नई दिल्ली [आशुतोष झा]। चुनावी बिसात बिछ चुकी है। विपक्ष में जश्न का प्रदर्शन हो रहा है कि ऐसे वक्त पर भाजपा के खिलाफ मोर्चे का आधार बनने लगा है जब राजग खेमे में हलचल है। शिवसेना अलग होने की घोषणा कर चुकी है और टीडीपी नाता तोड़ चुकी है। बिहार में सहयोगी जदयू फिर से विशेष राज्य के नारे को धार देने लगा है तो कुछ अन्य छोटे दलों की ओर से बार-बार याद दिलाया जा रहा है कि उनके साथ संवाद कम हो रहा है। इन राजनीतिक घटनाओं के बावजूद अगर भाजपा नेतृत्व की ओर से बार-बार पहले से भी बड़े जनादेश का दावा किया जा रहा है तो उसे यूं ही खारिज नहीं किया जा सकता है। बल्कि विपक्ष को भी सतर्क हो जाना चाहिए।

यह समझ लेना चाहिए कि शरतंज की बाजी बहुत पहले से बिछी है और विपक्ष अपने कई दांव गंवा चुका है। आधी बाजी खत्म होने के बाद मैदान में उतरना तभी सार्थक होगा जब बाकी बचे हर दांव पर पूरे अधिकार के साथ जीत हो। जिस तरह भाजपा का भौगोलिक और सामाजिक विस्तार हुआ है और भाजपा अध्यक्ष उतने भर से संतुष्ट नहीं है, उसका साफ संकेत है कि अगला एक साल क्या रंग दिखाएगा। अगली संसद में बहुमत की लड़ाई अबकी जनता के बीच आधे से ज्यादा मत की लड़ाई होगी। भाजपा ने इसकी तैयारी दो वर्ष पहले ही शुरू कर दी थी। विपक्ष को यह आंकना होगा कि वह कितने कदम चल पाया है।

गणित की तरह चुनाव की विवेचना करें तो सब कुछ साफ-साफ दिखता है। पिछले लोकसभा चुनाव में 17 करोड़ से कुछ ज्यादा वोटरों ने भाजपा का साथ दिया और पार्टी सत्ता में आ गई। 2009 के मुकाबले देखें तो कांग्रेस या दूसरे दलों के वोट में ज्यादा गिरावट नहीं आई, लेकिन मोदी प्रभाव ने भाजपा के खाते में लगभग नौ करोड़ नए वोटर जोड़ दिए। लगभग इसी संख्या में नए वोटरों की संख्या बढ़ी थी। अगली लड़ाई भी इसी मापदंड और रणनीति पर लड़नी होगी। एक रोचक तथ्य और है कि कुल वोटर और मत डालने वाले वोटरों में लगभग 30 करोड़ का अंतर देखा जा रहा है। ऐसे में विपक्षी गठबंधन के बावजूद घटता-बढ़ता मतदान फीसद बहुत कुछ असर दिखाएगा। यह नेतृत्व का असर होगा कि कितने वोटर सक्रिय होते हैं। इस गणित पर विपक्ष की कितनी नजर है? और क्या अब तक कोई विपक्षी दल इसे साधने की कोशिश करता दिखा? इसका जवाब भी उन्हें ही देना होगा, लेकिन एक नजर भाजपा पर डालें- लगभग दो वर्ष पहले भाजपा मुख्यमंत्रियों की बैठक में गरीब कल्याण योजना के बाबत एक टास्क फोर्स का गठन किया गया। दो तीन भाजपा मुख्यमंत्रियों के साथ संगठन के कुछ लोगों को जोड़ा गया और तय हुआ कि कम से कम भाजपा और राजग शासित राज्यों में गरीबों की हर योजना संवेदनशील तरीके से लागू हो। देश में लगभग 22 करोड़ गरीब परिवार हैं। वहीं भाजपा व राजग शासित राज्यों की संख्या 21 है। माना जा रहा है कि केंद्र सरकार और भाजपा का पूरा जोर इस पर है कि जनता समाज की संवेदनशीलता में आए बदलाव को महसूस करे।

इसके दो तरीके हैं और बचे हुए वक्त में दोनों का इस्तेमाल हो तो अचरज नहीं। एक तरीका था नोटबंदी का। एक छोटे वर्ग को इसने सींखचे में कस दिया था, लेकिन बहुत बड़ा वर्ग खुश था। जनता को योजनाओं के महत्व का अहसास तब हो जब उसे इसकी सबसे ज्यादा जरूरत हो। इसका एक उदाहरण भी मुख्यमंत्रियों की बैठक में मिला था जब प्रधानमंत्री ने उनसे यह सुनिश्चित करने को कहा था पीड़ित परिवारों को बीमा की राशि तत्काल मिलनी चाहिए। अब भाजपा का पूरा अभियान इस पर केंद्रित है कि बिजली, जीवन सुरक्षा बीमा, बच्चों के टीकाकरण जैसी सात अहम योजनाएं हर गांव के हर घर तक पहुंचें। गरीब परिवार की ओर से आवेदन लिखवाने से लेकर दफ्तर से उस पर मुहर लगवाने और घर तक बल्ब पहुंचाने का जिम्मा भाजपा कार्यकर्ताओं ने उठा लिया है। पचास फीसद वोट की इस लड़ाई में कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दलों के सामने एक बड़ी लकीर कई वर्षों से खींची जा रही है।

विपक्ष के एक दो बड़े चेहरे जो अलग-अलग राज्यों में हैं, उन्हें खासतौर पर अपना बहीखाता दिखाना होगा। दलित हो या आदिवासी या अगड़ी जाति का गरीब उसकी जरूरतें एक सी हैं। पांच लाख रुपये तक के इलाज की आयुष्मान योजना भी इसी का अंग है। एक बड़ी कमी अभी भी बची है वह है पुलिस सुधार। दरअसल लगभग सत्तर अस्सी फीसद मामलों में जनता के रोष का कारण पुलिस होती है। अधिकतर राज्यों मे भाजपा की सरकारें हैं और पार्टी के अधिकतर सांसद भी यहीं से चुनकर आते हैं।

अब नजर इस पर है कि बचे हुए साल में मोदी सरकार के पिटारे में क्या-क्या हो सकता है। राज्य में मुख्यमंत्री रहते हुए और बतौर प्रधानमंत्री नरेंद मोदी साहसिक व जोखिम भरे कदम उठाते रहे हैं। क्या आगे भी वह कुछ कड़वी दवा दे सकते हैं? फिलहाल इसकी उम्मीद कम दिखती है। हां, वह मध्यम वर्ग जरूर राहत का अहसास कर सकता है जो पचास फीसद की लड़ाई में मजबूती दे। और यह मध्यमवर्ग अक्सर आयकर व दूसरे करों की दृष्टि से ही सोचता है। रोजगार या स्वरोजगार की बहस के बीच आने वाला साल कुछ नई पहल ला सकता है।

पर यह भाजपा भी जानती है और विपक्षी पार्टियां भी कि सभी मुद्दों के ऊपर आखिर में नेतृत्व ही आता है। भारतीय जनमानस ही कुछ ऐसा है कि वह स्वाभिमान के साथ आधे पेट सो सकता है। भाजपा की पहचान राष्ट्रवादी रही है और आने वाला साल खासकर आतंक या आतंकियों को लेकर कोई संदेश दे सकता है। चुनावी राजनीति में गठबंधन अहम होता है और हाल के कर्नाटक चुनाव ने इसे फिर से साबित किया है, लेकिन गणित दुरुस्त करने के लिए आपसी व जनता के साथ संबंधों का रसायन भी सटीक होना जरूरी है। फिलहाल इस रसायन पर काम करती सिर्फ भाजपा दिख रही है।

(लेखक दैनिक जागरण में राष्ट्रीय ब्यूरो प्रमुख हैं)