[ अवधेश कुमार ]: झारखंड विधानसभा चुनाव में हार के साथ ही भाजपा के हाथ से एक और राज्य की सत्ता फिसल गई। जहां जीत में कई कमियां छिपी रह जाती हैं वहीं हार की स्थिति में एक-दूसरे पर ठीकरा फोड़ने का सिलसिला शुरू हो जाता है। पराजित मुख्यमंत्री रघुवर दास इसकी अपनी वजहें गिना रहे हैं वहीं जीत के नायक बने झारखंड मुक्ति मोर्चा यानी झामुमो नेता हेमंत सोरेन भाजपा की नीतियों को दोष दे रहे हैं। उन्होंने कहा कि पहले भाजपा ने नोटबंदी के लिए लोगों को लाइन में लगाया और अब एनआरसी के जरिये फिर वही दोहराने की फिराक में है। वह अपनी जीत के लिए केंद्र सरकार को आड़े हाथ ले रहे हैं।

राष्ट्रीय मुद्दे भाजपा की हार का कारण नहीं बने

क्या यह माना जा सकता है कि नागरिकता कानून और संभावित एनआरसी के अलावा उस नोटबंदी का भी भाजपा की इस हार में योगदान रहा जिसे अतीत में उसकी कई जीतों का श्रेय दिया गया था? प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने राष्ट्रीय महत्व के कई मुद्दे विधानसभा चुनाव में प्रखरता से उठाए। इनमें नागरिकता संशोधन कानून, अयोध्या में मंदिर निर्माण, तीन तलाक कानून और अनुच्छेद 370 को खत्म करने जैसे मसले शामिल थे। इन पर यदि आज भी राज्य में सर्वेक्षण करा लिया जाए तो शायद उनके पक्ष में बहुमत मिलेगा। कहने का तात्पर्य यह कि ये मुद्दे चुनाव में थे जरूर, लेकिन केवल यही हार का कारण नहीं बने।

भाजपा की हार की सबसे बड़ी वजह झामुमो-कांग्रेस का मजबूत गठबंधन

भाजपा की हार की वजहों में सबसे बड़ी वजह यह रही कि उसके समानांतर झामुमो, कांग्रेस और राजद का एक मजबूत गठबंधन बना। इससे भाजपा विरोधी मतों में बिखराव नहीं हुआ। झामुमो ने अपने लिए अधिकांश ग्रामीण और कांग्रेस को शहरी सीटें देकर अच्छा रणनीतिक प्रयोग किया। आजसू से भाजपा का गठबंधन न होने का भी कुछ असर हुआ, किंतु ये सब भी उतने प्रभावी नहीं।

झारखंड चुनाव में विद्रोही नेताओं ने दी भाजपा को पटकी

झारखंड के जनादेश को समझने के लिए हमें बीते दिनों हरियाणा और महाराष्ट्र के नतीजों पर भी नजर डालनी होगी। हालांकि तीनों राज्यों की राजनीतिक स्थिति और सामाजिक-जातीय समीकरण बिल्कुल अलग हैैं, लेकिन भाजपा के लिए कुछ कारक यहां एकसमान रहे। जैसे हरियाणा में भाजपा के 16 बागी उम्मीदवार थे जिनमें से छह जीत भी गए और शेष ने भाजपा को हराने में भूमिका अदा की। महाराष्ट्र में भी पार्टी के 50 से अधिक बागी उम्मीदवार चुनावी रण में थे। झारखंड में भी इस बार भाजपा के 50 से अधिक विद्रोही चुनावी मैदान में थे। खुद मुख्यमंत्री के खिलाफ उनकी कैबिनेट में मंत्री रहे सरयू राय ताल ठोंक रहे थे। वह जीत भी गए। भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष भी बागी उम्मीदवार बने।

संथाल परगना में विद्रोही उम्मीदवारों ने बिगाड़ा भाजपा का गणित

एक उदाहरण देखें: संथाल परगना में भाजपा और झामुमो के बीच हमेशा कांटे की टक्कर रही है जिसमें भाजपा अच्छा प्रदर्शन करती रही है। यहां की 16 सीटों में से भाजपा के 11 विद्रोही खड़े थे। इतनी संख्या में कहीं भी विद्रोही खड़े हो जाएं तो फिर पार्टी के लिए बेहतर प्रदर्शन करना मुश्किल है। आखिर इतनी संख्या में विद्रोही क्यों खड़े हुए? पार्टी में इतने व्यापक असंतोष के क्या कारण थे? पांच साल की भाजपा सरकार में किसी बड़ी गड़बड़ी या घोटाले की कोई खबर नहीं आई। स्थानीय लोग बताते रहे कि केंद्र की योजनाएं जमीन तक पहुंची हैं। सड़क, बिजली और पानी की व्यवस्था बेहतर हुई। प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत घर बने। किसान सम्मान निधि तो किसानों तक पहुंची ही, प्रदेश सरकार ने भी मदद की। इन सबसे बढ़कर माओवादी हिंसा में व्यापक कमी आई, फिर भी नतीजा प्रतिकूल रहा।

छोटा नागपुर में धर्मांतरित आदिवासियों का मत एकमुश्त भाजपा के खिलाफ गया

जो लोग आदिवासी और गैर-आदिवासी की बात कर रहे या छोटा नागपुर टिनेंसी एक्ट को हार की वजह बता रहे वे इन क्षेत्रों में भाजपा को मिले मतों पर गौर करें। यह ठीक है कि धर्मांतरित आदिवासियों का मत एकमुश्त भाजपा के खिलाफ गया और चर्च की भी भूमिका रही, मगर ये कारक पहले भी रहे हैं।

भाजपा स्वयं से हारी, रघुवर दास को लेकर आंतरिक असंतोष

हार के असल कारणों की तलाश करें तो यही सार निकलेगा कि भाजपा स्वयं से हारी है। प्रधानमंत्री मोदी ने 2014 से राज्यों के मुख्यमंत्रियों के रूप में लीक से हटकर प्रयोग किए। इसी कड़ी में महाराष्ट्र में गैर-मराठा देवेंद्र फड़नवीस, हरियाणा में गैर-जाट मनोहरलाल और झारखंड में गैर-आदिवासी रघुवर दास को मुख्यमंत्री बनाया। लगता है कि इस प्रयोग की भी पार्टी को कुछ कीमत चुकानी पड़ी। रघुवर दास को लेकर आंतरिक असंतोष की खबरें भी गाहे-बगाहे आती रहीं। यह शिकायत भाजपा शासित दूसरे राज्यों में भी आम देखी गई है कि राज्य ईकाई में सिरफुटौव्वल के बावजूद नेता और कार्यकर्ता राष्ट्रीय चुनावों में मोदी के नाम पर एकजुट हो जाते हैं।

भाजपा कार्यकर्ताओं का एक बड़ा हिस्सा रघुवर दास के बजाय सरयू राय के पीछे लामबंद था

भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के पास रघुवर दास की यदाकदा शिकायतें भी पहुंचीं, लेकिन उनका सही निदान नहीं किया गया। झारखंड के मंत्रियों की हालत भी चुनाव में पतली रही। इससे पहले हरियाणा में भी यही दिखा, जब भाजपा के अधिकांश मंत्री चुनाव हार गए। मंत्रियों के अलावा भाजपा अध्यक्ष तक की दुर्दशा बताती है कि राज्य में नेतृत्व को लेकर कितना गहरा असंतोष था। कहा जा रहा है कि भाजपा कार्यकर्ताओं का एक बड़ा हिस्सा रघुवर दास के बजाय सरयू राय के पीछे लामबंद था। ऐसे आंतरिक असंतोष को लेकर भाजपा नेतृत्व को गंभीर आत्ममंथन करना होगा, अन्यथा भविष्य में उसके लिए और मुश्किलें बढ़ सकती हैं।

भाजपा की हार का एक बड़ा कारण प्रदेश स्तर पर मोदी जैसे नेताओं का अभाव है

हार के कारणों पर थोड़ी और गहराई से विचार करने पर और कुछ पहलू भी सामने आते हैं। पीएम मोदी ने अपने चुनावों में जातीय एवं क्षेत्रीय कारकों को एक हद तक कमजोर किया है। वह राष्ट्रीयता से जुड़ा माहौल बनाकर स्थानीय अस्मिता को भी राष्ट्रीय धारा की ओर मोड़ने में काफी हद तक सफल हुए, मगर इनका लाभ लोकसभा चुनाव में ही अधिक मिलता दिखा है। ऐसे में भाजपा की हार का एक बड़ा कारण प्रदेश स्तर पर मोदी जैसे नेताओं का अभाव है जो राज्य की मजबूती से कमान संभाल सकें।

रघुवर दास सभी जातियों-समुदायों के नेता नहीं बन सके

झारखंड के गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री के रूप में रघुवर दास का दायित्व था कि वह ऐसा परिवेश बनाते जिसमें सभी तबकों को लगता कि वह सभी जातियों-समुदायों के नेता हैं। इस तरह के लक्ष्य से काम करने वाली सरकार का चरित्र भी थोड़ा भिन्न होता है। ऐसे में सरकार एवं संगठन के बीच पूरी तरह समन्वय भी कायम रहता है और इससे उस असंतोष की चिंगारी भी नहीं भड़कती जो अक्सर सत्ता के ख्वाब को स्वाहा कर देती है।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं )