[ जगमोहन सिंह राजपूत ]: एक दिन बाद हम आजादी की वर्षगांठ मनाएंगे। इस अवसर पर स्वत्रंतता दिलाने वाले सेनानियों का स्मरण भी स्वाभाविक रूप से किया जाएगा। यह भी एक संयोग है कि इस वर्ष दो अक्टूबर को आजादी के सबसे बड़े नायक माने जाने वाले महात्मा गांधी के जन्म के 150 वर्ष पूरे होंगे। इस उपलक्ष्य में अनेक संस्थाओं ने गांधी के समय के मूल्यों, स्वतंत्रता के बाद के भारत की संकल्पनाओं के साकार होने की स्थिति तथा देश में जनतंत्र के स्वरूप पर विचार-विमर्श आयोजित किए। स्वच्छता पर विशेष ध्यान दिया गया। 15 अगस्त, 2014 को लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गांधी जी के जन्म के 150 वर्ष पूरे होने पर देश की ओर से उन्हें स्वच्छ भारत की सौगात देने का संकल्प लिया था। पहले तो सुनकर लोगों को अचंभा हुआ, मगर धीरे-धीरे स्वच्छता के महत्व को समझा गया।

पूरा देश खुले में शौच से मुक्त

बड़े उत्साह से शौचालयों के निर्माण का कार्य सारे देश में हुआ। आज 27 राज्य/केंद्र शासित प्रदेश खुले में शौच से मुक्त हैं और 98.6 प्रतिशत परिवारों को शौचालय उपलब्ध हैं। स्वच्छता महात्मा गांधी को अत्यंत प्रिय थी। वह इस सौगात से प्रसन्न अवश्य होते, लेकिन अभी इस पर बहुत कुछ करना शेष है। कुछ दिन पहले ओडिशा के ग्रामीण स्कूलों पर शोध करने वाले एक अध्येता ने पाया कि बड़ी संख्या में गांव में शौचालय बने हैं, मगर उपयोग में बहुत कम आ रहे हैं। सरकारी स्कूलों में भी ऐसी ही स्थिति है।

मोदी का प्रभाव पहुंचा प्रशासन के अंतिम छोर तक

नरेंद्र मोदी की कर्मठता और जीवन शैली का प्रभाव प्रशासन के अंतिम छोर तक तो पहुंचा है और उसके परिणामस्वरूप शौचालय केवल कागजों पर नहीं बने हैं, मगर उनके निर्माण में जो गुणवत्ता-स्तर अपेक्षित था, उसमें कमी रही होगी। अब लोग सरकारी धन के अपव्यय को देखकर शिकायत नहीं करते। उसे सामान्य मान चुके हैैं। यह चिंता का विषय है। महात्मा गांधी के जीवनकाल में ही उनके आदर्श देश भर में पहुंच चुके थे। उस समय यदि ऐसे किसी कार्य में थोड़ा भी क्षरण होता तो लोग सशक्त विरोध करते। यदि वे जीवन मूल्य तिरोहित न हो गए होते तो संभवत: स्वच्छ भारत की संकल्पना इन वर्षों में सही स्वरूप ले चुकी होती, जिस पर समूचा विश्व आश्चर्य करता।

स्वच्छ भारत मिशन

स्वच्छता आवश्यक है, मगर और भी बहुत कुछ फिर से पाना है। आज भी देश में तमाम लोग राष्ट्र के कार्य में इस आशा के साथ जुटे हुए हैं कि यह देश महात्मा गांधी के मूल्यों से स्वयं को कभी अलग नहीं कर पाएगा। नरेंद्र मोदी की स्वच्छता-सोच उसी का एक उदाहरण है। महात्मा गांधी के विचारों को अपनाने वाले लोग भी हर क्षेत्र में कार्यरत हैं। इनकी संख्या कैसे बढे़, उनका विश्वास कैसे बढे़ और इनकी ओर अधिकाधिक लोग कैसे आकर्षित हों, इस पर भी आज चर्चा होनी चाहिए।

राजनीतिक दबाव में नैतिक मूल्यों से नहीं हटे

भारतीय प्रशासनिक सेवा के नामचीन अधिकारी रहे महेश नीलकंठ बुच का प्रकाशित संकलन वर्तमान स्थिति तक पहुंचने के कारणों का एक अत्यंत सूक्ष्म विश्लेषण प्रस्तुत करता है। साथ ही साथ उन संभावनाओं को भी चिन्हित करता है जो राष्ट्र-निर्माण के लिए आवश्यक मूल्यों को पुन: जागृत कर सकती हैं, जिनके आधार पर देश स्वतंत्र हो पाया था। अपनी कर्मठता, लगनशीलता तथा सिद्धांतपरकता के लिए सदा सराहे गए ‘एमएन बुच’ ने आठ साल पहले ही सेवानिवृत्ति ले ली थी, क्योंकि वह राजनीतिक दबाव में अपने नैतिक मूल्यों से हटने को तैयार नहीं थे! दिल्ली विकास प्राधिकरण के प्रमुख पद पर रहते हुए 1978 में उन्होंने पाया कि 92 प्रतिशत आवंटन विवेकाधीन/तरजीही कोटे में आते हैं। इसमें सामान्य व्यक्ति के लिए केवल आठ प्रतिशत बचता है। तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई से मिलकर वह इसमें संशोधन कराने में सफल हुए। जैसा अपेक्षित था, व्यवस्था में लोग नाखुश हुए। उन्हें इसका अंजाम भी भुगतना पड़ा!

