राहुल वर्मा: राष्ट्रपति पद के लिए भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी राजग और विपक्षी खेमे ने अपने-अपने प्रत्याशियों का एलान कर दिया। जहां सत्तारूढ़ पक्ष ने बहुत ही रणनीतिक रूप से द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति भवन भेजने की पहल की, वहीं विपक्ष की दमदार साझा उम्मीदवार उतारने की रणनीति धरी की धरी रह गई। शरद पवार जैसे कद्दावर नेता द्वारा राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनने से इन्कार करने के बाद फारूक अब्दुल्ला और गोपालकृष्ण गांधी ने भी इसके प्रति अनिच्छा जताई। इससे यही प्रतीत होता है कि विपक्ष की ओर से यह पहले ही हारी हुई लड़ाई थी और कोई भी उसमें बलिदान होने को तैयार नहीं था। जिस तरह चौथी पसंद के रूप में यशवंत सिन्हा के नाम पर सहमति बनी, उससे वह एक मजबूरी का विकल्प ही अधिक लगते हैं।

भाजपा ने द्रौपदी मुर्मू के नाम पर मुहर लगाकर विपक्षी खेमे में और खलबली मचा दी है। अब हेमंत सोरेन जैसे जनजाति समुदाय के नेताओं के लिए बड़े धर्मसंकट और दुविधा की स्थिति उत्पन्न हो गई है। क्या वह चाहेंगे कि इतिहास उन्हें देश में पहली बार शीर्ष पद पर विराजमान होने जा रही जनजाति समुदाय की महिला की राह में बाधक बनने वाले नेता के रूप में याद करे? केवल हेमंत सोरेन ही नहीं छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान और ऐसे ही जनजाति बहुल वाले राज्यों के विपक्षी नेताओं के समक्ष भी यह संकट उत्पन्न होगा कि वे पार्टी लाइन पर मतदान करें या फिर सामाजिक अस्मिता के पहलू को प्राथमिकता दें?

यह एक संयोग ही है कि इस बार रायसीना की राह में उतरे दोनों प्रत्याशियों का झारखंड से कोई न कोई संबंध है। यशवंत सिन्हा जहां अविभाजित बिहार में जन्में और झारखंड की राजनीति में सक्रिय रहे, वहीं द्रौपदी मुर्मू झारखंड की राज्यपाल रह चुकी हैं। अब दोनों अपने अभियान को परवान चढ़ाएंगे। यह अभियान चाहे जिस प्रकार चलाया जाए, द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति चुना जाना एक औपचारिकता मात्र रह गया है। स्वतंत्र भारत का इतिहास रहा है कि राष्ट्रपति चुनाव में कभी भी सत्तापक्ष के उम्मीदवार को मुंह की नहीं खानी पड़ी। इस बार भी राष्ट्रपति चुनाव के लिए राजग का पलड़ा पहले से ही भारी था। निर्वाचक मंडल में करीब 49 प्रतिशत मत पहले से ही उसके पास थे। बीजू जनता दल द्वारा द्रौपदी मुर्मू के लिए समर्थन की घोषणा से आवश्यक मत भी पूरे हो गए हैं। जदयू ने भी मुर्मू का साथ देने का एलान कर दिया है। यह लगभग तय है कि आने वाले दिनों में मुर्मू के लिए समर्थन निरंतर बढ़ता जाएगा।

आखिर भाजपा ने तमाम संभावित नामों में से द्रौपदी मुर्मू के नाम पर ही क्यों मुहर लगाई? इस प्रश्न के उत्तर की पड़ताल में कई पहलू स्पष्ट होते जाएंगे। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी प्रतीकों की राजनीति में महारत रखते हैं और द्रौपदी मुर्मू के चयन में भी उनकी कसौटी में यह पैमाना प्राथमिकता में रहा। मोदी सरकार पिछली बार दलित समुदाय से आने वाले रामनाथ कोविन्द को राष्ट्रपति बनाकर चुनावी दृष्टिकोण से एक बड़े वर्ग तक संदेश देने में सफल रही थी। इस बार उसने आदिवासी समुदाय को साधने का प्रयास किया। भारतीय समाज में पारंपरिक रूप से उपेक्षित रहे दलित और आदिवासी जैसे समुदाय के लोगों को इस प्रकार शीर्ष स्तर पर प्रतिनिधित्व देकर मोदी सरकार अपने 'सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास' वाले समावेशी राजनीति के नारे को वास्तविकता का रूप देने के लिए तत्पर दिखाई पड़ती है। मुर्मू का चयन भी इसी कड़ी के अंतर्गत किया है।

