[ डॉ. भरत झुनझुनवाला ]: आर्थिक मोर्चे पर सुस्ती के बीच उससे निपटने के उपायों पर चर्चा और साथ ही अमल भी आवश्यक है। सरकार ने हाल में कुछ छोटे बैंकों का विलय कर बड़े सरकारी बैंक बनाने की दिशा में कदम बढ़ाए ताकि उनकी क्षमता बढ़ सके। यह स्वागतयोग्य है, पर इससे आगे जाने की जरूरत है। पिछले दो वर्षों में सरकार ने 250 हजार करोड़ रुपये इन बैंकों में डालने की योजना बनाई है। इसकी तुलना में आज इन बैंकों की कुल बाजार हैसियत ही मात्र 230 हजार करोड़ रुपये है। यानी इनके पास पूंजी का मौजूदा स्तर नकारात्मक है।

एसबीआई को  छोड़कर शेष सभी सरकारी बैंकों का निजीकरण हो

सरकार ने दो वर्षों में जो पैसा इन बैंकों को दिया, उसे भी ये सहेजकर नहीं रख पाए हैं। ऐसे में सरकार को चाहिए कि वह भारतीय स्टेट बैंक को छोड़कर शेष सभी सरकारी बैंकों का निजीकरण कर दे। तब सरकार करीब 230 हजार करोड़ रुपये की भारी रकम अर्जित कर सकेगी। इस रकम का उपयोग सेवाओं के निर्यात बढ़ाने के लिए किया जा सकता है। जैसे हर जिले में विदेशी भाषाओं को पढ़ाने के केंद्र बनाए जाएं। भारत के अध्यापकों को सब्सिडी देकर दुनिया भर के संस्थानों में पढ़ाने के लिए भेजा जाए, भारत में विदेशी भाषाओं की फिल्में बनाने जैसे दांव आजमाए जा सकते हैं। इससे सरकार को बैंकों में लगातार पूंजी डालने के सिरदर्द से मुक्ति मिलेगी और हमारे सेवा क्षेत्र का विकास होगा।

वित्तीय घाटे पर नियंत्रण

दूसरा उपाय, निवेश के लिए कर्ज लेने का है। राजग सरकार ने बीते पांच वर्षों में वित्तीय घाटे पर नियंत्रण करने में बड़ी सफलता हासिल की है। वर्ष 2013-14 में सरकार का वित्तीय घाटा 4.4 प्रतिशत था जो 2018-19 में 3.4 प्रतिशत रह गया। वित्तीय घाटा वह रकम होती है जो सरकार द्वारा बाजार से उधार लेकर खर्च की जाती है। वित्तीय घाटे में कटौती का अर्थ है कि सरकार अपने खर्चों पर नियंत्रण कर रही है और उधार कम ले रही है। यह अर्थव्यवस्था की स्थिरता के लिए जरूरी भी है, अन्यथा महंगाई बढ़ती है और निवेशक निवेश करने से कतराते हैं, मगर इससे बढ़कर कदम उठाने होंगे। सरकार ने वित्तीय घाटे में जो कटौती हासिल की है उसमें तीन चौथाई हिस्सा पूंजी खर्चों में कटौती का है और एक चौथाई हिस्सा सरकार की खपत में कटौती का।

सरकारी खपत पर नियंत्रण हो और निवेश बढ़ाया जाए

सरकार ने अपनी खपत को स्थिर बनाए रखा और पूंजी निवेश कम कर दिया-ठीक वैसे ही जैसे दुकानदार ने घर में एयर कंडीशनर लगाए रखा और दुकान से हटा दिया। सरकार के खर्चों की दिशा का अर्थव्यवस्था पर सीधा असर पड़ता है। सरकार की खपत में कर्मियों को दिया जाने वाला वेतन प्रमुख होता है। यदि सरकार कर्मियों को बढ़ा-चढ़ाकर वेतन देती है तो इसका अधिकांश हिस्सा सोना खरीदने में, विदेशों में निवेश करने में, विदेशी पर्यटन में अथवा विदेशी माल खरीदने में व्यय हो जाता है और यह रकम देश से बाहर चली जाती है यानी हमारी अर्थव्यवस्था के गुब्बारे से हवा निकल जाती है। इसलिए सरकार को चाहिए कि वह सरकारी खपत पर नियंत्रण करे और निवेश बढ़ाए।

आयात कर बढ़ाया जाए

निवेश करने के लिए कर्ज लेना नुकसानदेह नहीं होता, क्योंकि उद्यमी कर्ज लेकर दुकान लगाता है। समस्या तब होती है जब कर्ज लेकर खपत की जाती है। इसलिए सरकार को इस समय दो काम करने चाहिए। एक, सरकारी खपत को फ्रीज कर देना चाहिए। सरकारी कर्मियों के वेतन भी फ्रीज कर देने चाहिए। दूसरा, निवेश करने के लिए विशेष प्रकोष्ठ बनाकर निवेश बढ़ाना चाहिए। तीसरे उपाय के तहत आयात कर बढ़ाया जाए।

चीन से आ रहे माल के सामने छोटे उद्योग टिक नहीं पा रहे

सरकार ने छोटे उद्योगों को कर्ज मुहैया कराने के लिए कई कदम उठाए हैं। जीएसटी में रिटर्न भरना भी सरल किया गया है। इन कदमों का स्वागत है, लेकिन सिर्फ इतने से ही बात नहीं बनेगी। छोटे उद्योगों की समस्या है कि चीन से आ रहे माल के सामने वे टिक नहीं पा रहे हैं। चीन में श्रमिकों को रखने और निकालने की छूट है जिससे श्रमिक कड़ी मेहनत करते हैं और भारतीय श्रमिक की तुलना में दो गुना उत्पादन करते हैं। इसलिए चीन का माल हमसे सस्ता पड़ता है। छोटे उद्योगों को बचाने के लिए जरूरी है कि चीन से आयात होने वाले सामान पर आयात कर बढ़ाया जाए जोकि मुख्य रूप से छोटे उद्योगों द्वारा बनाए जाते हैं। इससे छोटे उद्योगों को बड़ा सहारा मिलेगा। इनके द्वारा अधिक श्रमिकों को रोजगार दिया जाएगा और बाजार में मांग बढ़ेगी और मंदी टूट जाएगी।

छोटे उद्योगों को जीएसटी में छूट मिलनी चाहिए

चौथा उपाय यह हो सकता है कि छोटे उद्योगों को जीएसटी में छूट दी जाए। इन उद्योगों की एक समस्या यह है कि कंपाउंडिंग स्कीम में उनके द्वारा अपने इनपुट पर अदा किए गए जीएसटी का रिफंड नहीं मिलता है। इस कारण बड़े उद्योग के लिए यह लाभप्रद होता है कि वह दूसरे बड़े उद्योग से माल खरीदे न कि दूसरे छोटे उद्योग से। यदि एक बड़ा उद्योग दूसरे बड़े उद्योग से माल खरीदता है तो बेचने वाले बड़े उद्योग द्वारा अपने इनपुट पर दिए गए जीएसटी का सेटऑफ खरीदने वाले बड़े उद्योग को मिल जाता है, लेकिन यदि वही बड़ा उद्योग वही माल किसी छोटे उद्योग से खरीदता है तो बेचने वाले छोटे उद्योग द्वारा अपने इनपुट पर अदा किए गए जीएसटी का सेटऑफ खरीदने वाले बड़े उद्योग को नहीं मिलता है। इसलिए बड़े उद्योगों की प्रवृत्ति बनी है कि वे दूसरे बड़े उद्योगों से ही माल खरीदें। इस समस्या का उपाय है कि छोटे उद्योगों द्वारा इनपुट पर अदा किए गए जीएसटी का उन्हें नकद रिफंड दिया जाए। तब ही कंपोजीशन स्कीम के अंतर्गत उन्हें लाभ होगा।

सरकारी शिक्षा का निजीकरण

पांचवां उपाय सरकारी शिक्षा के निजीकरण के रूप में किया जा सकता है। सरकार ने उच्च शिक्षा एवं शोध संस्थाओं में ईमानदार व्यक्तियों को शीर्ष पदों पर नियुक्त किया है। यह स्वागतयोग्य है, लेकिन इन संस्थाओं में सामान्य अध्यापक अथवा वैज्ञानिक की प्रवृत्ति में इससे तनिक भी अंतर नहीं आया है। सामान्य अध्यापकों को वेतन मिलना सुनिश्चित है, भले ही वे पढ़ाएं या न पढ़ाएं। यहां कोचिंग का सहारा है। यह व्यवस्था केवल शीर्ष पर ईमानदार व्यक्तियों की नियुक्ति से ही नहीं सुधरेगी। इसके लिए जरूरी है कि सरकार समूचे सरकारी शिक्षातंत्र का निजीकरण कर दे और अर्जित रकम तथा हर वर्ष व्यय होने वाली रकम से देश के सभी युवाओं को मुफ्त वाउचर बांटे जिससे वे अपने मनचाही शैक्षणिक संस्था में प्रवेश ले सकें। तभी संस्थानों में होड़ शुरू होगी कि अधिक से अधिक वाउचर इकट्ठा करें। इससे कॉलेजों का स्तर सुधरेगा।

शिक्षित युवा मंदी को मात दे सकते हैं

इस कदम का विशेष प्रभाव सेवा क्षेत्र पर पड़ेगा। आने वाले समय में मैन्यूफैक्चरिंग में रोजगार कम बनेंगे और सेवा क्षेत्र में ज्यादा अवसर बढ़ेंगे। यदि हमारी उच्च शिक्षा व्यवस्था सुचारू रूप से चलने लगे तो हमारे युवा ऑनलाइन ट्यूशन, अनुवाद, स्वास्थ्य पर्यटन इत्यादि तमाम क्षेत्रों में विश्व को सेवा प्रदान कर सकेंगे और मंदी को मात दी जा सकेगी। यदि उपरोक्त कदमों को लागू कर दिया जाए तो महज एक साल में हमारी आर्थिक विकास दर दस प्रतिशत के आसपास पहुंच सकती है।

( लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं आइआइएम बेंगलूर के पूर्व प्रोफेसर हैं )