ए. सूर्यप्रकाश : अंतरराष्ट्रीय मीडिया संस्थान लंबे समय से हिंदू धार्मिक एवं सामाजिक परंपराओं का नाना प्रकार से उपहास उड़ाते आए हैं। हम उनके ऐसे रवैये के अभ्यस्त भी हो गए हैं, लेकिन ये संस्थान शायद ही अपनी उन परंपराओं को ऐसी कसौटी पर कसते हों, जो आधुनिकता के खांचे से पूरी तरह बाहर हैं। हाल में महारानी एलिजाबेथ के निधन और किंग चार्ल्स तृतीय की राजा के रूप में ताजपोशी की लगातार कवरेज में यह एक बार फिर दिखा। तमाम चकाचौंध और समूचे ‘साम्राज्य’ में युवराज के महाराज बनने की उद्घोषणा के इर्दगिर्द बना माहौल अवश्य ही भारतीयों के लिए कालातीत लगा होगा, जहां 75 साल पहले ही सरदार वल्लभभाई पटेल ने राजे-रजवाड़ों की विदाई करा दी थी।

इंटरनेट के इस युग में ब्रिटेन के विभिन्न स्थानों पर ऐसे आयोजन देखना कुछ अजीब लगा हो, लेकिन अगर अंग्रेज अतीत में ही रहना चाहते हैं तो भला शिकायत करने वाले हम कौन होते हैं? वहां राजसत्ता के संक्रमण से जुड़ी प्रक्रियाएं भी लंबी चलीं। मुद्रा, डाक टिकटों और यहां तक कि राष्ट्रगान में महारानी की जगह महाराज को बदला गया। इस मामले में भारतीय परंपराएं उलट हैं। भारत में हम व्यक्ति के कृतित्व और योगदान के सम्मान में डाक टिकट जारी करते हैं और कई मामलों में यह मरणोपरांत होता है।

वास्तव में हम भारतीय लोकतंत्र की उन उत्कृष्ट परंपराओं के साथ पले-बढ़े हैं, जहां संवैधानिक प्रविधान पक्षपात के विरुद्ध संरक्षण के साथ ही समता, समानता और बंधुत्व सुनिश्चित करते हैं। ऐसी स्थिति में ब्रिटेन की प्रधानमंत्री सहित राजनीतिक बिरादरी के उन तमाम दिग्गजों को दाद देना जरा मुश्किल होगा, जो महारानी के अवसान के उपरांत चार्ल्स तृतीय के राज्याभिषेक के समय अग्रिम पंक्ति में ‘गोड सेव द किंग’ यानी ईश्वर राजा की रक्षा करे का जयघोष कर रहे थे। ऐसे महत्वपूर्ण अवसरों पर भारत में ‘भारत माता की जय’ का जयकारा लगाया जाता है तो अमेरिकी कहते हैं कि ‘ईश्वर अमेरिका की रक्षा करे।’

भारत दुनिया का सबसे बड़ा और जीवंत लोकतंत्र है, मगर पश्चिमी मीडिया में टिप्पणीकार आम तौर पर उसे निंदा भाव से देखते हुए अक्सर अनावश्यक सलाह देते रहते हैं कि देश कैसे चलाया जाए? वे भारत में राजनीतिक एवं सामाजिक तनावों का छिद्रान्वेषण कर उदारवाद, पंथनिरपेक्षता और लोकतंत्र को लेकर भारतीयों की प्रतिबद्धता पर प्रश्न उठाते हैं। हालांकि वे इस तथ्य पर ध्यान देकर कभी भारत की सराहना नहीं करते कि ब्रिटेन और कई यूरोपीय देशों के उलट भारत एक परिपूर्ण लोकतंत्र है, जिसमें इन मूल्यों का समावेश होने के साथ ही गणतंत्रवाद, विधि के समक्ष समानता और राज्य एवं धर्म के मध्य स्पष्ट अंतर जैसे तत्व समाहित हैं। ये मूल्य भारतीय संविधान में गहराई से समाए हैं और भारतीय राज्य की बुनियाद रखते हैं।

दूसरे शब्दों में कहें तो ये तत्व लोकतंत्र के आधारभूत बिंदु हैं, जो ब्रिटेन में नदारद हैं। इस अवधारणा को विस्तार देना आवश्यक है। भारत एक गणतंत्र है, जहां राष्ट्र प्रमुख का चुनाव होता है। यहां किसी राजवंश से राजा-रानी की व्यवस्था नहीं, जो अन्य नागरिकों की तुलना में विशेषाधिकार लिए हों। हमारे राष्ट्र प्रमुख राष्ट्रपति का पद वंशानुगत नहीं। कोई भी भारतीय उसकी आकांक्षा कर सकता है। देश को सभी भूभागों के साथ ही हिंदू, मुस्लिम और सिख समुदाय से राष्ट्रपति मिल चुके हैं, जिनकी सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और धार्मिक पृष्ठभूमि भी अलग-अलग रही हैं। विविधतापूर्ण हिंदू समाज की बात करें तो उससे भी देश को कायस्थ, रेड्डी, दलित और ब्राह्मण जैसी विभिन्न जातियों से राष्ट्रपति मिले हैं।

वर्तमान राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु जनजाति समुदाय से हैं। यह पद सभी के लिए खुला और किसी राजवंश या धार्मिक व्यवस्था के दायरे में सीमित नहीं। दूसरी ओर ब्रिटिश राजवंश का चर्च आफ इंग्लैंड के साथ प्रगाढ़ रिश्ता है और वह ‘पंथ की रक्षा’ का प्रण लेता है। वह चर्च आफ स्काटलैंड की रक्षा की शपथ भी लेता है। रोमन कैथोलिक चर्च से जुड़ा व्यक्ति ब्रिटेन में सिंहासन का पात्र नहीं हो सकता। राजा खुद को प्रोटेस्टेंट घोषित करता है। उसे चर्च आफ इंग्लैंड के प्रति निष्ठा व्यक्त करनी होती है। वह चर्च के ‘सुप्रीम गवर्नर’ के रूप में सेवारत होता है। यह परंपरा 16वीं शताब्दी से चली आ रही है। विवाह के लिए भी उसकी अनुमति आवश्यक है। ऐसा न करने वाला सिंहासन प्राप्ति के अधिकार से वंचित हो सकता है। यह सब कितना लोकतांत्रिक, पंथनिरपेक्ष और उदार है?

दूसरा बिंदु राज्य को धर्म से विलग करने का है। भारतीय संविधान में स्पष्ट व्यवस्था है कि राज्य-निधि से पूर्णत: पोषित किसी भी शैक्षणिक संस्थान में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी। जहां भारतीय राष्ट्रपति ‘संविधान के परिरक्षण, संरक्षण और प्रतिरक्षण’ की शपथ लेता है तो ब्रिटिश राजा द्वारा ‘पंथ की रक्षा’ की शपथ ली जाती है। ब्रिटिश राजमुकुट पर कई दायित्व हैं। सिंहासन पर बैठा व्यक्ति ब्रिटेन का राजा, उसके पूर्व उपनिवेशों की बनी राष्ट्रमंडल संस्था का मुखिया और 14 उन अन्य राष्ट्रों का प्रमुख होता है, जिसे वे अपना राजा स्वीकार करते हैं।

राजगद्दी को 70 वर्षों तक संभालने वालीं महारानी एलिजाबेथ ने नि:संदेह अपने व्यक्तित्व और गरिमामयी आचरण से ब्रिटिश नागरिकों के दिल में अपनी जगह बनाई। यही कारण है कि उनकी अंतिम यात्रा का साक्षी बनने के लिए लोगों ने लंबी कतारों में कई घंटों तक प्रतीक्षा की। कई लोग ऐसी अभूतपूर्व संवेदनाओं को राजशाही के प्रति जनसमर्थन के रूप में देखेंगे, वहीं संशयवादियों की दलील होगी कि राजशाही के भविष्य पर किसी निर्णय से पहले शोक की अवधि गुजरने की प्रतीक्षा करना बेहतर होगा। राजशाही से इतर भारतीय लोकतंत्र की बात करें तो पिछले महीने ही हमने अपनी आजादी की 75वीं वर्षगांठ मनाई है और हाल में ब्रिटेन से आए दृश्यों को देखकर प्रत्येक भारतीय को यही महसूस करना चाहिए कि हमारा लोकतंत्र कितना गहरा और प्रगतिशील है। ऐसे में कोई संदेह नहीं रह जाता कि भारत न केवल विश्व का सबसे बड़ा, अपितु सबसे विकसित लोकतंत्र भी है।

(लेखक लोकतांत्रिक विषयों के विशेषज्ञ और वरिष्ठ स्तंभकार हैं)