डॉ. नित्यानंद श्रीवास्तव। बीते दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने एक भाषण में इस बात का जिक्र किया था कि भारत ने दुनिया को बुद्ध दिए हैं और दुनिया ने युद्ध। वर्तमान में चीन सीमा पर जारी तनाव के हालात और दुनिया के अनेक देशों के बीच तनातनी की स्थिति को देखते हुए यह कथन पूरी तरह से यथोचित जान पड़ता है। इतिहास गवाह है कि भारत ने कभी अपनी ओर से किसी भी देश पर युद्ध थोपने की कोशिश नहीं की है, जबकि ऐसे अनेक ऐतिहासिक उदाहरण हमारे सामने हैं, जब हमने बुद्ध के संदेश को आत्मसात करने के साथ उसे दुनिया भर में प्रसारित करने का प्रयास भी किया है।

इस बीच नवबौद्धों ने इस मर्म को समझे बिना लगातार भारतीय सनातन संस्कृति को चोट पहुंचाने की कोशिश की है, पर वे इस बात को भूल जाते हैं कि भारतीय सनातन संस्कृति ही बौद्ध संस्कृति का मूल है। पिछले कुछ वर्षों से नवबौद्ध एक बहस यह चला रहे हैं कि भारतवर्ष से बौद्ध मतानुयायी जो अचानक से संख्या में बहुत कम हो गए यानी उनका विनाश होता गया तो इस विनाश का कारण सनातनधर्मी ही हैं। किंतु वास्तव में भारत से बौद्धों के विनाश में सनातनियों की कोई भूमिका नहीं है। हालांकि इस संदर्भ में अनेक दंतकथाएं जानबूझकर फैलाई गईं, ताकि भारतीय समाज में एक-दूसरे के प्रति मनोमालिन्य, विभेद और संदेह बना रहे जिससे विदेशी आक्रमणकारी अपना राजकीय और सांप्रदायिक प्रभुत्व भारत पर बनाए रख सकें।

कहा जा सकता है कि अनेक नवबौद्ध विद्वानों ने तथ्यों और साक्ष्यों की गहरी जांच-पड़ताल किए बगैर इस संबंध में अपने ही भारतीय समाज पर आरोप लगाए हैं। उनकी दृष्टि आक्रमणकारी तुर्कों और अन्य मुस्लिम आक्रांता लुटेरों की ओर गई ही नहीं। यहां एक सवाल यह उठता है कि मुसलमानों के आक्रमण के बाद सनातनधर्मी कैसे बचे रह गए और बौद्ध अचानक से कहां विलुप्त हो गए। राहुल सांकृत्यायन ने इस सवाल का जवाब देते हुए लिखा है, बात यह है कि सनातन धर्म में गृहस्थ भी धर्म के अगुआ हो सकते थे, लेकिन बौद्धों में भिक्षुओं पर ही धर्मप्रचार और धार्मिक ग्रंथों की रक्षा का दायित्व था।

भिक्षु अपने परिधान तथा निवासस्थान के द्वारा पहचाने जा सकते थे। इसी कारण भिक्षुओं को तुर्कों के शासन के दिनों में बहुत ही मुश्किलों को सामना करना पडा था। इन भिक्षुओं की प्रतिष्ठा उनके सदाचार और विद्या पर नहीं, बल्कि उनके मंत्रों और देवताओं की अद्भुत शक्तियों पर निर्भर थी। तुर्कों की तलवारों ने इन अद्भुत शक्तियों का दिवाला निकाल दिया। जब बौद्ध भिक्षुओं ने अपने टूटे मठों को फिर से मरम्मत कराना चाहा, तब उसके लिए उन्हें धन नहीं मिला। बौद्ध अपने टूटे धर्मस्थानों की मरम्मत कराने में सफल नहीं हो सके। बुद्ध विहारों के तोड़ दिए जाने पर उनके निवासी यानी भिक्षु भागकर तिब्बत, नेपाल तथा दूसरे देशों की ओर चले गए।

हिंदू और बौद्ध दोनों आपस में इतने घुल-मिल गए थे कि दोनों मतों के लोग एक ही घर में रहा भी करते थे। इसलिए अपने भिक्षुओं के अभाव में उन्हें अपनी ओर खींचने के लिए जहां उनके सनातनधर्मी रक्त संबंधी आकर्षण पैदा कर रहे थे, वहीं उनमें से जुलाहा, धुनिया आदि कितनी ही छोटी समझी जाने वाली जातियों को मुसलमानों की ओर से भय और प्रलोभन दिया जाता था, जिस कारण एक-दो शताब्दियों में ही बौद्ध या तो सनातनधर्मी बन गए या मुसलमान। यह कहना भी ठीक नहीं है कि संपूर्ण भारतवर्ष से बौद्ध विलुप्त हो गए।

(लेखक एसोसिएट प्रोफेसर हैं)