[ पार्थसारथी थपलियाल ]: आपातकाल को याद करते हुए हर साल जून के आखिरी सप्ताह में इंदिरा गांधी के तानाशाही भरे शासन के बारे में बहुत कुछ कहा जाता है, लेकिन इसकी चर्चा कम ही होती है कि उस दौरान न्यायपालिका और खासकर सुप्रीम कोर्ट की क्या भूमिका रही थी? इस भूमिका की चर्चा करने के पहले आपातकाल के शुरुआती दिनों का स्मरण भी आवश्यक है। उन दिनों अखबारों के अलावा आकाशवाणी एक मात्र जनसंचार माध्यम थी। 26 जून 1975 को सुबह 8 बजे रेडियो की टाइम पिप्स के साथ ही नजर और नजारा बदल गया। उन दिनों समाचारों के साथ किसी प्रकार का म्यूजिकल इफेक्ट नहीं होता था।

आकाशवाणी से प्रसारित हुई थी आपातकाल की घोषणा

... यह आकाशवाणी है। अब आप अमुक से समाचार सुनेंगे। राष्ट्रपति जी ने देश मे आपातकाल की घोषणा की है। इसमें घबराने की कोई बात नहीं....यह आवाज तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की थी। वह देश को बता रही थीं कि विपक्ष किस तरह उनकी सरकार को गिराने का प्रयास कर रहा है। दरअसल 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय आया था, जिसमें इंदिरा गांधी की 1971 में रायबरेली लोकसभा क्षेत्र से चुनावी जीत को अमान्य कर दिया गया था। इंदिरा गांधी ने इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। 24 जून 1975 को सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को सही करार दे दिया, लेकिन इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री पद पर बने रहने की अनुमति दे दी।

जब संजय गांधी हुए थे इंद्र कुमार गुजराल से गुस्सा

इसी दिन बोट क्लब नई दिल्ली में कांग्रेस की बहुत बड़ी रैली इंदिरा गांधी के समर्थन में आयोजित की गई थी। दूरदर्शन पर इसकी व्यापक कवरेज न हो पाने से संजय गांधी तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री इंद्र कुमार गुजराल पर बहुत नाराज हुए।

आपातकाल लगाने की सलाह पश्चिम बंगाल के सीएम सिद्धार्थ शंकर रे ने दी थी

चूंकि विपक्ष ने इंदिरा गांधी के इस्तीफे को लेकर अपना आंदोलन तेज कर दिया था इसलिए सरकार खुद को मुश्किल में पा रही थी। ऐसे में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाने की सलाह दी। उनका कहना था कि अनुच्छेद 352 के जरिये आंतरिक आपातकाल लागू कर संकट को टाला जा सकता है। इस विचार को इंदिरा गांधी और उनके सहयोगियों ने स्वीकार कर लिया।

25 जून की रात को लागू हुआ आपातकाल

सभी तरह के कानूनी पक्षों पर विचार करने के बाद 25 जून की रात सरकार की तरफ से अनुच्छेद 352 लगाने का निर्णय अनुमोदन के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति के पास भेजा गया। उन्होंने आपातकाल लगाने वाले उस काले पन्ने पर बिना किसी हीला-हवाली के हस्ताक्षर कर दिए और इस तरह देश में आपातकाल लागू हो गया।

आपातकाल लागू होने के बाद सरकार का चला चाबुक

25-26 जून की रात को बहादुरशाह जफर मार्ग, जिस पर अधिकतर समाचार पत्रों के कार्यालय हैं, की बिजली काट दी गई। विपक्ष के तमाम नेताओं को मध्य रात्रि बाद उनके स्थानों से उठाया गया और जेलों में बंद कर दिया गया। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक लगा दी गई। नागरिकों के मौलिक अधिकार के अनुच्छेद 14, 21 और 25 को निलंबित कर दिया गया। समाचार पत्रों पर सेंसरशिप लगाकर सेंसर अधिकारी नियुक्त कर दिए। बिना उनकी अनुमति के कुछ भी नही छप सकता था। इसके विरोध में कई समाचार पत्रों के संपादकीय खाली छोड़ दिए गए। अनेक सामाजिक और सांस्कृतिक संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया। उनके सदस्यों पर अमानवीय अत्याचार ढाये गए। इन यातनाओं से विभिन्न जेलों में 63 बंदियों की जाने चली गईं।

आपातकाल थोपे जाने से लोगों का फूटा गुस्सा

आपातकाल थोपे जाने से लोगों का गुस्सा फूटा। इसे दबाने के लिए प्रमुख विपक्षी नेता जेलों में बंद कर दिए गए। इसी दौरान इंदिरा गांधी ने लोकसभा का कार्यकाल दो साल बढ़ा दिया। संविधान में 42वां संविधान संशोधन किया जिसमें संविधान की प्रस्तावना में पंथनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द जोड़े गए। इस बात की व्यवस्था भी की गई कि कैबिनेट के निर्णयों को अदालत में चुनौती नही दी जा सकती। मीसा और भारत सुरक्षा अधिनियम बनाए गए जिनके तहत किसी को भी अकारण जेलों में बंद रखा जा सकता था और उसे अदालत में चुनौती भी नहीं दी जा सकती थी। इस काले दौर को रोका जा सकता था, अगर सर्वोच्च न्यायालय ने तानाशाही प्रवृत्तियों के खिलाफ खड़े होने का फैसला किया होता।

इंदिरा सरकार की तानाशाही

आपातकाल की घोषणा के बाद इंदिरा सरकार की तानाशाही के खिलाफ विभिन्न उच्च न्यायालयों में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाएं दायर की गईं। इन याचिकाओं पर जबलपुर हाईकोर्ट समेत अन्य उच्च न्यायालयों ने कहा कि आपातकाल के बावजूद बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाएं दायर करने का नागरिकों को अधिकार है। इंदिरा गांधी की सरकार ने इन निर्णयों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की। इन सभी मामलों पर सुप्रीम कोर्ट ने एक साथ सुनवाई की। यह ऐतिहासिक मुकदमा एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ल मुकदमे के नाम से चर्चित हुआ। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों की पीठ में से चार जजों, चीफ जस्टिस एएन रे, एमएच बेग, वाईवी चंद्रचूड़ और पीएन भगवती ने बहुमत से यह फैसला सुनाया कि सरकार किसी भी नागरिक के मौलिक अधिकारों का हनन कर सकती है। यह एक तरह से आपातकाल को सही ठहराने वाला फैसला था।

जस्टिस एचआर खन्ना हुए थे इंदिरा की नाराजगी के शिकार

सुप्रीम कोर्ट के पीठ के सदस्य जस्टिस एचआर खन्ना ने अपने साथियों के फैसले से असहमति जताई थी। इस असहमति के कारण उन्हें इंदिरा सरकार की नाराजगी का सामना करना पड़ा। जनवरी 1977 में जब जस्टिस एएन रे रिटायर हुए तो जस्टिस एचआर खन्ना वरिष्ठता क्रम में सबसे ऊपर थे, लेकिन इंदिरा सरकार ने उनकी वरिष्ठता की अनदेखी कर उनसे जूनियर एचएम बेग को मुख्य न्यायाधीश बनाया। इंदिरा सरकार ने उन न्यायाधीशों को भी किसी न किसी तरह प्रताड़ित किया जिन्होंने आपातकाल के खिलाफ फैसले दिए थे।

18 जनवरी 1977 को आम चुनाव की घोषणा

कहते हैैं कि इंदिरा गांधी ने जनवरी 1977 में एक खुफिया सर्वे करवाया। उसके निष्कर्षों के तहत उन्हें भरोसा हो गया कि चुनावों में उन्हें तीन सौ से अधिक सीटें मिल सकती हैं। इसलिए 18 जनवरी 1977 को इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग कर आम चुनाव की घोषणा कर दी।

चुनाव में कांग्रेस हुई बुरी तरह पराजित

सभी राजनीतिक बंदियों को जेलों से रिहा कर दिया गया। तब लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में विपक्ष एकजुट हुआ और चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह पराजित हुई। नए राजनीतिक दल जनता पार्टी का गठन हुआ मार्च 1977 में संपन्न लोकसभा चुनावों में जीत के बाद जनता पार्टी ने मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री चुना। 21 मार्च 1977 को आपातकाल हटाया गया।

आपातकाल का स्मरण जरूरी

आपातकाल का स्मरण जरूरी है, लेकिन ऐसा करते समय यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि तत्कालीन सुप्रीम कोर्ट अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरा। उसने जो भूल की उसकी देश को भारी कीमत चुकानी पड़ी।

( लेखक आकाशवाणी में सीनियर रेडियो ब्राडकास्टर रहे हैैं )

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