[डॉ. एके वर्मा]। दक्षिण भारत के बड़े राज्य कर्नाटक में भाजपा ने 2008 के बाद दोबारा दस्तक दी। बहुमत के लक्ष्य से कुछ दूर रहने पर भी सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते राज्यपाल वजुभाई वाला ने भाजपा विधायक दल के नेता बीएस येद्दयुरप्पा को सरकार बनाने का आमंत्रण दिया। कुछ नाटकीय घटनाक्रम के बाद उन्होंने मुख्यमंत्री की शपथ भी ले ली। इसके पहले कांग्रेस ने जनता दल-सेक्युलर के एचडी कुमारस्वामी को आनन-फानन समर्थन देकर पिछले दरवाजे से सरकार बनाने की कोशिश की। इस कोशिश में नाकाम रहने पर उसने राज्यपाल के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। रात को हुई सुनवाई में सर्वोच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की पीठ ने कांग्रेस के वकील अभिषेक मनु सिंघवी और भाजपा के वकील पूर्व अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी की दलीलें

सुनीं, लेकिन उसने राज्यपाल के निर्णय और येद्दयुरप्पा के शपथ ग्रहण पर रोक लगाने से मना कर दिया। इसके बाद इस पीठ के न्यायाधीशों- जस्टिस एके सीकरी, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस शरद अरविंद बोबडे ने येद्दयुरप्पा को जल्द विश्वास मत हासिल करने का आदेश दिया।

जाहिर है कि कर्नाटक में अनिश्चय की जो स्थिति मौजूद है वह बहुमत परीक्षण के बाद ही दूर होगी। बहुमत परीक्षण के नतीजे कुछ भी हों, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि आगामी लोकसभा चुनाव के ठीक पहले दक्षिण भारत के इस महत्वपूर्ण राज्य में भाजपा की सरकार बनना जहां नरेंद्र मोदी की बढ़ती लोकप्रियता का संकेतक है वहीं यह ‘कांग्रेस-मुक्त-भारत’ या ‘भाजपा-सिस्टम’ की ओर एक और कदम है। कांग्रेस जैसा राष्ट्रीय दल अब केवल पंजाब, पुद्दुचेरी और मिजोरम में सिमट कर रह गया है, पर उसे संगठनात्मक, नेतृत्वमूलक और विचारधारा के स्तर पर गंभीर परिवर्तन करने की जरूरत महसूस नहीं हो रही। इतिहास कांग्रेस को इस बात के लिए जिम्मेदार मानेगा कि अपनी हठधर्मिता के कारण उसने भारतीय लोकतंत्र को उसी ‘एक ध्रुवीय राजनीति’ की ओर धकेल दिया जो स्वतंत्रता के बाद व्याप्त थी और जिससे निकाल कर ‘हम भारत के लोग’ उसे बमुश्किल बहुदलीय-बहुध्रुवीय व्यवस्था की ओर लाए।

संविधान का अनुच्छेद 163 राज्यपाल को विशेषाधिकार देता है कि त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में किसे मुख्यमंत्री के लिए आमंत्रित किया जाए? यह उसका ऐसा विशेषाधिकार है जिसमें सामान्यत: न्यायालय हस्तक्षेप नहीं करता और इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने येद्दयुरप्पा के शपथ ग्रहण पर रोक नहीं लगाई। संविधान लागू होने के बाद इस संबंध में कोई स्पष्ट व्यवस्था विकसित नहीं हो पाई कि त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में राज्यपाल सबसे बड़े दल के नेता को मुख्यमंत्री की शपथ के लिए बुलाए या चुनाव बाद किए गए गठबंधन के नेता को? 2002 में जम्मू-कश्मीर, 2005 में झारखंड और 2013 में दिल्ली में क्रमश: कांग्रेस-पीडीपी के मुफ्ती मुहम्मद सईद, झारखंड-मुक्ति मोर्चा के शिबू सोरेन और आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया गया जबकि जम्मू-कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस और झारखंड एवं दिल्ली में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी थी।

हाल में गोवा और मणिपुर में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी न होने के बावजूद सरकार बनाने के लिए आमंत्रित की गई, जबकि कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने की वकालत कर रही थी। त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में राज्यपाल जब अनुच्छेद 164 के तहत सरकार बनाने के लिए किसी को मुख्यमंत्री की शपथ दिलाने के लिए आमंत्रित करता है तो उसके सामने कई प्रश्न होते हैं। क्या सबसे बड़ा दल जनता की पसंद है? क्या उसका नेता स्थिर सरकार दे सकता है? क्या वह सदन में शीघ्र अपना बहुमत सिद्ध कर सकता है? राज्यपाल पर संविधान कोई बंदिश नहीं लगाता। कर्नाटक में राज्यपाल ने येद्दयुरप्पा को 15 दिन का समय दिया, लेकिन जैसा कि अपेक्षित था, सुप्रीम कोर्ट ने इस लंबी अवधि में प्रभावी कटौती कर दी।

अब देखना है कि येद्दयुरप्पा विश्वास मत हासिल कर पाते हैं या नहीं? यदि वह विश्वास मत हासिल नहीं कर पाते तो भी राज्यपाल पर कोई संवैधानिक दबाव नहीं कि वह कांग्रेस-जनता दल-एस को सरकार बनाने के लिए बुलाए ही। वह बुला भी सकता है और नहीं भी। वह राष्ट्रपति शासन की भी संस्तुति कर सकता है और विधानसभा भंग भी कर सकता है। एसआर बोम्मई मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि राज्यपाल की जिम्मेदारी है कि वह उसी पार्टी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करे जो स्थिर सरकार दे सके। सरकारिया आयोग ने 1983 में जो प्रतिवेदन दिए और ‘रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत सरकार’ मुकदमें (2005) में जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने मान्यता दी उसमें स्पष्ट रूप से उस क्रम का उल्लेख किया गया है जिसमें त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में राज्यपाल किसी को आमंत्रित करेगा। सर्वप्रथम वह चुनाव पूर्व गठबंधन को आमंत्रित करेगा। इसके बाद वह सबसे बड़े दल को सरकार बनाने का न्योता देगा और तीसरे क्रम में वह चुनाव बाद किए गए गठबंधन को बुलाएगा। कर्नाटक में कांग्रेस-जदएस गठबंधन चुनाव बाद वाला गठबंधन है।

ज्ञात हो कि जब फरवरी 2005 में बिहार विधानसभा त्रिशंकु रूप में सामने आई और लालू यादव की राजद को बहुमत नहीं मिल सका तो राज्यपाल बूटा सिंह ने नीतीश कुमार के नेतृत्व में भाजपा-जद-यू के चुनावपूर्व गठबंधन को सरकार बनाने का मौका नहीं दिया और राष्ट्रपति शासन की शिफारिश कर दी। जब नीतीश कुमार ने अप्रैल में सरकार बनाने का दावा किया तो उनको मौका दिए बिना बूटा सिंह ने विधानसभा भंग कर दी। सर्वोच्च न्यायालय ने बूटा सिंह की कड़ी निंदा की और उस फैसले को असंवैधानिक करार दिया। कर्नाटक में उभरे माहौल की चर्चा कर रहे राजनीतिक दलों को अतीत के ये प्रसंग अवश्य याद रखने चाहिए। मौजूदा परिदृश्य में येद्दयुरप्पा के लिए आसानी से विश्वास मत हासिल करना तभी संभव होगा जब कांग्रेस एवं जद-एस के अनेक नव निर्वाचित विधायक अपने-अपने दलों से नाराज हों और वे भाजपा को सत्ता में देखना चाहते हों।

संभव है कि कांग्रेस-जद-एस के कुछ विधायक मतदान में उपस्थित ही न हों और मुख्यमंत्री येद्दयुरप्पा बहुमत सिद्ध कर ले जाएं। ऐसा करने से वे विधायक ‘दल-बदल कानून’ की धारा 2(बी) के तहत अपने पार्टी के ‘व्हिप’ का उल्लंघन करने के कारण विधानसभा की सदस्यता से वंचित हो सकते हैं। जो भी हो, येद्दयुरप्पा के विश्वास मत हासिल करने की स्थिति में यह प्रश्न खड़ा होगा कि क्या वह कर्नाटक को एक ऐसी सरकार दे पाएंगे जो जनता को राहत दे सके? वैसे तो कर्नाटक विकसित राज्य माना जाता है, लेकिन अभी वहां विकास की अनंत संभावनाएं हैं। भाजपा को कन्नड़ अस्मिता और लिंगायत जैसे संवेदनशील प्रश्नों का भी उत्तर खोजना होगा, क्योंकि कांग्रेस आगामी लोकसभा चुनावों में इन प्रश्नों को पुन: जीवित करने और उनका राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश जरूर करेगी। हालांकि लोकसभा चुनावों में कांग्रेस और राहुल का भाजपा के खिलाफ महागठबंधन की धुरी बनने की संभावना काफी कमजोर हो गई है, लेकिन येद्दुरप्पा के पास भी समय बहुत कम है।

(लेखक सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैं)