[ प्रदीप सिंह ]: देश और राजनीतिक दलों के इतिहास में कभी-कभी किसी बड़ी घटना के साथ होने वाली सामान्य सी घटना बड़े बदलाव की नींव रख देती है। संसद के दोनों सदनों में जम्मू-कश्मीर का पुनर्गठन करने और अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाने के प्रस्तावों का बहुजन समाज पार्टी ने समर्थन किया। सुनने में यह बात बहुत सामान्य सी लगती है, क्योंकि कई अन्य विपक्षी दलों ने सरकार के प्रस्ताव का समर्थन किया, लेकिन मायावती के इस फैसले से देश की राजनीति को एक नई दिशा में ले जाने की विपक्षी दलों की कोशिश को बड़ा झटका लगा। वह दिशा है, देश में दलित-मुस्लिम समीकरण की नई राजनीति गढ़ने की।

मायावती का दलित जनाधार

मायावती का दलित जनाधार कितना भी कम हो गया हो, लेकिन वह आज भी देश में दलित समाज की सबसे बड़ी नेता हैं। कश्मीर मुद्दे पर राज्यसभा में सत्तारूढ़ दल को मिले इतने बड़े (दो तिहाई) समर्थन से विपक्षी दलों को जितना बड़ा झटका लगा उससे बड़ा धक्का मायावती के रुख से लगा। मायावती वहीं नहीं रुकीं। उन्होंने बाकायदा इसे अपनी पार्टी की विचारधारा और बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर के विचारों से जोड़कर व्यापक आयाम दिया।

भीमराव आंबेडकर अनुच्छेद 370 के खिलाफ थे

उन्होंने कहा कि बाबा साहब शुरू से ही अनुच्छेद 370 के खिलाफ थे। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि बाबा साहब ने इस विशेष प्रावधान का न केवल ड्राफ्ट तैयार करने से मना कर दिया था, बल्कि जब अपने राजनीतिक दल रिपब्लिकन पार्टी का गठन किया तो उसके घोषणा पत्र में अनुच्छेद 370 को खत्म किए जाने की बात लिखी।

मायावती के रुख में आया बदलाव

बहुत से लोगों को लग रहा है कि बसपा मुखिया आजकल कुछ बदली- बदली नजर आ रही हैं, लेकिन मायावती के रुख में आया बदलाव राजनीतिक संस्कृति के लिहाज से सुखद अनुभूति देने वाला है, क्योंकि आज राष्ट्रीय और सामाजिक हित को तरजीह देने की राजनीतिक संस्कृति विलुप्त सी होती जा रही है। मुद्दा अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने का हो, विपक्षी नेताओं के श्रीनगर जाने के विरोध का हो या दिल्ली में रविदास मंदिर पर हुए प्रदर्शन का समर्थन न करने का हो या फिर पार्टी मंच पर अपने परिजनों को नहीं बैठाने का हो-इन सभी बातों से मायावती एक बदलाव का संकेत दे रही हैं। सवाल है कि इस बदलाव के जरिये वह अपनी राजनीति को किस नई दिशा में ले जाना चाहती हैं? दिशा और दशा कोई भी हो, लेकिन उनका आत्मविश्वास गजब का है।

‘बुखारी का बुखार तो मैं उतारूंगा‘

मायावती के पास इस बात का विकल्प था कि वह कश्मीर मुद्दे पर भ्रमित करने वाला रुख अख्तियार कर लेतीं ताकि यह लगता कि वह समर्थन भी कर रही हैं और विरोध भी। सपा के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने यही करने का प्रयास किया, लेकिन उन्हें न खुदा मिला और न ही विसाले सनम। इस कदम से बसपा प्रमुख ने एक बार फिर बताया कि वह आंबेडकर और कांशीराम की उस परंपरा की वास्तविक वारिस हैं जिसमें मुद्दों पर साफगोई से कोई समझौता नहीं किया जाता। बाबा साहब हों या कांशीराम, दोनों ने कभी मुस्लिम तुष्टीकरण का प्रयास नहीं किया। देश में किसी पार्टी के किसी नेता ने सार्वजनिक मंच से जामा मस्जिद के इमाम अब्दुल्ला बुखारी के बारे में यह कहने का साहस नहीं किया कि ‘बुखारी का बुखार तो मैं उतारूंगा।’ कांशीराम ने लखनऊ के बेगम हजरत महल पार्क की जनसभा में यह तब कहा था जब बुखारी का जलवा कायम था।

देश की राजनीति में दलित-मुस्लिम समीकरण

पिछले कई सालों से देश की राजनीति में दलित-मुस्लिम समीकरण बनाने की कोशिश हो रही है। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में 2014 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों में असदुद्दीन ओवैसी ने जय मीम-जय भीम का नारा दिया था। साल 2019 के चुनावों में भी अखिलेश यादव से लेकर कांग्रेस तक तमाम विपक्षी दलों ने इस राजनीतिक समीकरण को उभारने की कोशिश की। उन्हें लगता है कि हिंदू एकता को तोड़ने और भाजपा को परास्त करने का यही सबसे कारगर औजार है। इसलिए चुनाव के दौरान इन पार्टियों और खासतौर से इनके समर्थक बुद्धिजीवियों की ओर से विभिन्न राज्यों और चुनाव क्षेत्रों में मतदाताओं के आंकड़े देते समय बताया जाता कि इतने हिंदू, इतने मुस्लिम और इतने दलित/आदिवासी मतदाता हैैं। जैसे दलित, आदिवासी हिंदू धर्म के बजाय किसी और धर्म के अनुयायी हों।

मायावती ने पलीता लगा दिया

मायावती के एक कदम ने इस नई राजनीतिक धुरी बनाने के प्रयासों में पलीता लगा दिया। इस संभावित धुरी के केंद्र में मायावती ही हो सकती थीं। उनका एक बयान इस धुरी को हकीकत बनाने की दिशा में ले जा सकता था। हालांकि तुलना बेमानी है और यह निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी कि मायावती का यह भाव स्थाई रहेगा, लेकिन यदि उनके रुख में निरंतरता बनी रहती है तो कभी न कभी मायावती के इस रुख की तुलना बाबा साहब के हिंदू धर्म छोड़ करके इस्लाम या ईसाई धर्म न ग्रहण करने के कदम से होगी। दलित-मुस्लिम गठजोड़ की धुरी मायावती को राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में ला सकती थी, लेकिन यह दूसरी बार हो रहा है कि किसी दलित नेता ने हिंदू एकता को तोड़ने के प्रयास से परहेज किया।

मायावती ने भाजपा के पक्ष में प्रचार किया

कुछ लोग कह सकते हैं कि मायावती यह सब मोदी सरकार के दबाव में कर रही हैं। ऐसे लोगों को याद दिलाना जरूरी है कि उत्तर प्रदेश में जब बसपा-भाजपा की पहली सरकार बनी तो मायावती ने न केवल ज्यादातर अहम विभाग भाजपा को दिए, बल्कि विभागों के वितरण में जरा भी देर नहीं लगाई। इससे भी बड़ी बात यह कि वह 2002 के गुजरात दंगे के बाद विधानसभा चुनाव में भाजपा के पक्ष में प्रचार करने चली गईं। मायावती ने यह निर्भीकता बाबा साहब और कांशीराम से सीखी है, लेकिन एक सवाल है जिसका जवाब अभी मिलना बाकी है। मायावती यह ऐसे समय कर रही हैं जब उनका गैर दलित ही नहीं, गैर जाटव दलित भी मोदी-शाह की राजनीति ने तोड़ लिया है।

दलित राजनीति में आंतरिक संघर्ष

इतना ही नहीं दलित राजनीति में भी कई तरह के आंतरिक संघर्ष चल रहे हैं। प्रकाश आंबेडकर, जिग्नेश मेवानी और चंद्रशेखर जैसे दलित नेता उनके लिए मुश्किल का सबब बनते रहे हैं। हाल में दिल्ली में संत रविदास का मंदिर सुप्रीम कोर्ट के आदेश से तोड़े जाने पर भारी प्रदर्शन हुआ। संत रविदास दलितों में भगवान की तरह पूजे जाते हैं। इस प्रदर्शन में चंद्रशेखर की प्रमुख भूमिका थी। इस मुद्दे पर भी मायावती ने एक परिपक्व नेता की तरह ऐसे प्रदर्शनों की राजनीति का विरोध किया।

सत्ता की राजनीति के लिए दूसरे वर्गों का भी समर्थन चाहिए

वह आसानी से इस मुद्दे को ढाल बनाकर राजनीतिक लाभ उठा सकती थीं, लेकिन उन्हें पता है कि ऐसे आंदोलनों के समर्थन से दूसरे समाज के लोगों को जोड़ने में मदद नहीं मिलेगी। यह भी उन्होंने कांशीराम से ही सीखा है। उत्तर प्रदेश में पहली बार सरकार बनते ही कांशीराम ने डीएस-फोर और बामसेफ को भंग कर दिया था, क्योंकि सत्ता की राजनीति के लिए दलित समाज के अलावा दूसरे वर्गों का भी समर्थन चाहिए था। क्या मायावती की नई राह उन्हें दूसरे वर्गों का समर्थन दिलाएगी? डगर कठिन है और संघर्ष लंबा।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैैं )