संजय गुप्त। इस बार लोकसभा चुनाव नतीजों से भाजपा की उम्मीदों को करारा झटका लगा। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने यह माहौल बनाया था कि वह इस बार अपने सहयोगी दलों के साथ चार सौ से अधिक सीटें हासिल करेगी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। जहां उसे 240 सीटें मिलीं, वहीं वह सहयोगी दलों के साथ 293 सीटों तक पहुंच गई। मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं, लेकिन इस बार उन्हें गठबंधन सरकार का नेतृत्व करना पड़ेगा।

भाजपा के कमजोर प्रदर्शन के कई कारण रहे। इनमें से एक प्रत्याशियों का चयन रहा और दूसरा भाजपा की केंद्र, राज्य और जिला इकाइयों में समन्वय की कमी। इस बार भाजपा ऐसा कोई राष्ट्रीय मुद्दा नहीं दे पाई, जो पूरे देश को आकर्षित कर पाता। पिछली बार बालाकोट एयरस्ट्राइक के कारण राष्ट्रवाद के मुद्दे ने देश को गहराई से प्रभावित किया था। इस बार ऐसा कोई मुद्दा नहीं था, जो जात-पात और क्षेत्र की राजनीति के असर को कम कर पाता। इसके कारण तमाम लोगों ने स्थानीय मुद्दों और जातीय समीकरणों को ध्यान में रखकर वोट किया। भाजपा के कमजोर प्रदर्शन में उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और हरियाणा की प्रमुख भूमिका रही। इसके अलावा पश्चिम बंगाल में उसकी अपनी सीटें बढ़ने के बजाय घट गईं।

यदि उत्तर प्रदेश की बात की जाए तो यहां भाजपा प्रत्याशी इस उम्मीद में रहे कि इस बार भी मोदी के नाम के सहारे उनकी नैया पार लग जाएगी। यूपी में भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग के मुकाबले सपा की सोशल इंजीनियरिंग अधिक प्रभावी रही। मौजूदा सांसदों के प्रति नाराजगी भी भाजपा के कमजोर प्रदर्शन का कारण रही। महाराष्ट्र में जोड़-तोड़ की राजनीति जनता को रास नहीं आई। इसके अलावा क्षेत्रीय समीकरण भाजपा पर भारी पड़े। जोड़-तोड़ की राजनीति की अपनी एक सीमा होती है। शिवसेना और एनसीपी में टूट का लाभ इन दोनों दलों से टूटकर बने दलों को नहीं मिला।

भाजपा के कमजोर प्रदर्शन के चलते उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने इस्तीफे की पेशकश की है। देखना है कि वह स्वीकार होता है या नहीं? राजस्थान में कुछ समुदायों की नाराजगी और आपसी गुटबाजी भाजपा को महंगी पड़ी। यही हाल हरियाण में भी रहा। भाजपा इसके लिए जानी जाती है कि वह प्रत्याशियों का चयन सर्वेक्षण के आधार पर ठोक-बजाकर करती है, लेकिन वह इस बार बेहतर प्रत्याशियों का चयन नहीं कर सकी। लगता है उसके सर्वेक्षण एक्जिट पोल सरीखे रहे। रही-सही कसर प्रत्याशियों के प्रति जनता की नाराजगी ने पूरी कर दी। एक तो मौजूदा सांसदों ने अपने-अपने क्षेत्रों में काम नहीं किया था और दूसरे पार्टी कार्यकर्ताओं से कटे-कटे रहे। पार्टी कार्यकर्ताओं की उदासीनता के साथ संघ के स्वयंसेवकों की बेरुखी भी भाजपा को भारी पड़ी।

भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा के इस कथित बयान को संघ नेताओं और कार्यकर्ताओं की नाराजगी का कारण माना जा रहा है कि पार्टी को आरएसएस की जरूरत नहीं। निश्चित रूप से प्रधानमंत्री मोदी ने जोरदार प्रचार किया। उन्होंने दो सौ से अधिक रैलियां और रोड शो किए, लेकिन स्थानीय मुद्दों के उभार के कारण उनकी बातों का वैसा प्रभाव नहीं पड़ा, जैसा पड़ना चाहिए था। प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले दस साल में अनेक उल्लेखनीय कार्य किए और कोविड महामारी के बावजूद देश की आर्थिक प्रगति को बनाए रखा। इस आर्थिक प्रगति की मिसाल नहीं मिलती।

अर्थव्यवस्था की बेहतरी के कारण प्रधानमंत्री 2047 तक भारत को विकसित देश और तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने पर जोर देने में लगे थे, लेकिन जनता और विशेष रूप से निर्धन जनता उनकी ओर से बनाए जा रहे नैरेटिव से इसलिए प्रभावित नहीं हुई कि उसे यह समझ में नहीं आया कि विकसित या तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश में उनके लिए क्या है और इससे उन्हें क्या हासिल होने जा रहा है? उन्हें शिक्षा और स्वास्थ्य के मोर्चे पर अनेक खामियां दिख रही थीं। निर्धन तबका महंगाई और बेरोजगारी से भी त्रस्त था। यह अपने निकट भविष्य के बारे में अधिक चिंता करता है। इसीलिए वह विकसित भारत के नारे से खुद को जोड़ नहीं सका। उसे लगा कि यह नारा तो अमीर और सक्षम वर्ग के हितों को अधिक पूरा करने वाला है।

भाजपा ने इस बार अपने घोषणापत्र में ऐसी कोई घोषणा नहीं की, जो निर्धन तबके को आकर्षित कर पाता। पिछली बार उसने ऐसी अनेक घोषणाएं की थीं। जहां भाजपा रेवड़ी संस्कृति से दूर रही, वहीं कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों ने अनेक लोकलुभावन घोषणाएं कीं, जिनसे निर्धन वर्ग उनकी ओर आकर्षित हुआ। कांग्रेस की इस घोषणा ने खासा असर डाला कि उसकी सरकार बनी तो गरीब परिवारों की महिलाओं को हर साल खटाखट एक लाख रुपये सालाना मिलेंगे। विपक्षी दलों और खासकर कांग्रेस ने भाजपा के चार सौ पार नारे का उल्लेख करते हुए यह झूठा प्रचार भी किया कि अगर भाजपा और सहयोगी दलों को इतनी सीटें मिल गईं तो वह संविधान और आरक्षण खत्म कर देगी। इसका असर एससी, एसटी और ओबीसी वर्गों पर पड़ा और उन्होंने भाजपा के विरोध में वोट किया।

प्रधानमंत्री मोदी ने देश को विकसित बनाने का जो नैरेटिव खड़ा किया, उसका हश्र वाजपेयी सरकार के इंडिया शाइनिंग नारे जैसा हुआ। इस नौरेटिव से निर्धन तबका प्रभावित नहीं हुआ और इसके दुष्परिणाम भाजपा को उठाने पड़े। इस सबके बावजूद भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरी है। यह यही बताता है कि मोदी का देश की जनता पर अभी भी प्रभाव है और वह उन्हें एक सशक्त नेता के रूप में देखती है। कांग्रेस कुछ भी दावा करे, वह भाजपा की 240 सीटों के मुकाबले 99 सीटें ही हासिल कर सकी है। चूंकि भाजपा ने सहयोगी दलों के साथ आसानी से बहुमत हासिल कर लिया है, इसीलिए नरेन्द्र मोदी तीसरी बार शपथ लेने जा रहे हैं।

वह गुजरात के मुख्यमंत्री और भारत के प्रधानमंत्री के रूप में गत 23 साल से बहुमत की सरकार चला रहे हैं। इस बार गठबंधन की सरकार चलाना उनके लिए नया अनुभव होगा। चूंकि वह एक कुशल नेता हैं, इसलिए उनके लिए घटक दलों के साथ मिलकर सरकार चलाना कठिन नहीं होगा, पर घटक दलों को भी देखना होगा कि वे अपने राजनीतिक हितों के लिए दबाव की राजनीति न करें और देश को आगे ले जाने में भाजपा के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलें।

[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]