मुकेश चौरसिया। स्वर्ण अनिल अपनी पुस्तक ‘एक जोड़ी आखें’ में समाज में व्याप्त रूढ़ियों, जात-पात की भावना और बेटा-बेटी में भेद जैसी विसंगतियों पर तीक्ष्ण कटाक्ष करते हैं। इस पुस्तक में शामिल छोटी कहानियां इन्हीं विषयों पर आधारित हैं और ये मन को छू जाने वाली प्रतीत होती हैं। ये कहानियां अपने कथ्य को लक्ष्य करती हुई बढ़ती हैं और बिना विस्तार में गए एक सीधी लकीर बनाती हुई खत्म हो जाती हैं और पाठक के मन पर गहरा प्रभाव छोड़ जाती हैं। पुस्तक की पहली कहानी ‘लोग’ में भारतीय समाज के ऐसे दोहरे मानदंड को रखा जाता है, जो बहुओं और बेटियों में फर्क करने और पुत्र जन्म की आकांक्षा को वरीयता दिए जाने की आम जन-धारणा का आईना है। सैकड़ों-हजारों परिवार इस प्रवृत्ति का शिकार होकर बहुओं के प्रति सहज मानवीय व्यवहार से विरत रहते हैं।

हालांकि आज के रचनाशील नारी मन को ये रूढ़ियां अस्वस्थ लगती हैं। वे जात-पात, बेटा-बेटी विभेद, अत्याचार और आश्रित वृत्ति से जीवन जीने के विरोध में न सिर्फ आवाज उठाना चाहती हैं, बल्कि सक्रिय होकर उदाहरण भी प्रस्तुत करना चाहती हैं। पुस्तक की एक अन्य कहानी ‘वरदान’ में एक महिला विकट स्थिति आने पर न सिर्फ आगे बढ़कर मुसीबतों का सामना करती है, बल्कि अपने परिवार में एक नई ऊर्जा का संचार भी करती है।

वहीं ‘गिरगिट’ उन रंग बदलने वाले लोगों की कहानी है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी भ्रष्टाचार और धांधलियों में जीते हैं। अपनी संतान को उन्हीं धांधलियों के बल पर पूंजीपतियों की श्रेणी में ला बैठाते हैं।

एक और कहानी ‘सूरज’ है, जिसमें प्यार के बल पर एक शिक्षिका एक बालक के मन में उम्मीद की एक नई दुनिया आलोकित कर देती है। पुस्तक में कुल 19 छोटी-छोटी कहानियां हैं। हर कहानी आकार में भले छोटी है, लेकिन प्रेरक होने के साथ ही गहरा संदेश समेटे हुई है। इन कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता है उनकी आडंबरहीन सीधी-सादी रोजमर्रा की भाषा और उसी के माध्यम से रचा गया आसपास का संसार।

पुस्तक: एक जोड़ी आंखें

लेखक : स्वर्ण अनिल

प्रकाशक : प्रतिभा प्रतिष्ठान

मूल्य : 200 रुपये