद में अहमदिया मस्जिद पर हमला हुआ।

2012 में अहमदिया के पूर्णतया सामाजिक बहिष्कार का एलान

मई 2012 में ही जमीयत-ए-इस्लामीर-हिंद ने अहमदिया के पूर्णतया सामाजिक बहिष्कार का एलान किया। इसी दौरान कश्मीर के प्रमुख मुफ्ती ने राज्य सरकार से अनुरोध किया कि विधानसभा में प्रस्ताव पारित कर अहमदिया को गैर-मुस्लिम घोषित किया जाए। तमिलनाडु और बंगाल में अहमदिया पर हमले की खबरें भी आईं।

क्या जामिया और एएमयू के प्रदर्शनकारी छात्र अहमदिया को मुस्लिम मानते हैं?

जामिया और एएमयू के प्रदर्शनकारी छात्रों ने भी अपना रुख स्पष्ट नहीं किया है कि क्या वे अहमदिया को मुस्लिम मानते हैं? इसे देखते हुए यदि धार्मिक उत्पीड़न के आधार पर उन्हें नागरिकता दे दी भी जाती है तब देश में वर्ग संघर्ष की एक नई आशंका गहरा सकती है। जहां तक अफगानिस्तान के हजारा शरणार्थियों की बात है तो दिल्ली में उनकी तादाद करीब 500-700 है। ये धार्मिक उत्पीड़न के कारण नहीं, बल्कि तालिबान के अत्याचारों से तंग आकर अपना देश छोड़ आए थे। चूंकि अब पश्चिमी काबुल में हजारा समुदाय के लिए एक बस्ती बना दी गई है तो वे अपने वतन लौट सकते हैैं।

श्रीलंका और म्यांमार के अल्पसंख्यकों को भी सीएए से बाहर रखने पर गफलत फैलाई जा रही

श्रीलंका और म्यांमार के अल्पसंख्यकों को भी सीएए से बाहर रखने पर गफलत फैलाई जा रही है। म्यांमार में कोई राष्ट्रीय धर्म नहीं है। देश की 90 फीसद आबादी थेरवाद बौद्धों की है। संविधान उन्हें प्रोत्साहन देता है तो साथ ही अल्पसंख्यकों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार भी प्रदान करता है। श्रीलंका का संविधान भी बौद्ध धर्म को वरीयता देता है, लेकिन श्रीलंकाई संविधान का अनुच्छेद 10 और अनुच्छेद 14 सभी धर्मों के अनुयायियों को व्यापक रूप से धार्मिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करते हैं। श्रीलंकाई सुप्रीम कोर्ट देश को सेक्युलर घोषित कर ही चुका है।

पीएम शेख हसीना ने कहा- बांग्लादेश में आ बसे 11 लाख रोहिंग्या देश के लिए खतरा बन गए

रोहिंग्या का मसला मुख्य रूप से भारत के दो पड़ोसी मित्र देशों म्यांमार और बांग्लादेश के बीच फंसा पेच अधिक है। फिर म्यांमार के रखाइन प्रांत से उनके निर्वासन की कहानी के तार भी आंतरिक संघर्ष से जुड़े हुए हैं। उन्हें लेकर खतरे भी कम नहीं। भारतीय खुफिया एजेंसियों ने आगाह किया है कि रोहिंग्या शरणार्थियों के संबंध इस्लामिक स्टेट, अल कायदा और पाकिस्तान के पिट्ठू आतंकी संगठनों से भी हैं। बांग्लादेशी प्रधानमंत्री शेख हसीना भी कह चुकी हैं कि बांग्लादेश में आ बसे 11 लाख रोहिंग्या न केवल उनके देश, बल्कि पूरे क्षेत्र की सुरक्षा के लिए खतरा बन गए हैं। ऐसे समूह जिहादी ताकतों को विस्तार देने के लिए एकदम माकूल होते हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा के जोखिम को देखते हुए भारत द्वारा रोहिंग्या को सीएए से दूर रखने का औचित्य समझ आता है। श्रीलंकाई शरणार्थियों की समस्या देश में दशकों तक चले गृहयुद्ध से उपजी थी और उसके समाप्त होने के साथ ही उसका पटाक्षेप समझा जाना चाहिए।

सीएए संवैधानिक रूप से पूरी तरह वैध है, प्रताड़ित लोगों के लिए आसरा है, मुस्लिम विरोधी नहीं

इस प्रकार सीएए संवैधानिक रूप से पूरी तरह वैध है। यह प्रताड़ित लोगों को मानवीय आधार पर आसरा देने वाला कानून है। यह मुस्लिम विरोधी नहीं है। वे भी नागरिकता कानून के एक अलग प्रावधान से नागरिकता के लिए आवेदन कर सकते हैं। सच तो यह है कि पिछले कुछ अर्से में करीब 600 मुस्लिमों को भारतीय नागरिकता दी भी जा चुकी है। इस कानून का सीमित दायरा संवैधानिक नैतिकता एवं सार्वजनिक नीति से आबद्ध है। यह कानून तनिक भी विभाजनकारी नहीं है, लेकिन अफसोस है कि इसके विरोधी अपने कुत्सित हितों की पूर्ति के लिए इसकी मनमानी व्याख्या में जुटे हुए हैं।

( लेखक वरिष्ठ वकील हैं )