[ हर्ष वी पंत ]: इस महीने की शुरुआत में भारत संयुक्त राष्ट्र में लाए गए एक अमेरिकी प्रस्ताव पर मतदान के दौरान अनुपस्थित रहा। यह कवायद गाजा में हमास और अन्य चरमपंथी संगठनों की गतिविधियों के खिलाफ एक निंदा प्रस्ताव लाने जैसी थी। संयुक्त राष्ट्र महासभा में यह प्रस्ताव पारित नहीं हो पाया, क्योंकि इसके पक्ष में आवश्यक दो-तिहाई मत नहीं पड़े। इस प्रस्ताव के पक्ष में 87 वोट पड़े और विरोध में 58 जबकि 32 देश मतदान के दौरान अनुपस्थित रहे। भारत इन 32 देशों में से एक था।

संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका की स्थाई प्रतिनिधि निक्की हेली इस प्रस्ताव की प्रवर्तक थीं। संयुक्त राष्ट्र महासभा को आईना दिखाने में उनका रवैया एकदम ठीक ही था जब उन्होंने कहा कि इजरायल के खिलाफ 500 से अधिक निंदा प्रस्तावों पर मुहर लगाने के बावजूद महासभा ने हमास के खिलाफ आज तक ऐसे एक भी प्रस्ताव को स्वीकृति नहीं दी है। हेली संयुक्त राष्ट्र में इजरायल की धुर समर्थक रही हैं, लेकिन वह हमास के खिलाफ उस निंदा प्रस्ताव को भी पारित नहीं करा पाईं जिसकी पहल उन्होंने खुद की थी। इस अवसर पर भारत ने कूटनीतिक कौशल दिखाया। हालांकि मतदान के दौरान भारत के अनुपस्थित रहने का अर्थ यह नहीं था कि वह अमेरिकी प्रस्ताव के विरोध में था। इससे पहले उसने इस प्रस्ताव की प्रक्रिया निर्धारित करने के दौरान अमेरिका के पक्ष में मतदान किया था।

अमेरिका जब यह सुनिश्चित करना चाहता था कि इस प्रस्ताव की नियति दो-तिहाई बहुमत के बजाय साधारण बहुमत से तय हो तब भारत ने साधारण बहुमत वाले अमेरिकी प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया, मगर इस प्रस्ताव को पारित कराने में अमेरिका मामूली अंतर से मात खा गया, क्योंकि वह जापान जैसे अपने घनिष्ठ सहयोगी का समर्थन भी हासिल नहीं कर पाया। ऐसे में भारत ने अनुपस्थित रहना ही मुनासिब समझा, क्योंकि उसे पता था कि महासभा में अमेरिका इस प्रस्ताव के पक्ष में दो-तिहाई बहुमत जुटा पाने में सक्षम नहीं होगा।

हमास के खिलाफ मतदान के दौरान भारत के अनुपस्थित रहने पर देश-विदेश में तमाम लोगों की त्योरियां चढ़ी हैं। आलोचकों ने भारत के इस कदम को लेकर कई खतरे गिनाते हुए कहा कि आतंकवाद के सबसे ज्यादा पीड़ित देशों में से एक होने के बावजूद भारत की अनुपस्थिति आतंकवाद की अनदेखी करने जैसी है। भारत को इसके लिए भी आड़े हाथों लिया जा रहा कि निर्णायक क्षणों में वह इजरायल जैसे अपने घनिष्ठ सहयोगी के साथ खड़ा नहीं रहा। आखिर जो देश आतंकवाद के मसले पर पाकिस्तान को दुनिया भर में अलग-थलग करने की मुहिम में जुटा है उसके लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह आतंक पीड़ित दूसरे देशों के पक्ष में भी अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करे।

यह सब सच है और भारत के पास आर या पार वाला रुख अपनाने की सुविधा भी है, मगर अंतरराष्ट्रीय संबंधों का मसला जरा अलग है। इस मोर्चे पर अन्य देशों की ही तरह भारतीय कूटनीति को भी सभी तरह के समझौते करने पड़ते हैं। मतदान पर ऐसे रुख के बावजूद इससे इन्कार नहीं कि मोदी सरकार ने इजरायल और फलस्तीन पर पश्चिम एशिया नीति को नए सिरे से तय किया है। नई नीति काफी साहसिक है, लेकिन इसे देश-विदेश में अपेक्षित तवज्जो नहीं मिली। भारत ने व्यावहारिक कारणों से इन दोनों देशों के साथ रिश्तों को संतुलित करने का प्रयास किया है।

पुरानी नीति यह थी कि अगर कोई भारतीय नेता इजरायल जाए तो उसे यह दर्शाने के लिए फलस्तीन भी जाना होगा कि नई दिल्ली दोनों देशों के साथ कोई भेदभाव नहीं करती। इस लिहाज से 2017 में प्रधानमंत्री मोदी ने दो वर्जनाएं ध्वस्त कीं। एक तो वह इजरायल का दौरा करने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री बने और दूसरे, इस दौरान उन्होंने फलस्तीन जाने की बात तो दूर, आधिकारिक रूप से उसका जिक्र भी नहीं किया।

हालांकि मोदी के इजरायल दौरे से पहले मई, 2016 में नई दिल्ली ने फलस्तीन प्राधिकरण के अध्यक्ष महमूद अब्बास की मेजबानी की थी और मोदी ने फलस्तीन मसले को लेकर उन्हें भारत के ‘दृढ़’ समर्थन का आश्वासन भी दिया था। तब भविष्य के फलस्तीन राष्ट्र की राजधानी के रूप में पूर्वी यरूशलम का जिक्र नहीं हुआ जिस पर नई दिल्ली का यही रुख था कि इस पर वह दोनों पक्षों के बीच बनी सहमति का सम्मान करेगी। पश्चिम एशिया में भारत का काफी ऊंचा दांव लगा है। सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और ओमान के साथ भारत के घनिष्ठ सहयोग से इसकी पुष्टि भी होती है। इजरायल दौरे से पहले ही मोदी इन प्रमुख देशों की या तो मेजबानी कर चुके थे या फिर उन देशों के मेहमान बन चुके थे।

वास्तव में जब मोदी की ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ पर काफी चर्चा हो रही थी तब तक वह अपनी ‘लुक वेस्ट’ सक्रियता को खासी धार दे चुके थे। अक्सर माना जाता है कि तेल ही इन रिश्तों का आधार है, लेकिन यह नाता उससे कहीं बढ़कर है। प्रमुख देशों के साथ भारत की राजनीतिक सक्रियता बढ़ी है तो सामरिक सहयोग पर भी ध्यान केंद्रित हुआ है। इस साल की शुरुआत में मोदी के ओमान दौरे पर भारत ने दुक्म जैसे महत्वपूर्ण बंदरगाह तक पहुंच सुनिश्चित की है।

सैन्य एवं अन्य आवाजाही के लिए इस्तेमाल होने वाले इस बंदरगाह से भारत को हिंद महासागर में अपनी नौसैनिक स्थिति और मजबूत बनाने में मदद मिलेगी। वहीं 3,600 करोड़ रुपये के अगस्ता वेस्टलैंड हेलिकॉप्टर घोटाले के बिचौलिये क्रिश्चियन मिशेल का संयुक्त अरब अमीरात द्वारा प्रत्यर्पण दर्शाता है कि दोनों देशों के बीच राजनीतिक रिश्ते किस कदर परवान चढ़ रहे हैं। यह सब ऐसे वक्त हो रहा है जब खाड़ी क्षेत्र राजनीतिक मोर्चे पर कई अहम बदलाव के दौर से गुजर रहा है।

ट्रंप प्रशासन ने ईरान के खिलाफ मोर्चा खोल लिया है और अरब देश इजरायल से निकटता बढ़ा रहे हैं जैसा उन्होंने पहले कभी नहीं किया। ओमान के सुल्तान काबूस बिन सईद ने अक्टूबर में इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू का मस्कट में स्वागत किया। यह दो दशकों में इजरायली प्रधानमंत्री की किसी भी खाड़ी देश की पहली यात्रा थी। इसी दौरान सऊदी मूल के पत्रकार जमाल खशोगी की हत्या के बाद तुर्की और सऊदी अरब आमने-सामने आ गए। वहीं रूस भी इस क्षेत्र में एक प्रमुख खिलाड़ी के रूप में उभरा है।

जब पश्चिमी देश अपनी ही समस्याओं में उलझे हुए हैं तब खाड़ी के देश नए साझेदारों की तलाश में हैं। भारत की सक्रियता ने वहां उसके लिए नई भूमिका गढ़ी है। आर्थिक एवं सामरिक मोर्चे पर इस क्षेत्र में भारत की भूमिका का विस्तार होना तय है। ऐसे में संयुक्त राष्ट्र में भारत का एहतियात भरा कदम इस बड़े बदलाव का एक मामूली सा पहलू है।

( लेखक लंदन स्थित किंग्स कॉलेज में इंटरनेशनल रिलेशंस के प्रोफेसर हैं )