आचार्य मिथिलेशनंदिनीशरण। अयोध्या ने एक बार फिर से सबको चौंकाया है। भले ही यह प्रसंग राजनीतिक हो, परंतु इसकी प्रतिध्वनि अनेक आयामों में व्याप्त हुई है। इस लोकसभा चुनाव में अयोध्या (फैजाबाद) के भाजपा प्रत्याशी की पराजय विशेष उभरकर सामने आई है। विभिन्न प्रकार के वाद-प्रतिवादों के माध्यम से भाजपा सरकार द्वारा अयोध्या के लिए किए गए कामों और उनके चुनावी लाभ का भी आकलन किया जा रहा है। यद्यपि इस बार चुनाव परिणामों की हानि व्यापक है, पर अयोध्या का सामान्यीकरण नहीं कर सकते। इसीलिए यहां भाजपा प्रत्याशी की हार को कई रूपों में देखा जा रहा है।

यह हार नैतिक नहीं, रणनीतिक और प्रायः कूटनीतिक भी है। भाजपा प्रत्याशी लल्लू सिंह को लगभग पांच लाख मत मिले हैं और अयोध्या विधानसभा से सर्वाधिक मत भी मिले हैं। बावजूद इसके वह लोकसभा चुनाव में विजेता नहीं बन सके। उनकी पराजय ने प्रचलित हिंदू भावना को आहत किया है। कुछ लोग भांति-भांति के तर्कों से भाजपा प्रत्याशी को समर्थन न देने वाली जनता को कोस रहे हैं, पर यह तर्कसंगत नहीं है। मतदाताओं को अपनी रुचि के अनुसार मतदान का अधिकार है, लेकिन इस प्रसंग पर इतनी प्रतिक्रिया भर ही काफी नहीं है। इंटरनेट मीडिया का कोलाहल शीघ्र ही शांत हो जाएगा, बाकी रह जाएगा एक प्रश्न, जो कहीं अधिक गहरा और अर्थपूर्ण होगा।

लोकतंत्र की राजनीति प्रतीकों से जिंदा रहती है। बहुमत की कामना अधिकांश जन को आकृष्ट और सहमत करने की चेष्टा करती है। इस चेष्टा में बृहत्तर प्रतीकों को चुना जाता है। भाजपा ने धर्मविग्रह श्रीराम का नाम, उनका धाम और उनकी जन्मभूमि की प्रतिष्ठा को नारा बनाया। यह एक असाधारण प्रयोग था जिसने पीढ़ियों की पीड़ा, प्रयत्न और प्रार्थनाओं को मानो स्वर दे दिया। श्रीराम का नाम सभी प्रकार की चारित्रिक जातीय अस्मिताओं के पार तक व्याप्त और प्रभावी है। पांच सौ वर्षों की आस्थापरक त्रासदी, सैकड़ों वर्षों से अधिक का संघर्ष, कई दशकों से अपनी एक थोपी हुई पहचान में बंदिनी अयोध्या के जैसे दिन बहुरे। जो कल्पनातीत था, वह हुआ। श्रीरामजन्मभूमि पर श्रीरामलला विराजमान हुए। देश उत्सवमय हो गया।

भाजपा ने अपनी घोषित प्रतिज्ञाओं को पूरा करते हुए कीर्तिमान रच दिए, परंतु धर्म का वह प्रतीक संक्रमित होने लगा। नेताओं के चेहरे श्रीराम से बड़े प्रतीक के रूप में उभरने लगे। अयोध्या का इतिहास तिरोहित होने लगा। श्रीराम की आध्यात्मिक अयोध्या पर भारी बजट वाली एक और चमकदार अयोध्या मढ़ी जाने लगी। भूमि, राजस्व, बाजार, निवेश और विकास जैसी शब्दावली से भरी हुई एक दूसरी रामायण लिखी जाने लगी। इसमें अयोध्या की उपासना, मंदिरों के अनुशासन, अयोध्यावासियों की प्रकृति और बैरागियों की सराय कही जाने वाली इस नगरी की सुगंध बेमानी हो चली।

एक नई अयोध्या बसने लगी, एक बसी हुई अयोध्या विस्थापित होने लगी। सड़कें, होटल, बाजार, यात्री-सुविधाएं और पर्यटन के सापेक्ष बसती हुई अयोध्या से इसकी पुराकथाओं के चरित्र विस्थापित होने लगे। इस नई और चमकदार अयोध्या के तर्क इतने धारदार और दावे इतने प्रबल हैं कि विस्थापित होती अयोध्या निःशब्द हो रही। कुछ लोग दौड़े-चिल्लाए, पर लाभार्थी, लोभार्थी कहकर उनको तात्कालिक-अंतरिम समाधान दे दिया गया। यह एक प्राचीन पुरी के चरित्र बदलने जैसी बात है। राष्ट्रीय फलक पर इस चमकती हुई अयोध्या का प्रकाश तो गया, परंतु कसमसाती हुई अयोध्या की बेचैनी नहीं जा सकी। जब किसी ने इस बेचैनी को स्वर देना भी चाहा तो सरकार से पहले उसके समर्थकों ने ही उसे चुप करा दिया।

यह कहना नासमझी होगी कि भाजपा के नीति-नियामक इस स्थिति से अवगत नहीं, परंतु राजनीतिक बढ़त की लहर में यह मुद्दा उनके लिए नगण्य हो गया। स्थानीय विपक्ष ने अयोध्या के इस यथार्थ का उपयोग किया। उसने भय और आशंकाओं को अपना शस्त्र बनाया, जिसका सार्थक प्रतिवाद भाजपा संगठन नहीं कर सका। ऐसा नहीं कि उनके पास सही उत्तर न रहे हों, वे वस्तुतः इसको लेकर पर्याप्त गंभीर ही नहीं हुए। यह देखना भी रोचक होगा कि सामान्य चुनाव की इस योजना में जहां प्रति व्यक्ति मतदान का आग्रह होता है, वहां स्थानीय प्रचार भी प्रतीकात्मक हो गए, जिन्हें प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की यात्राओं से संपन्न मान लिया गया। यह वह छिद्र है जिससे अनर्थ बहुलता तक पहुंच गया। आज जब समय ने सोचने के लिए बाध्य किया है तो सारी बातें समझे जाने की अपेक्षा है।

यह समझना होगा कि अयोध्या ने भाजपा प्रत्याशी को नहीं हराया। वस्तुतः अत्यधिक आत्मविश्वास या सांगठनिक कार्ययोजना में प्रमाद के कारण वह अपनी जीत को हस्तगत नहीं कर सके। यही वह मूल बिंदु है, जिस पर ध्यान जाने से भाजपा को पराजय के सूत्र मिल सकते हैं। इस बात को एक और प्रमाण से समझा जा सकता है कि गत विधानसभा चुनाव में भाजपा प्रत्याशी की जीत को संदिग्ध मानकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उच्च पदाधिकारियों का पूरा समूह अयोध्या के चुनाव को संभालने में लगा था तो क्या कारण था कि लोकसभा के लिए वैसे प्रयत्न नहीं किए जा सके।

जो अंतर्विरोध और चुनौतियां सामान्य जन को दिख रही थीं, उनको लेकर संगठन उदासीन कैसे रहा? आज परिणाम देखकर बचाव के तर्क खोजने के स्थान पर यदि सही समीक्षा का दायित्व लिया जाए तो कल्याण का मार्ग मिल सकता है। यह दोहराने में कोई संकोच नहीं कि भाजपा संगठन और मोदी-योगी की जोड़ी ने अयोध्या के लिए जो किया वह अपूर्व है, परंतु इस अपूर्व को करने में जो व्यावहारिक त्रुटियां हैं उनकी उपेक्षा के स्थान पर उनका समाधान करना ही चाहिए। यदि किसी भी शासनकाल में श्रीराम को अपना राजा मानने वाली अयोध्या की आध्यात्मिकता छिन जाएगी तो उसका कोई भी विकास सराहनीय नहीं होगा।

(लेखक सिद्धपीठ, श्रीहनुमन्निवास अयोध्या के महंत हैं)