राहुल वर्मा: राजनीति को अगर संतुलन साधने की कला कहा जाता है तो बजट को इस कला के महत्वपूर्ण उपकरण की संज्ञा दी जा सकती है। प्रत्येक सरकार अपने वित्तीय संसाधनों के माध्यम से बजट के जरिये राजनीतिक बढ़त बनाने का प्रयास करती है। बजट से आर्थिकी की दशा-दिशा के साथ राजनीतिक समीकरणों का भी संकेत मिलता है। परिस्थितियों के हिसाब से यही उम्मीद की जा रही थी कि इस बार का बजट बेहद लोकलुभावन रहता। इस साल कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं और अगले आम चुनाव में भी कुछ ही समय शेष रह गया है तो ऐसी अपेक्षाएं बेमानी भी नहीं थीं।

मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का अंतिम पूर्ण बजट होने के नाते भी ऐसी उम्मीदें खासी परवान चढ़ी हुई थीं। इसके बावजूद यदि बजट का समग्रता में आकलन करें तो यह लोकलुभावन न होते हुए भी सत्तारूढ़ दल के लक्षित मतदाताओं को साधने वाला एक संतुलित बजट है। इसने कुछ राजनीतिक पंडितों को जरूर हैरान किया होगा, लेकिन सरकार अपने रुख को लेकर आश्वस्त दिखती है।

इस आश्वस्ति के मुख्य रूप से दो कारण हैं। सरकार को लगता है कि देश की मैक्रो इकोनमिक यानी मूलभूत आर्थिक स्थिति स्थायित्वपूर्ण है और उसमें लोकलुभावन वादों या योजनाओं के कारण कुछ फिसलन आ सकती है, जो अर्थव्यवस्था के लिए उचित नहीं होगी। इस सरकार को यह आत्मविश्वास वैश्विक अस्थिरता के दौर में भारत के अपेक्षाकृत स्थिर रहने के कारण मिला है। मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में कम से कम तीन बड़े वैश्विक झटकों का बखूबी सामना किया। सबसे पहले तो वह कोविड महामारी जिसने पूरी दुनिया के समीकरण बिगाड़ दिए। उससे समूची अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पटरी से उतर गई। भारत भी उससे अछूता नहीं रहा। रूस-यूक्रेन युद्ध ने वैश्विक आपूर्ति के तानेबाने को बिगाड़ दिया और पूरी दुनिया महंगाई की मार से त्रस्त हो गई। इसके साथ ही पश्चिमी केंद्रीय बैंकों ने ब्याज दरें बढ़ाने का जो सिलसिला शुरू किया, उसने महंगाई और आर्थिक सुस्ती यानी अपस्फीति की स्थिति बना दी।

आज दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं पर मंदी का संकट मंडरा रहा है, लेकिन भारत फिर भी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तेज गति से वृद्धि करने वाले देश बना हुआ है। सरकार की आश्वस्ति का दूसरा कारण यही है कि इन सबके बावजूद उसे कोई तगड़ा राजनीतिक झटका नहीं लगा है। साथ ही लोकलुभावन नीतियों से परहेज करने की एक वजह प्रधानमंत्री मोदी की उस बहस से भी जुड़ी है, जिसे उन्होंने पिछले वर्ष आरंभ किया था। यह बहस जुड़ी है रेवड़ी संस्कृति को बढ़ावा देने वाले चुनावी वादों से। यदि सरकार बजट में भी ऐसी योजनाओं को आगे बढ़ाती तो प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा को भी कुछ रक्षात्मक रुख अपनाना पड़ता और उनकी सियासी दुविधा बढ़ जाती।