हाल-फिलहाल जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, उनमें आदिवासी समुदाय की अच्छी-खासी आबादी है। इसे देखते हुए यह प्रधानमंत्री मोदी का एक और राजनीतिक मास्टरस्ट्रोक कहा जा सकता है। इसी वर्ष गुजरात, अगले वर्ष के अंत में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे प्रमुख राज्यों में चुनाव होने हैं। फिर उसके अगले वर्ष 2024 में आम चुनाव प्रस्तावित हैं। यह ध्यान रहे कि देश के करीब सौ से अधिक निर्वाचन क्षेत्र ऐसे हैं, जहां आदिवासी समुदाय निर्णायक स्थिति में हैं। ऐसे में मोदी सरकार का यह कदम राज्यों में भाजपा को बढ़त दिलाने के साथ ही अगले आम चुनाव में लगातार तीसरी बार केंद्र की सत्ता पर पकड़ बनाए रखने में मददगार हो सकता है। इसके साथ ही, द्रौपदी मुर्मू का ओडिशा से होना भाजपा के लिए इस प्रदेश में अपनी राजनीतिक ताकत को बढ़ाने में भी मददगार होगा। इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री मोदी ने भाजपा के लिए पिछले कुछ वर्षों में महिला मतदाताओं का जो एक बड़ा वर्ग तैयार किया है, उसके लिए भी द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाने का दांव सही संदेश देने में सफल होगा।

द्रौपदी मुर्मू एक अत्यंत महत्वपूर्ण दौर में राष्ट्रपति का दायित्व संभालेंगी। उनका कार्यकाल 2022 से 2027 तक होगा। इस दौरान कई महत्वपूर्ण पड़ाव आएंगे। इसी वर्ष अगस्त में आजादी के अमृत महोत्सव का महत्वाकांक्षी आयोजन होना है। फिर 2024 के आम चुनाव होने हैं और उसमें यदि कोई खंडित जनादेश आता है तो उस स्थिति में राष्ट्रपति की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होगी। इसी दौरान 2025 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के सौ वर्ष पूरे होंगे। उसी वर्ष भारत अपनी गणतंत्रता के 75वर्ष पूरे करेगा, जिसके उपलक्ष्य में भी कई विशेष आयोजन होने स्वाभाविक हैं। इन सभी स्थितियों में भाजपा यही चाहेगी कि देश के शीर्ष संवैधानिक पद पर विराजमान व्यक्ति उसकी वैचारिकी से साम्य रखने वाला हो। भाजपा जिस प्रकार इतिहास और प्रतीकों को लेकर अपनी एक मुहिम चला रही है, उस पर वह शीर्ष स्तर से किसी प्रकार की राजनीतिक-वैचारिक असहमति या टकराव की स्थिति नहीं चाहेगी। इस दृष्टिकोण से मुर्मू की प्रतिबद्धता भी उनके चयन में निर्णायक बनी।

आने वाले दिनों में दोनों ही प्रत्याशी अपने-अपने पक्ष में समर्थन के लिए देश भर में दौरे करते हुए दिखाई पड़ेंगे, लेकिन इस संघर्ष का नतीजा पहले से ही तय दिखता है। भाजपा न केवल जीत की राह पर है, बल्कि उसने अपने सभी समीकरण भी साधने में सफलता हासिल कर ली है। इसके विपरीत स्वयं को मजबूत दिखाने की कोशिश में जुटे विपक्ष के हाथ से एक और अवसर फिसल गया।

(लेखक सेंटर फार पालिसी रिसर्च में फेलो हैं)