नई दिल्ली, एनके सिंह। गोकशी की अफवाह के चलते हिंदू संगठनों की अराजक भीड़ ने बुलंदशहर में एक पुलिस इंस्पेक्टर की जिस तरह हत्या कर दी उसने कानून एवं व्यवस्था के समक्ष एक गंभीर सवाल खड़ा करने के साथ ही गाय के नाम पर होने वाली हिंसा को भी नए सिरे से सतह पर ला दिया है। बुलंदशहर की घटना में भीड़ में शामिल एक युवक की भी जान गई और कई पुलिसकर्मी जख्मी हुए। ऐसी ही भीड़ ने कुछ अरसा पहले दिल्ली से सटे गौतमबुद्धनगर के बिसाहड़ा गांव में गोहत्या के शक में अखलाक को मार दिया था। ऐसी घटनाएं देश के अन्य हिस्सों में भी हुई हैं। आखिर पश्चिमी उत्तर प्रदेश और साथ ही देश के अन्य भागों में ऐसी घटनाएं क्यों हो रही हैं? इस सवाल पर विचार करते समय यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि अगर गाय या गोवंश कटेगा तो एक समुदाय जो उसे पवित्र मानता है और आदर की दृष्टि से देखता है वह भड़केगा। फिलहाल यह ठीक-ठीक कहना कठिन है कि बुलंदशहर में भयावह हिंसा किन कारणों से भड़की और वह किसी साजिश का हिस्सा थी या नहीं, लेकिन सच्चाई जो भी हो, कानून के शासन का इकबाल बनाए रखने के लिए यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है कि इंस्पेक्टर की हत्या के दोषी लोगों को जल्द से कठोर सजा देना सुनिश्चित किया जाए।

गाय को अगर एक वर्ग माता मानता है तो अन्य वर्गों को उनकी भावनाओं का सम्मान करना होगा। ऐसा नहीं होगा तो शांति-सद्भाव का माहौल बनना मुश्किल होगा। इसकी विवेचना की जरूरत है कि आखिर गोवध निषेध होने पर भी गोवंश कटने के मामले सामने क्यों आते रहते हैं? ध्यान रहे कि गोरक्षक इसलिए भी उभर आए हैं, क्योंकि गोवध निषेध होते हुए भी गोवंश काटे जाते हैं और गायों की तस्करी होती है। कायदे से तो गोरक्षकों की जरूरत ही नहीं है, लेकिन अगर वे हैं तो इसीलिए कि गोवंश वहां भी काटे जा रहे हैं जहां गोवध निषेध है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गोवंश काटे जाने के मामले लगातार सामने आ रहे हैं। बुलंदशहर की दिल दहलाने वाली घटना के बाद भी ऐसा ही एक मामला सामने आया है। हालांकि यह कुतर्क लगेगा कि अगर गोकशी रोकने में पुलिस नाकाम है तो यह काम गौ रक्षक करना शुरू करें और त्वरित न्याय करते हुए गोहत्या से जुड़े लोगों को जान से मार भी दें। अगर मुद्दे गहरी भावना से जुड़े हैं और दशकों तक सत्ता में बैठे लोग और सरकारी एजेंसियां वोट बैंक के लालच में इस पर उदासीनता दिखाएं तो इससे आहत वर्ग की प्रतिक्रिया बहुत तीखी होती है। इसका पूर्ण निदान तो तब होगा जब दूध न देनी वाली गायों और बूढ़े हो गए उनके वंशजों को चारा-पानी देने की व्यवस्था राजकोष से हो अथवा समाजसेवी संस्थाओं द्वारा खासकर उन संस्थाओं द्वारा जिनके लोग भीड़ न्याय में लगे हैं।

वर्ष 1950 में भारत में संविधान को अंगीकार किया गया। इसमें राज्य की भूमिका हर धर्म के प्रति समभाव की है, लेकिन वैमनस्य के जो प्राचीन प्रतीक हैं उन्हें हटाने में संविधान प्रदत्त ‘प्रत्येक नागरिक को धर्म पालन की स्वतंत्रता’ आड़े आती है। मान लीजिए कि कोई धर्म पालन उन्हीं प्रतीकों को लेकर है जो किसी बाबर या किसी औरंगजेब ने पैदा किए तो क्या उनसे दूरी बनाने की जिम्मेदारी उस धर्म के अनुयायी समूह की नहीं है जो एक तरफ तो संवैधानिक अधिकारों की दुहाई देता है, लेकिन दूसरी ओर उन प्रतीकों से जुड़ा भी रहना चाहता है जो संविधान पूर्व सैकड़ों साल पहले के किसी शासक द्वारा किए गए अत्याचार की उत्पत्ति रहे? लिहाजा अगर किसी बाबर ने तलवार के बल पर किसी संप्रदाय के सबसे मकबूल आराध्यदेव की जन्मस्थली पर कब्जा किया तो प्रत्येक नागरिक को स्वत: उनके समर्थन में आगे आना चाहिए जिनके साथ गलत हुआ। अगर यह दलील दी जाए कि सब कुछ संविधान के अनुसार हो तो फिर उसे उन प्रतीकों को भी नहीं अपनाना चाहिए जो संविधान पूर्व किसी क्रूर बादशाह की मानसिकता की उपज हैं।

बाबरनामा में बाबर ने खुद को मिली ‘गाजी’ की पदवी पर खुशी व्यक्त करते हुए लिखा, ‘इस्लाम की खातिर मैं जंगलों में गया, जिहाद के लिए तैयारी की ताकि मूर्तिपूजकों से लड़ा जा सके। अल्लाह का शुक्र है कि मैं गाजी बन गया।’ जाहिर है आज हिंदुस्तान का मुसलमान खुद को इससे नहीं जोड़ना चाहेगा। बाबर के समय संविधान नहीं था। विजयी राजा की मर्जी ही संविधान होती थी। शासन तर्क से नहीं तलवार से चलता था। पूरे बाबरनामा में भारत में किए गए हर युद्ध को वह जिहाद के नाम पर सैनिकों को लामबंद करता था और यहां तक कि लूट में भी उन्हें इसी नाम पर हिस्सा देता था। आज यह सब स्वीकार्य नहीं हो सकता।

हिंदू गाय के प्रति सदियों से आदर रखते चले आ रहे हैं। कुछ तो उसे माता समान मानते हैं। चूंकि देश में गोरक्षा की परंपरा हजारों साल से चली आ रही है इसलिए जब भारत का संविधान और उसमें राज्य के नीति निर्देशक तत्व जुड़े तो उनमें कहा गया कि सरकार को गोरक्षा और गोहत्या रोकने के लिए कदम उठाने चाहिए। यह भी ध्यान रखें कि 1857 में बहादुर शाह जफर को दिल्ली की गद्दी पर बिठाया गया तो उनका एक अहम फैसला गोहत्या पर प्रतिबंध का था। उस वक्त उसका पालन हुआ, लेकिन अफसोस है कि आज नहीं हो पा रहा है। क्या यह उचित नहीं होगा कि मुस्लिम समुदाय गाय के प्रति हिंदुओं की भावना की वैसी इज्जत करे जैसी वह अपने धर्म प्रतीकों के लिए अपेक्षा रखता है।

जिस पश्चिमी उत्तर प्रदेश या ऐसी अन्य जगहों पर जहां दोनों समुदायों की आबादी लगभग बराबर है वहां गोहत्या और उससे उपजने वाली तनाव की समस्या ज्यादा उभर रही है। मेरठ, मुजफ्फरनगर, अलीगढ़, बदायूं, बुलंदशहर और मुरादाबाद सरीखे तमाम जिलों समेत देश में तमाम इलाके एक तरह से बारूद के ढेर पर बैठे हैं। संविधान पूर्व की भावना और प्रतीकों से जुड़े मसलों पर जब तक दोनों समुदाय वैमनस्यता छोड़कर स्वयं आगे नहीं आते, संविधान या सुप्रीम कोर्ट इन समस्याओं का सर्वमान्य समाधान नहीं ढूंढ पाएगा। अगर मुद्दा एक वर्ग के आराध्य देव बनाम एक पुरानी मस्जिद का है या अगर एक जीव हजार साल से एक वर्ग का पूज्य है तो दूसरे वर्ग को उसे अहमियत देनी होगी, वरना ऐसी घटनाएं आने वाले दिनों में भी होती रह सकती हैं।

अगर गोवंश चोरी छिपे काटे न जाएं और उनकी तस्करी न हो तो फिर किसी गोरक्षक की जरूरत क्यों पड़े? इस प्रश्न पर विचार करने के साथ ही बुलंदशहर की घटना के संदर्भ में एक अन्य पक्ष पर भी गौर करने की जरूरत है। राज्य और उसकी एजेंसियों की संवैधानिक व्यवस्था में एक निश्चित भूमिका होती है। इसका पालन न होने से अराजकता का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। अगर राज्य की पुलिस धार्मिक आयोजनों में किसी धर्म विशेष के लोगों पर पुष्पवर्षा करेगी तो जाहिर है उन लोगों का हौसला बढ़ेगा ही और वे अपनी सहूलियत के हिसाब से पुलिस को ही निशाना बना सकते हैं। ऐसे में अगर हिंदू श्रद्धालुओं पर पुष्प वर्षा हो सकती है तो देश के कोने-कोने से आए लाखों मुसलमान जायरीनों के प्रति भी यही भाव रखना होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)