हालांकि, ऐसा नहीं है कि बजट में भाजपा ने अपने मतदाताओं की पूरी तरह अनदेखी की है। सरकार ने संसाधनों की सीमाओं का ध्यान रखते हुए अपने लक्षित मतदाताओं को कुछ न कुछ प्रदान कर एक राजनीतिक संदेश भी दिया है। पूंजीगत व्यय में भारी बढ़ोतरी को इस बजट के मुख्य बिंदु के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। नि:संदेह सरकार का दावा है कि इससे बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर सृजित होंगे। पूंजीगत व्यय से निर्माण कार्यों में बढ़ोतरी से न केवल कुशल, बल्कि अकुशल कर्मियों को भी रोजगार के मौके मिलेंगे। अकुशल कर्मियों में एक बड़ा हिस्सा गरीबों का है तो यकीनन इससे संबंधित क्रियाकलापों से उन्हें लाभ पहुंचने की उम्मीद है। इसी प्रकार किफायती आवास योजना के लिए बजटीय आवंटन में भारी बढ़ोतरी की गई है।

शिल्पकारों के लिए ‘विश्वकर्मा योजना’ को बाजी पलटने वाली योजना के रूप में देखा जा रहा है, क्योंकि इससे पारंपरिक कला-कौशल वाले कर्मियों को अपने पेशे को लाभदायक बनाने में सहायता मिल सकती है। आदिवासी वर्ग के लिए भी योजनाएं घोषित की गई हैं। इसका असर अभी हो रहे पूर्वोत्तर राज्यों के चुनाव के अतिरिक्त राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में भी दिख सकता है। इन सारे राज्यों में जनजातीय जनसंख्या काफी बड़ी है। देश की जेलों में एक बड़ी संख्या गरीब तबके के उन कैदियों की है, जो कानूनी प्रक्रिया का खर्च उठाने या आर्थिक हर्जाने की राशि चुकाने में अक्षम हैं तो उनके लिए सरकार की ओर से मिलने वाली वित्तीय सहायता के राजनीतिक प्रभाव को भी कमतर करके नहीं आंका जा सकता।

मध्य वर्ग, शहरी और उद्यमी समुदाय को भाजपा के पारंपरिक मतदाताओं के रूप में देखा जाता है, लेकिन पिछले कुछ समय से ऐसी बातें हो रही थीं कि भाजपा के राजनीतिक दर्शन में ये वर्ग उपेक्षित होते जा रहे हैं। इस बजट में पार्टी ने इन आरोपों से मुक्ति पाने का पूरा प्रयास किया है। बढ़ती महंगाई और आर्थिक दबावों से परेशान मध्य वर्ग को आयकर के मोर्चे पर राहत की जो उम्मीद थी, उसे सरकार ने पूरा किया है। अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहे जाने वाले छोटे उद्यमों के लिए नई क्रेडिट गारंटी स्कीम भी राहत देने वाली होगी। चीनी-सहकारी क्षेत्र को मिलने वाली 10,000 करोड़ रुपये की राहत का असर भी दिख सकता है। किसानों के लिए भी क्रेडिट गारंटी योजना और कृषि में नई तकनीक के समावेश के साथ ही कृषि आधारित स्टार्टअप संस्कृति विकास के जरिये भी सरकार ने कृषक समुदाय को एक संदेश देने का प्रयास किया है।

इस बजट के माध्यम से सरकार ने अपने आर्थिक तरकश का आखिरी तीर तो चला दिया है और अब यह वक्त ही बताएगा कि यह तीर सही निशाने पर लगा है या नहीं। यदि इस साल हो रहे विधानसभा चुनावों में भाजपा को झटका लगा तो संभव है कि अगली फरवरी में सरकार अंतरिम बजट के माध्यम से एक ‘चुनावी दांव’ चले, जैसा कि उसने 2019 के अंतरिम बजट में किया था। तब तक इस बजट को सत्ता पक्ष भविष्योन्मुखी तो विपक्ष देश को पीछे ले जाने वाला करार देता रहेगा। हालांकि, बजट को किसी तात्कालिक राजनीति से प्रेरित होने के बजाय नीतियों में निरंतरता का एक दस्तावेज मानते हुए समग्रता में देखना कहीं ज्यादा सार्थक है।

(लेखक सेंटर फार पालिसी रिसर्च में फेलो हैं)