Analysis: उपचुनाव को आम चुनाव की बानगी नहीं समझा जाना चाहिए क्योंकि...
उपचुनाव किसी बड़े मसले पर नहीं होते, जबकि लोस चुनाव में देश का भविष्य, सरकार की नीतियां, अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य व नेतृत्व आदि से जुड़े मुद्दे बहुत अहम भूमिका निभाते हैं।
डॉ.एके वर्मा (नई दिल्ली)। हाल में 11 राज्यों में चार लोकसभा और दस विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजों ने एक बार फिर भाजपा के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं। विपक्षी दल उपचुनाव नतीजों को लेकर बेहद उत्साहित हैं। ऐसा लग रहा है जैसे उपचुनाव परिणामों को वे लोकसभा में अपनी विजय और भाजपा की पराजय के संकेतक मान बैठें हैं, लेकिन अभी दिल्ली दूर है। लोकतंत्र में दलों की हार-जीत और सरकारों का आना-जाना लगा रहता है और यह उसकी मजबूती का संकेतक होता है। देश की जनता का निर्णय लोकतंत्र की बेहतरी के लिए होता है। राजनीतिक दलों का काम होता है जनता का विश्वास जीतना। ब्रिटिश दार्शनिक माइकल ओकशॉट के अनुसार ‘राजनीति और सामाजिक जीवन को बहुत ज्यादा तर्क और बौद्धिकता पर आश्रित नहीं बनाना चाहिए, क्योंकि वे नियत वैयक्तिक बौद्धिकता पर आधारित होते हैं, हालांकि राजनीतिक-विमर्श चलते रहना चाहिए।’ चुनाव एक प्रकार से लगातार चलने वाला राजनीतिक विमर्श हैं जिनमें जनता परिस्थिति अनुसार अपना दृष्टिकोण बदलती रहती है। इन दिनों लोक विमर्श का पहला बिंदु यह है कि क्या चार लोकसभा और दस विधानसभा सीटों के उपचुनाव नतीजों को भावी लोकसभा चुनावों के संभावित परिणामों से जोड़ा जा सकता है? आंकड़े इस संबंध में कोई स्पष्ट दिशानिर्देश नहीं देते। चूंकि हाल के उपचुनाव देश के लगभग एक तिहाई राज्यों में हुए और ज्यादातर सीटें गैर-भाजपा दलों के पास गईं, इसलिए विपक्षी दलों और मीडिया के एक हिस्से ने उसे ऐसे प्रस्तुत किया जैसे ये नतीजे 2019 लोकसभा चुनाव परिणामों की बानगी पेश कर रहे हों। उपचुनावों का चरित्र स्थानिक होता है और उसे पूरे राज्य या देश के मूड की बानगी नहीं कहा जा सकता। उपचुनावों में विरोधी दलों का एकजुट होना भी स्वाभाविक है, क्योंकि उन्हें सत्तापक्ष को हराना होता है, जिसका सरकार की सेहत पर सामान्यत: कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उपचुनाव किसी बड़े मुद्दे पर नहीं होते, जबकि लोकसभा चुनाव में देश का भविष्य, सरकार की नीतियां, अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य और नेतृत्व आदि से जुड़े मुद्दे अहम भूमिका निभाते हैं। अभी अनुमान लगाना कठिन है कि क्या जनता लोकसभा चुनावों में इन सब मुद्दों की उपेक्षा करके गैर-भाजपावाद के प्रतीक मगठबंधन को वोट देगी?
विपक्ष द्वारा मगठबंधन का प्रयोग बुरा नहीं। इससे भारतीय लोकतंत्र मजबूत होगा। एक तो इससे सशक्त विपक्ष उभरेगा। दूसरे, भाजपा को दलीय संगठन की मजबूती, सरकारी नीतियों के प्रभावी क्रियान्वयन और जनता से संपर्क, संवाद एवं समस्या समाधान की अपनी गवरेक्ति का सूक्ष्म निरीक्षण-परीक्षण करने का अवसर मिलेगा। ऐसा होने पर दलीय स्पर्धा का स्वरूप बदल जाएगा। अभी तक राष्ट्रीय राजनीतिक स्पर्धा में राजग और संप्रग दो ध्रुवों के रूप में प्रतिस्पर्द्धी थे, लेकिन गैर भाजपावाद के चलते कांग्रेस को संप्रग में अपने वर्चस्व का परित्याग कर मगठबंधन में एक घटक मात्र की भूमिका स्वीकार करनी होगी। इससे न केवल कांग्रेस का राष्ट्रीय राजनीति में महत्व घटेगा वरन राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने की संभावनाएं भी धूमिल हो जाएंगी, क्योंकि मगठबंधन में मुलायम सिंह यादव, मायावती, ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू आदि प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा रखते हैं। सवाल है कि क्या जनता को इन नेताओं को प्रधानमंत्री बनाने और नरेंद्र मोदी को हटाने में कोई दिलचस्पी होगी?
वैसे मगठबंधन से चुनाव जीता जा सकता है, क्योंकि लोकतंत्र तो संख्याबल से चलता है, न कि जनता की पसंद से, जैसा हमने अभी कर्नाटक में देखा, लेकिन प्रश्न यह है कि क्या 70 वर्षों के बाद भी देश में लोकतंत्र का मतलब केवल सत्ता प्राप्त करना ही है या सुशासन भी? कांग्रेस भाजपा पर संवैधानिक संस्थाओं को नष्ट करने का आरोप लगा रही है, लेकिन सत्ता में रहने पर कांग्रेस ने उन्हें नष्ट करने में कोई कसर छोड़ी क्या? 1982 में कांग्रेस ने उन्हीं ज्ञानी जैल सिंह को राष्ट्रपति बनाया जिन्होंने कहा था कि इंदिरा गांधी कहेंगी तो मुझे झाड़ू लगाने में भी खुशी होगी, जिसने शुरू से ही राज्यपालों को कांग्रेसी दरबारी बना दिया, जिसने 1959 में केरल में कम्युनिस्ट सरकार को अकारण भंग करा दिया, जिसने 1973 में सर्वोच्च न्यायालय में केशवानंद भारती मुकदमे में अपने खिलाफ निर्णय आने पर तीन वरिष्ठतम न्यायाधीशों को दरकिनार कर कनिष्ठ न्यायमूर्ति एएन रे को प्रधान न्यायाधीश बना दिया, जिसने 1975 में आपातकाल में प्रेस का मुंह बंद कर दिया और सभी विपक्षी नेताओं को जेल में ठूंस दिया और जिसके उपाध्यक्ष ने 2013 में अपने ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अध्यादेश को फाड़ दिया! क्या ऐसे काम कर चुकी कांग्रेस को किसी और पर संवैधानिक संस्थाएं नष्ट करने का आरोप लगाने का नैतिक अधिकार भी है?
आगे राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में चुनाव होने हैं। अभी उनके परिणाम को लेकर पूर्वानुमान जल्दबाजी होगी, लेकिन यह ध्यान रहे कि किसी दल के बार-बार सत्ता में आने से न केवल जनता ऊब-सी जाती है, वरन सरकार में भी विचारों और ऊर्जा का प्रवाह कुछ कम हो जाता है। लोकतंत्र में सत्ता परिवर्तन होते रहना चाहिए। इससे लोकतंत्र और परिपक्व होता है। भाजपा को राज्यों में सत्ता परिवर्तन हेतु तैयार रहने के साथ ही यह भी देखना चाहिए कि उससे चूक कहां हो रही है? 2014 चुनावों में पार्टी ने अपने जनाधार में आमूल-चूल परिवर्तन किया था। आज सवाल यह है कि क्या बीते चार वर्षों में वह उसे बचा पाई है?
भाजपा को यह भी देखना होगा कि वह भितरघात से तो दो-चार नहीं, क्योंकि पार्टी के भ्रष्ट नेताओं-कार्यकर्ताओं को भ्रष्टाचार का अवसर नहीं मिल पा रहा है। मगठबंधन ब्रिगेड में ऐसे तत्व ज्यादा हैं जो भ्रष्टाचार फैलाने में कुख्यात रहे हैं। बहुत से नेता, नौकरशाह और व्यापारी इस प्रवृत्ति पर लगाम लगने से चिंतित होंगे और शायद इसके लिए प्रयासरत हों कि पुराने दिन कैसे लौटें? मोदी सरकार को यह भी जांचना चाहिए कि जिन योजनाओं को वह अपना ट्रंप-कार्ड मान रही है वे जमीन पर क्या गुल खिला रहीं हैं? जब राज्यों में राजग सरकारों की संख्या बढ़ती जा रही है तो फिर योजनाओं का लाभ जनता को जमीन पर क्यों नहीं मिल रहा? इन सवालों के साथ यह भी ध्यान रहे कि केवल मोदी सरकार की कमियों के आधार पर विपक्ष चुनाव जीतने की उम्मीद नहीं कर सकता। विपक्ष को भी यह आकलन करना होगा कि लोग उसकी नकारात्मक राजनीति में कितनी दिलचस्पी ले रहे हैं और प्रधानमंत्री मोदी के सामने राहुल का चेहरा कैसा लगता है? क्या मोदी सरकार द्वारा शुरू किए गए सुधारों को जनता प्रतिगामी मानती है और विपक्षी दलों से कोई बेहतर उम्मीद रखती है? क्या विपक्ष किसी भी क्षेत्र में कोई भी बेहतर वैकल्पिक नीतियां सुझा सका है? लोकसभा चुनाव अभी दूर हैं, लेकिन उपचुनाव नतीजों ने राजनीतिक माहौल गर्मा दिया है। इसके बावजूद तस्वीर तब कुछ और साफ होगी जब राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि विधानसभाओं के चुनाव नतीजे सामने आएंगे।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फॅार द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैं)