मिलान की अपीलीय अदालत ने अगस्ता वेस्टलैंड सौदे में रिश्वतखोरी के आरोप में इटली की फिनमेकैनिका एयरोस्पेस कंपनी के दो अधिकारियों को जेल भेज दिया और इसी के साथ साफ हो गया कि इस कंपनी ने कुछ भारतीयों को सौदे की एवज में 30 लाख यूरो रिश्वत दिए थे। रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार भारत के लिए कोई नई बात नहीं है, लेकिन इस मामले में इटली की अदालत रिश्वत खिलाने वालों को जेल भेज चुकी है जबकि भारतीय जांचकर्ता अब भी रिश्वत खाने वालों के नाम बाहर लाने के मामले में अंधेरे में ही हैं। ऐसा पहले भी हो चुका है जब बोफोर्स और दूसरे रक्षा सौदों में रिश्वत या कमीशन खाने वालों को कोई सजा नहीं हुई। अब जबकि इस तरह के मामले सामने आते ही जा रहे हैं तो हमें देखना चाहिए कि आधुनिक भारत में भ्रष्टाचार के तौर पर रिश्वत और कमीशन की गंगोत्री कैसे फूटी? भ्रष्टाचार के इतिहास की गवाही देने वाले कई ऐसे नामवर लोग हैं जिन्होंने बताया है कि यह चलन कब और कैसे शुरू हुआ। इन गवाहों में पूर्व राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन, पूर्व कैबिनेट सचिव बीजी देशमुख, पूर्व सीबीआइ निदेशक एपी मुखर्जी, पूर्व राजदूत एवं नेहरू परिवार के सदस्य बीके नेहरू और जेआरडी टाटा शामिल हैं।

भ्रष्टाचार के इस इतिहास के सबसे बड़े साक्षी वेंकटरमन हैं। उन्होंने अपनी आत्मकथा माइ प्रेसिडेंसियल ईयर में ऐसी तमाम सूचनाएं साझा की हैं जो विदेशी सौदों में हुई रिश्वतखोरी को लेकर हैं। इस बाबत उन्होंने जेआरडी टाटा के साथ अपनी अहम बातचीत का भी हवाला दिया है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बारे में टिप्पणी करते हुए जेआरडी टाटा ने कहा था कि बोफोर्स रक्षा सौदे में कमीशन खाने से इन्कार करना कांग्रेस पार्टी के लिए मुश्किल होगा, क्योंकि 1980 से राजनीतिक मदद के लिए उद्योगपतियों से संपर्क करने का सिलसिला खत्म हो गया था। इसका मतलब कहीं न कहीं उद्योगपतियों के बीच भी यह धारणा बढऩे लगी कि पार्टी को सौदों में कमीशन के तौर पर पैसे दिए गए हैं। खुद वेंकटरमन इंदिरा गांधी सरकार में रक्षा मंत्रालय संभाल चुके थे।

1986 से 1989 तक कैबिनेट सचिव रहे बीजी देशमुख ने तो और भी अहम राज खोले हैं। अपनी आत्मकथा-ए कैबिनेट सेक्रेटरी लुक्स बैक-में देशमुख ने बोफोर्स मामले को इंदिरा गांधी की इस नीति से जोड़कर देखा है कि देश के भीतर पार्टी फंड के लिए पैसे न जुटाए जाएं। यानी विदेशी सौदों में कमीशन को स्वीकृति दी गई। बात करें बोफोर्स की तो बता देना जरूरी है कि 1986 में इस रक्षा सौदे में स्वीडिश कंपनी से फील्ड गन्स की खरीद में भ्रष्टाचार की बात सामने आई थी। देशमुख इस बात को पुख्ता तरीके से रखते हैं कि बोफोर्स दलाली की नींव तो उसी समय पड़ गई थी जब इंदिरा ने पार्टी के लिए फंड जुटाने का नायाब तरीका निकाला। देशमुख मानते हैं कि जब नेहरू प्रधानमंत्री थे तो पार्टी फंड जुटाने का काम ज्यादा पारदर्शी था। तब सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ताने-बाने में भ्रष्टाचार की पैठ उतनी नहीं हुई थी, लेकिन जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो उन्हें कहीं न कहीं यह लगने लगा कि खुद को कांग्रेस की कद्दावर नेता के रूप में स्थापित करने के लिए उन्हें चुनाव में काफी पैसों की दरकार होगी।

एक बार जब इंदिरा ने खुद को स्थापित कर लिया तो उन्होंने तय किया कि फंड जुटाने का ज्यादा बेहतर रास्ता यही है कि विदेशी सौदों में कमीशन पर दावा ठोका जाए। इस तरह फंड जमा करने का यह रास्ता 1972 के बाद से शुरू हो गया। इस तरीके ने तब और ज्यादा परिष्कृत रूप ले लिया जब फिर से सरकार में आने के बाद उन्होंने रक्षा मंत्रालय और रक्षा उत्पादन से जुड़े विभाग में अपने भरोसे के वरिष्ठ अधिकारी बैठा दिए। देशमुख बताते हैं कि एचडीडब्ल्यू सबमरीन केस के दौरान उनसे कहा गया था कि जर्मनी के रक्षा मंत्रालय को रक्षा आपूर्तिकर्ता को यह बताना होगा कि सामान की बिक्री में कमीशन के लिए एक खास रकम तय करनी होगी। उन्हें यह भी जानकारी दी गई थी कि इस तरह के सौदों में दस फीसद और लातिन अमेरिकी देशों में इससे भी ज्यादा कमीशन मिलता है। देशमुख के खुलासे इस लिहाज से भी अहम हैं, क्योंकि बोफोर्स की तरह इस मामले ने भी खासा तूल पकड़ा था। तब एक विवादित टेलेक्स मैसेज का हवाला दिया गया था जिसमें यह साफ तौर पर बताया गया था कि एचडीडब्ल्यू को सौदा पक्का करने के लिए सात फीसद कमीशन देना होगा।

अपनी आत्मकथा में बीके नेहरू ने भी कुछ इसी तरह बताया है कि राजीव गांधी ने उन्हें इस बात की जानकारी दी थी कि अस्सी के दशक से पार्टी फंड के लिए इस तरह करोड़ों रुपये जमा किए गए। इन्हीं तथ्यों की पुष्टि पूर्व सीबीआइ निदेशक एके मुखर्जी अपनी किताब-अननोन फेसेट्स ऑफ राजीव गांधी, ज्योति बसु एंड इंद्रजीत गुप्त-में करते हैं। वह बताते हैं कि बोफोर्स मामला जब चरम पर था तो राजीव गांधी ने उनसे एक दफा कहा था कि एक बड़ी राष्ट्रीय पार्टी को अपना प्रबंधन चलाने और चुनाव लडऩे के लिए काफी पैसों की दरकार होती है। मुखर्जी बताते हैं कि राजीव ने जब इस बाबत अपने सहयोगियों से चर्चा की तो उन्हें सलाह दी गई कि बिचौलियों को मिलने वाले कमीशन पर तो बैन लगा दिया जाए, पर सामान्य प्रचलन के तहत रक्षा उत्पादों में मिलने वाले कमीशन का लाभ कुछ ऐसे गैर सरकारी लोगों या संस्थाओं को मिले जिनसे बाद में पार्टी की जरूरतें पूरी हो सकें। बाद के दिनों में जब वीपी सिंह सत्ता में आए तो उन्होंने स्वीडिश और ब्रिटिश सरकारों की मदद से बोफोर्स सौदे में दी गई दलाली के भुगतान की छानबीन की। जानकारी मिली कि बोफोर्स ने 73 लाख अमेरिकी डॉलर सोनिया और राजीव के नजदीकी मारिया और ओतावियो क्वात्रोची के स्विस बैंक के खाते में जमा कराए। इस तरह यह कहीं न कहीं सत्यापित तथ्य है कि अस्सी के दशक से विदेशी सौदों में कमीशनखोरी की रिवायत शुरू हो गई थी।

[ लेखक ए. सूर्यप्रकाश, स्तंभकार एवं प्रसार भारत बोर्ड के चेयरमैन हैं ]