[ राजनाथ सिंह सूर्य ]: हाल में बसपा प्रमुख मायावती ने पहले मध्य प्रदेश और फिर राजस्थान में चुनावी प्रचार के दौरान कहा कि आरक्षण का आधार गरीबी होना चाहिए। अर्थात जाति के स्थान पर आर्थिक स्थिति को आरक्षण का आधार बनाया जाना चाहिए। उनका यह बयान आरक्षण के लिए वर्तमान में चल रही मारामारी को देखते हुए महत्वपूर्ण है। यदि यह बयान चुनावी लाभ मात्र के लिए है तो इसका असर वही होगा जैसा कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की ओर से मंदिरों में किए जा रहे पूजा-पाठ का हो रहा है।

मायावती का यह बयान ऐसे समय में आया है जब महाराष्ट्र की सरकार ने मराठों को नौकरी और शिक्षा में 16 प्रतिशत आरक्षण देने की सहमति दी है और कांग्रेस मुसलमानों के लिए अलग से आरक्षण देने की बात फिर से उठा रही है। गत दिवस महाराष्ट्र विधानसभा में मराठों को 16 प्रतिशत आरक्षण देने संबंधी विधेयक भी पास कर दिया गया। राजस्थान के गुर्जर और हरियाणा के जाट पहले से ही अपने लिए आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलित हैं। आंध्र और तेलंगाना में भी कई जातियां आरक्षण की मांग कर रही हैं। उत्तर प्रदेश सरकार अति पिछड़े वर्ग की मांगों को पूरा करने के लिए पिछड़ा वर्ग आरक्षण को तीन भागों में विभाजित करने पर विचार कर रही है। ऐसे में गैर जाति आधारित यानी आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की जो बात मायावती ने उठाई है वह देशव्यापी बहस का विषय बन सकती है। हालांकि उत्तर प्रदेश में उन्होंने अभी तक इस प्रकार का वक्तव्य नहीं दिया था।

देश में एक अरसे से आरक्षण नीति की समीक्षा किए जाने की मांग की जा रही है। बिहार विधानसभा चुनाव के पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने जब यह कहा था कि आरक्षण नीति की इस दृष्टि से समीक्षा होनी चाहिए कि क्या इसका लाभ वास्तविक लोगों को मिल पा रहा है तब उस समय इस पर बड़ा बवाल उठा था। तब यहां तक कहा गया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आरक्षण के विरुद्ध है। दरअसल जब-जब किसी ऐसे व्यक्ति या समूह,जो आरक्षित वर्ग में नहीं आता, ने आरक्षण की समीक्षा की बात की तब-तब उसे अनुसूचित जाति विरोधी करार देकर ऐसा हंगामा खड़ा किया गया। इसी कारण समीक्षा की बात कभी परवान नहीं चढ़ सकी।

अब जब स्वयं आरक्षित वर्ग से आने वाली मायावती ने जाति के बजाय आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का सुझाव दिया है तो क्या यह उम्मीद की जाए कि इस संबंध में कोई विचार-विमर्श होगा? यद्यपि औपचारिक रूप से इस बात का कोई सर्वेक्षण नहीं हुआ है कि वर्तमान आरक्षण नीति से अनुसूचित जाति या जनजाति के कितने प्रतिशत लोग लाभान्वित हुए हैैं, लेकिन अनौपचारिक रूप से इस संबंध में जो छानबीन हुई है उससे यही स्पष्ट होता है कि आरक्षण का लाभ कुछ परिवारों तक सीमित रहा है। कोई कारण नहीं कि राष्ट्रपति पद पर बैठने वाले व्यक्ति के परिवार को आरक्षण का लाभ मिले और चपरासी के रूप में उनके कार्यालय में काम करने वाले ब्राह्मण को उस लाभ से वंचित रखा जाए।

पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने पिछड़ा वर्ग आरक्षण में निर्धारित क्रीमीलेयर की समीक्षा करने का सुझाव दिया था, क्योंकि इसका कोई एक देशव्यापी पैमाना निर्धारित नहीं है। अधिकांश राज्यों में जहां पिछड़ा वर्ग आरक्षण लागू है वहां बिहार सरकार द्वारा अपनाया गया फॉर्मूला ही अमल में लाया जा रहा है। इस फॉर्मूले के अनुसार भले ही कोई व्यक्ति अरबपति हो, लेकिन यदि पति या पत्नी में से कोई स्नातक नहीं है तो वह क्रीमीलेयर के दायरे में नहीं आएगा।

आरक्षण को समाज के पिछड़े वर्ग को अगड़ों के समकक्ष लाने के लिए 10 वर्ष की अवधि तक के लिए संविधान सभा द्वारा स्वीकृत किया गया था, लेकिन वोट बैंक की राजनीति ने इसे एक वर्ग को अधिकार की भावना से देखने का दृष्टिकोण प्रदान कर दिया। प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष काका कालेलकर की वह भविष्यवाणी सही साबित हो रही है जो उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति को लिखे गए पत्र में आशंका के रूप में व्यक्त की थी। उन्होंने लिखा था कि जाति आधारित आरक्षण भविष्य में चलकर जातीय संघर्ष का मुद्दा बन जाएगा। इससे बचने के लिए उन्होंने जाति को आरक्षण का आधार नहीं बनाने की बात भी कही थी।

आज देश में आरक्षण को लेकर वोटबैंक बनाने की होड़-सी मची है। हड़ताल, तोड़फोड़, धरना-प्रदर्शन के कारण न केवल विकास कार्य बाधित होते हैैं, अपितु करोड़ों रुपये की संपत्तियां भी नष्ट होती हैैं। सक्षम होते हुए भी मेरिट सूची में स्थान नहीं पाने के कारण जाति आधारित आरक्षण समाज में संघर्ष और क्षोभ का एक कारण बन गया है। यह सभी अनुभव करते हैं कि आरक्षण के संरक्षण से समाज के वंचित वर्ग को लाभान्वित करने की नीति कुछ परिवारों में कैद होकर रह गई है यानी आरक्षण का लाभ कुछ परिवारों को ही मिल रहा है। इन परिवारों को आरक्षण की परिधि से बाहर करने के जब भी सुझाव सामने आए उन्होंने संपूर्ण आरक्षित वर्ग का मुद्दा उठाकर उस आवाज को दबा दिया। ऐसे समय में मायावती द्वारा आर्थिक आधार पर आरक्षण की नीति लागू करने का सुझाव महत्वपूर्ण हो गया है। वह अनुसूचित जाति की देश में सबसे प्रभावी नेता हैं।

जहां अनारक्षित वर्ग के लोगों द्वारा वर्तमान आरक्षण नीति को बदलने की आवाज उठ रही है वहीं आरक्षित वर्ग में कम संख्या वाली जातियों के आरक्षण पर कुछ परिवारों द्वारा कब्जा कर लिए जाने का स्वर भी उभरने लगा है। यह आरोप लगाया जाने लगा है कि इस नीति का लाभ सबसे कमजोर वर्ग को नहीं मिल पा रहा है। ऐसे में मायावती के बयान के बाद उम्मीद की जानी चाहिए कि जल्द ही इस नीति पर गहनता से विचार होगा। हालांकि यह इस बात पर निर्भर करेगा कि क्या मायावती उत्तर प्रदेश में और साथ ही अन्य स्थानों पर भी ऐसी अभिव्यक्ति कर सकेंगी। उन्होंने इस अभिव्यक्ति से एक बड़ा राजनीतिक पासा फेंका है। जो किसी भी करवट बैठ सकता है, क्योंकि आरक्षित वर्ग में जो लाभान्वित हैं वे उसे यथावत लागू रखने के लिए कटिबद्ध हैं और अनारक्षित वर्ग आर्थिक आधार का प्रबल समर्थक है।

[ लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं स्तंभकार हैैं ]