[ अवधेश कुमार ]: विधानसभा चुनावों में मतदान कई कारकों पर निर्भर करता है जिसमें शीर्ष नेता एक कारक हो सकता है, केवल वही निर्णायक नहीं हो सकता। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में जहां भाजपा और कांग्रेस के बीच अधिकांश सीटों पर सीधा मुकाबला था वहां मुख्यमंत्री पहले से मौजूद थे। इसलिए यह केवल एक नेता की लोकप्रियता का सर्वेक्षण भर नहीं था। बावजूद इसके यह भी नहीं माना जा सकता कि इन चुनावों से मोदी सरकार और भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के लिए संदेश नहीं है। यह कहना आसान है कि जब आप केंद्र और प्रदेश दोनों की सत्ता में हैं तो सत्ता विरोधी रुझान स्वाभाविक होता है, किंतु ऐसा क्यों होता है? जब आप अच्छा शासन देंगे, जनता के हितों का ध्यान रखेंगे, कानून और व्यवस्था कायम रखेंगे, अपने समर्थकों और कार्यकर्ताओं का विश्वास बनाए रखेंगे तो सत्ता विरोधी रुझान हो ही नहीं सकता।

यही बात राजस्थान पर लागू होती है। यदि परिणाम भाजपा के अनुकूल नहीं हैं तो इन सभी पहलुओं में किसी की या कुछ की अनदेखी हुई है। चुनाव परिणामों का विश्लेषण करते समय हम बड़ी बातों पर ज्यादा ध्यान देते हैं, पर कई बार सामान्य बातें भी मतदाताओं के निर्णय को प्रभावित करतीं हैं। कुछ बातें पहले से साफ थीं। मसलन अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण कानून में उच्चतम न्यायालय द्वारा किए गए संशोधन को संसद में पलटने के निर्णय से सवर्ण वर्गों में असंतोष था। हालांकि इसके पीछे सभी पार्टियों की भूमिका थी, लेकिन शासन में होने के कारण मुख्य निशाने पर भाजपा थी।

कांग्रेस ने रणनीति के तहत संसद में विधेयक पारित होने के पहले तो आक्रामकता दिखाई, पर जब लगा कि इससे बड़े वर्ग में नाराजगी पैदा हो रही है तो उसने इस विषय पर बोलना ही बंद कर दिया। भाजपा ने नाराजगी को ठीक से समझकर उसे दूर करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया। यह भाजपा का मुख्य जनाधार रहा है। इसमें लोग गुस्से में मतदान न करें, नोटा का बटन दबा दें या विपक्ष को दे दें तो परिणाम पक्ष में आ नहीं सकता। हालांकि मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि बिना जांच किसी की गिरफ्तारी नहीं होगी, दूसरे राज्यों में यह भी नहीं हुआ। मध्य प्रदेश में सपाक्स नाम से पार्टी भी बन गई जिसने चुनाव में अच्छा प्रदर्शन भले नहीं किया, लेकिन उसने मुख्य रूप से भाजपा के ही वोट काटे। यह भाजपा के लिए ऐसा संकेत है जिससे बचने का रास्ता उसे निकालना होगा।

कांग्रेस ने रामपथगमन से लेकर साधु-संतों की खुशामद, गो सरंक्षण, वेद पर शोध आदि घोषणाएं भाजपा के समांतर स्वयं को हिंदुत्व के प्रति ज्यादा निष्ठावान साबित करने के लिए ही किया। कांग्रेस के हिंदुत्व तेवर की काट के लिए योगी आदित्यनाथ उतरे। राजस्थान में नाथ पंथियों की बड़ी संख्या है जिसके वे सर्वोच्च संत हैं। रामजन्मूभूमि का मुद्दा सामने था। योगी आदित्यनाथ के लिए कोई आश्वासन देना संभव नहीं था। इस पर कोई बात प्रधानमंत्री ही कह सकते थे। उन्होंने राजस्थान में बोला भी तो केवल इतना कि कांग्रेस बाधा बन रही है। इससे मंदिर या हिंदुत्व के आधार पर उससे जुड़ने वाले मतदाता संतुष्ट नहीं हो सकते थे। कांग्रेस ने मंदिर पर केवल यह कोशिश की कि वह इसकी विरोधी न दिखे। यह तो नहीं माना जा सकता कि मतदाताओं ने राहुल को मोदी से बडा हिंदुत्व का समर्थक मान लिया, पर भाजपा के मुखर न होने से उसको निराशा अवश्य हुई। चुनाव का सामान्य सूत्र है कि यदि आपके मूल समर्थक और कार्यकर्ता उत्साहित नहीं हों तो मतदान केंद्रों तक मतदाताओं के आने के लिए प्रेरित करने वाली मूल शक्ति कमजोर हो जाती है।

यह कारक चुनाव परिणामों का निर्धारक रहा है। कांग्रेस किसी तरह अपने पुराने ब्राह्मण मतदाताओं को भाजपा से तोड़ना चाहती थी। इसलिए राहुल गांधी का पूजा एवं गोत्र दांव चला जिसका कुछ असर हुआ है। कांग्रेस ने किसानों के नाम पर हुए आंदोलन को ध्यान में रखते हुए कर्ज माफी का वादा किया। छत्तीसगढ़ में तो गंगाजल लेकर कांग्रेस नेताओं ने कसम खाई कि किसानों का कर्ज अवश्य माफ करेंगे। छत्तीसगढ़ एवं मध्य प्रदेश से यह खबर आने लगी थी कि किसान अपना धान बेचने सहकारी केंद्रों पर नहीं आ रहे और न कोई बैंक की किश्त दे रहा है। इसे कांग्र्रेस की कर्ज माफी के वायदे के प्रभाव के साथ जोड़ना बिल्कुल गलत नहीं। मध्य प्रदेश में 230 में से 170 सीटें ग्रामीण क्षेत्रों में हैं जहां भारी मतदान हुआ। हालांकि भाजपा ने सब जगह उज्ज्वला योजना के तहत दिए गए गैस कनेक्शन, प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत मिले घरों, शौचालयों एवं बिजली कनेक्शनों पर भरोसा किया। इन्होंने भाजपा की प्रतिष्ठा बचाई, लेकिन यह इतना अधिक प्रभावी नहीं हो पाया कि हर जगह 2013 के परिणामों की पुनरावृत्ति कर दे।

ऐसा नहीं है कि भाजपा को विरोधी रुझानों और रणनीतियों का बिल्कुल आभास नहीं था। उसने सभी विधायकों एवं मंत्रियों का रिपोर्ट कार्ड खंगाला। पन्ना प्रमुखों से लेकर ऊपर तक के कार्यकर्ताओं के साथ बैठकें चलतीं रहीं। निर्ममता से विधायकों के टिकट भी काटे गए। राजस्थान में छह मंत्रियों सहित 56 तो मध्य प्रदेश में पांच मंत्रियों सहित 53 विधायकों की जगह नए उम्मीदवार उतारे गए। इसका कई जगह स्वागत हुआ तो बागी कूद पड़े और भितरघात भी हुआ। राजस्थान में बागियों और भितरघात का असर साफ दिखा है। सचिन पायलट ने पिछले चार वर्षो में राजस्थान में जिस तरह सरकार विरोधी माहौल बनाया उसे जितनी बड़ी चुनौती के रूप में भाजपा को लेना चाहिए था शायद नहीं लिया।

ऐसा नहीं है कि राजस्थान में वसुंधरा ने काम नहीं किए। काफी काम किए, लेकिन पार्टी और समर्थकों को साथ बनाए रखने में वह पूरी तरह सफल नहीं रहीं। आखिर पिछले विधानसभा चुनाव में 12 प्रतिशत मतों के बड़े अंतर से भाजपा जीती थी। लोकसभा चुनाव में यह अंतर 20 प्रतिशत तक चला गया। इतने बड़े अंतर को पाटने का अर्थ है कि वसुंधरा एवं सरकार के प्रति असंतोष व्यापक था। छत्तीसगढ़ में पिछला चुनाव भाजपा ने केवल .75 प्रतिशत के अंतर से जीता था। इतना महीन अंतर कभी भी पाटा जा सकता था। 2003 से 2013 तक हार का अंतर घटता रहा। रमन सिंह इस खतरे को दूर करने में जितना सफल हो सकते थे नहीं हुए।

[ लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं ]