[प्रमोद भार्गव]। देश के पूर्वोत्तर राज्य असम में दशकों से जारी बोडो समस्या का पटाक्षेप हो गया है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की मौजूदगी में यह समझौता प्रतिबंधित उग्रवादी संगठन नेशनल डेमोक्रेटिक फेडरेशन ऑफ बोडोलैंड (एनडीएफबी) एवं केंद्र व राज्य सरकार के बीच हुआ। इस संधि पर एनडीएफबी के चारों गुटों के नेता, गृह मंत्रालय के संयुक्त सचिव सत्येंद्र गर्ग और असम के मुख्य सचिव संजय कृष्ण ने हस्ताक्षर किए हैं। समझौते पर अखिल असम बोडो छात्र संगठन और यूनाइटेड बोडो पीपुल्स आर्गेनाइजेशन (एबीएसयू) ने भी हस्ताक्षर किए हैं।

अलगाव की इस आग में घी डालने का काम किया पाक ने: पूर्वोत्तर के इस बड़े राज्य में अनेक कारणों से उग्रवादी गुटों को पनपने के अवसर मिलते रहे और वे हिंसा के बूते वर्चस्व बढ़ाते गए। यह स्थिति इसलिए भी बनी, क्योंकि केंद्र और राज्य सरकारें समस्या से जुड़े मुद्दों का बातचीत से समाधान निकालने की बजाय आंदोलन को सुरक्षा बलों के माध्यम से कुचलने में लगी रहीं। नतीजन पूर्वोत्तर में अलग-अलग राज्यों की मांग को लेकर उग्रवादी लंबे समय तक आंदोलनरत रहे। अलगाव की इस आग में घी डालने का काम पाकिस्तान, बांग्लादेश और चीन भी करते रहे।

आक्रोश व हिंसा के हालात बनते गए: बोडो ब्रह्मपुत्र नदी घाटी के दुर्गम क्षेत्रों में रहने वाली सबसे बड़ी जनजाति है। यह इलाका बांग्लादेश के घुसपैठियों की सबसे बड़ी शरणगाह है। ये घुसपैठिये भारत में खेती की जमीन व जंगल से जुड़े अन्य संसाधनों पर अधिकार जमाते गए। जब भारतीय मूल के लोगों पर आजीविका का संकट घिरने लगा तो आक्रोश व हिंसा के हालात बनते गए। वर्ष 1985 में जब यह समस्या भयावह हो गई तो इसी की कोख से घुसपैठियों के विरोध में छात्र आंदोलन उपजा और वह राजनीतिक दल ‘असम गण परिषद’ के रूप में अस्तित्व में आ गया।

बोडोलैंड राज्य की मांग : वर्ष 1985 में इस दल के नेता प्रफुल्ल कुमार महंत मुख्यमंत्री बन गए थे। इसी समय घुसपैठियों को खदेड़ने का पहला समझौता परिषद और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के रहते हुआ था। इसके बाद राज्य में शांति स्थापना के लिए पहला बोडो समझौता 1993 में एबीएसयू से हुआ था, जिसके तहत सीमित राजनीतिक अधिकारों वाली बोडोलैंड स्वायत्त परिषद गठित की गई थी। वर्ष 2003 में दूसरा समझौता हुआ। इसके अंतर्गत असम के चार जिलों (कोकराझार, चिरांग, बक्सा और उदालगुड़ी) को मिलाकर बोडोलैंड क्षेत्रीय जिले (बीटीएडी) का दर्जा दिया गया। साथ ही बोडोलैंड टेरिटोरियल परिषद (बीटीसी) बनाई गई। अब जो तीसरा समझौता हुआ है, वह व्यापक है। क्योंकि यह सभी उन प्रमुख आंदोलनकारी संगठनों के साथ मिलकर किया गया है जिनकी पहचान उग्रवादी संगठनों के रूप में थी। इन सभी संगठनों ने सहमति से अलग बोडोलैंड राज्य की मांग को निरस्त कर दिया है।

एडीएफबी कैडर का पुनर्वास होगा : इस समझौते से उम्मीद है कि अब असम में शांति, सद्भाव और एकजुटता तो दिखाई देगी ही बोडो व अन्य जनजातियों की अनूठी संस्कृति व भाषाओं की भी रक्षा होगी। अकेला बोडो समुदाय ही असम की आबादी में छह प्रतिशत की भागीदारी करता है। इस समझौते के अनुसार अब बीटीसी को केंद्र सरकार विधायी, कार्यकारी, प्रशासनिक और वित्तीय शक्तियां देगी। बीटीएडी आंतरिक विषय तय करने के साथ बोडो पाठशालाओं का प्रांतीयकरण करने का काम करेगी। इसके लिए एक अलग निदेशालय बनेगा। बोडो आंदोलन में मारे गए लोगों के लिए पांच- पांच लाख रुपये मुआवजे के रूप में मिलेंगे एवं एडीएफबी कैडर का पुनर्वास होगा।

घुसपैठियों का असर : बीती शताब्दी में असम बांग्लादेशी घुसपैठियों के चलते प्रभावित होता रहा है। इसी की प्रतिक्रिया में असम आंदोलन की पृष्ठभूमि से कई उग्रवादी संगठन प्रकट होते रहे हैं। उल्फा यानी यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम इस दृष्टि से प्रमुख उग्रवादी संगठन रहा है। इसकी पृष्ठभूमि फिरंगी हुकूमत में ही तैयार हो गई थी। असम राजपत्र के मुताबिक वर्ष 1826 में असम को अंग्रेजों ने भारत के भौगोलिक नक्शे में दर्ज किया था। इसके पहले इस पर चार वर्ष बर्मा यानी म्यांमार का शासन रहा। बाद में एक संधि के तहत इसे असम ईस्ट इंडिया कंपनी को सुपुर्द कर दिया गया। उल्फा ने यह संधि कभी स्वीकार नहीं की, लिहाजा वह स्वतंत्र असम की मांग करता रहा। आजादी के बाद पाकिस्तानी गुप्तचर संस्था आइएसआइ ने उल्फा के तंत्र को उकसाने का काम किया। आइएसआइ बेरोजगारों के समूहों को धन और हथियार मुहैया कराकर इन्हें हिंसा के लिए उकसाता रहा। नतीजन उल्फा ने एक दृष्टि पत्र जारी करके असम को स्वतंत्र राष्ट्र बनाने की मांग तक कर डाली थी। उल्फा के ज्यादातर सदस्य हिंदू समुदायों से थे, बावजूद वह पाकिस्तान की शह पर देश की अखंडता को चुनौती देता रहा था।

घुसपैठिये बांग्लादेश की ओर लौटने लगे : असम में अक्सर बड़ी हिंसक वारदातें बांग्लादेश से आए घुसपैठियों और मूल बोडो आदिवासियों के बीच होती थीं। बांग्लादेश के साथ भारत की कुल 4,097 किलोमीटर लंबी सीमा है, जिस पर जरूरत के मुताबिक सुरक्षा के इंतजाम नहीं हैं। एक बड़े इलाके में तो ब्रह्मपुत्र नदी का चौड़ा पाट ही दोनों देशों की सीमा तय करता है। नतीजन गरीबी और भूखमरी के मारे बांग्लादेशी असम में घुसे चले आते रहे हैं। हालांकि एनआरसी व सीएए कानून के वजूद में आने के बाद ऐसी खबरें भी आ रही हैं कि ये घुसपैठिये बांग्लादेश की ओर लौटने लगे हैं।

दरअसल इन घुसपैठियों को कांग्रेसी और अन्य दल अपने वोट बैंक बनाने के लालच में भारतीय नागरिकता का सुगम आधार उपलब्ध कराते रहे हैं। मतदाता पहचान पत्र जहां इन्हें भारतीय नागरिकता का सम्मान हासिल कराता है वहीं राशन कार्ड की उपलब्धता से इन्हें सस्ता अनाज मिल जाता है। आसानी से बनने वाले आधार कार्ड भी इन घुसपैठियों ने बड़ी संख्या में हासिल कर लिए हैं। भारत में नागरिकता और आजीविका हासिल कर लेने के बाद इनका राजनीतिक हस्तक्षेप तो बढ़ा ही, घुसपैठ को भी प्रोत्साहन मिलता रहा।

पिछले करीब पांच दशकों से देश के पूर्वोत्तर राज्य असम के एक बड़े भौगोलिक क्षेत्र में अलग बोडोलैंड विवाद का त्रिपक्षीय समझौते के बाद शांतिपूर्ण समाधान हो गया है। हिंसा की कई इबारतें लिखने वाला यह आंदोलन अब अहिंसा के रास्ते पर चलते हुए क्षेत्रीय विकास से जुड़ जाएगा। इस त्रिपक्षीय समझौते पर दस्तखत होने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उम्मीद जताई है कि इससे असम में शांति, सद्भाव और एकजुटता की नई सुबह होगी और बोडो लोगों का जीवन सुधरेगा। देशवासियों की भी यही उम्मीदें हैं। इस नजरिये से यह समझौता बहुत ही स्वागत योग्य है।

[वरिष्ठ पत्रकार]