गांधीजी के समय के मूल्य तिरोहित हो चुके

बुच के लेखों में कुछ ऐसे प्रकरणों की चर्चा है जो आज भी लोगों के अंतर्मन को झकझोर सकने की क्षमता रखते हैं। ये स्पष्ट करते हैं कि महात्मा गांधी के समय के मूल्य किस अनुपात में तिरोहित हो चुके हैैं और इसके दुष्परिणाम सामान्य व्यक्ति पर कैसे पड़ रहे हैं।

दादा जी ने टिकट स्वीकार नहीं किया

केंद्र सरकार में मंत्री तथा असम के राज्यपाल रहे स्वतंत्रता सेनानी श्री प्रकाश महात्मा गांधी के सानिध्य में रहे, देश के हर बड़े नेता के साथ उन्होंने कार्य किया। सेवानिवृत्ति के बाद एक दिन उनकी पोती ने उन्हें उदास देखकर कारण पूछा। उन्हें बंबई से मद्रास जाना था, मगर रेल का टिकट उपलब्ध नहीं था। उनकी पोती ने उन्हें टिकट लाकर दिया! दादा जी के पूछने पर उसने बताया कि किसी एजेंट को पचास रुपये अलग से दिए थे, काम हो गया! दादा जी ने टिकट स्वीकार नहीं किया, उन्होंने कहा कि वह गांधी के देश में पैदा हुए हैं, वे ऐसे टिकट पर यात्रा कैसे कर सकते हैं?

मेरे गांधी थे मोहनदास करमचंद गांधी और तुम्हारी गांधी हैं इंदिरा गांधी

उनकी पोती नें कहा कि मैं भी गांधी के देश में ही पैदा हुई हूं! इस पर जो उत्तर उसे मिला वह किसी केभी सामने पूरा परिदृश्य खोल कर रख देता है: ‘बेटी, मेरे गांधी थे मोहनदास करमचंद गांधी और तुम्हारी गांधी हैं इंदिरा गांधी!’ महेश बुच ने 1967 के बाद आए परिवर्तन का बड़ा ही सटीक वर्णन अन्य कई प्रकरणों में भी किया है। मंत्री के स्तर पर मानवीय संवेदनाओं से युक्त कर्तव्यनिष्ठ आचरण की एक घटना अत्यंत मर्मस्पर्शी है।

काका साहेब ने अधिकारी के घर जाकर क्षमा मांगी

काका साहेब गाडगील पंडित नेहरू की सरकार में मंत्री थे। वह महात्मा गांधी, नेहरू, पटेल जैसे नेताओं के निकट सहयोगी रहे थे। एक बार बंबई दौरे पर उन्होंने सीपीडब्ल्यूडी के कुछ कार्यों का निरीक्षण किया। उस विभाग के मुख्य अधिकारी नें उन्हें अपने घर पर भोजन के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने अपने सचिव से कहा कि चांदी की थालियों में भोजन परोसा गया था। इस अधिकारी के आचरण और ईमानदारी की जांच की जाए! उनके सजग सहयोगी ने बताया कि वे थालियां तो एक अतिथि गृह से मंगाई गई थीं, और ऐसा उन पर मुद्रित था। काका साहेब को लगा कि उन्होंने गलत अनुमान के आधार पर उस अधिकारी के बारे में धारण बनाई। इस गलती के प्रायश्चित के लिए काका साहेब ने उसी समय उस अधिकारी के घर जाकर उनसे क्षमा मांगी।

कहां से चले थे, कहां तक पहुंच गए

आज राजनीति के पटल पर महत्वपूर्ण माने जाने वाले कुछ नामों की चर्चा अवश्य होती है कि कहां से चले थे, कहां तक पहुंच गए! जाहिर है महात्मा गांधी को भुलाने से ही अपरिग्रह की संस्कृति संग्रह की धारा बन गई है! साफ है कि महात्मा गांधी को भुलाकर पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति को उसके अधिकार नहीं मिल पाएंगे। भारत में गांधी जी के द्वारा अपनाए गए शाश्वत मूल्यों की पुनर्स्थापना ही विकल्प है।

( लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैैं )

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