ब्रिगेडियर आरपी सिंह। यह अच्छा हुआ कि शंघाई सहयोग परिषद की बैठक में प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान को यह संदेश देने में संकोच नहीं किया कि आतंकवाद का साथ छोड़े बगैर उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। यह वही मोदी हैैं जिन्होंने पांच साल पहले बतौर प्रधानमंत्री अपने शपथ ग्रहण समारोह में दक्षेस देशों के नेताओं को आमंत्रित किया था। उनमें पाकिस्तान भी शामिल था, मगर अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत से पहले शपथ ग्रहण समारोह में उन्होंने बंगाल की खाड़ी के लिए बहु-क्षेत्रीय तकनीकी एवं आर्थिक सहयोग पहल यानी बिम्सटेक के सदस्य देशों के राष्ट्र प्रमुखों के अलावा किर्गिस्तान के राष्ट्रपति और मॉरीशस के प्रधानमंत्री को आमंत्रित किया।

पाकिस्तान को दूर रखना चाहता था भारत
ऐसा इसलिए, क्योंकि मोदी पाकिस्तान को इससे दूर रखना चाहते थे। इसलिए इस्लामाबाद को सीधे तौर पर खारिज करने के बजाय मोदी ने कूटनीतिक दांव खेलकर बिम्सटेक के नेताओं को बुलाया। दक्षेस में अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, भारत, श्रीलंका और मालदीव शामिल हैं। वहीं बिम्सटेक में अफगानिस्तान, पाकिस्तान और मालदीव को छोड़कर दक्षेस के सभी सदस्य देश हैं। उनके स्थान पर इसमें म्यांमार और थाईलैंड को जोड़ा गया है।

दक्षेस की स्थापना
1985 में बांग्लादेश की पहल पर सात देशों ने मिलकर दक्षेस की स्थापना की थी। 2007 में अफगानिस्तान को आठवें सदस्य के रूप में शामिल किया गया। दक्षेस के लक्ष्य स्पष्ट थे। इसका मकसद दक्षिण एशियाई लोगों का कल्याण और उनके जीवन स्तर में सुधार करना था। इस क्षेत्र में आर्थिक वृद्धि को तेजी देने के साथ ही सामाजिक प्रगति और सांस्कृतिक विकास को बढ़ावा देना भी इसके एजेंडे में था। कुल मिलाकर इस संगठन का मकसद दक्षिण एशियाई देशों में परस्पर विश्वास का भाव बढ़ाकर सर्वांगीण विकास में जुटना था, मगर अपने 34 वर्षों के उथल-पुथल भरे इतिहास में दक्षेस अपने इन प्रमुख लक्ष्यों को हासिल करने में नाकाम रहा।

दक्षेस के दो बड़े सदस्य भारत और पाकिस्तान
कुछ सेवानिवृत्त नौकरशाहों और प्रोफेसरों के लिए रोजगार का अवसर बनाने के सिवाय दक्षेस जुबानी जमाखर्च के अड्डे से ज्यादा कुछ साबित नहीं हुआ। ऐसा इसलिए, क्योंकि दक्षेस के दो सबसे बड़े सदस्य देश भारत और पाकिस्तान में हमेशा तनातनी रही। मोदी सरकार के पिछले पांच साल के कार्यकाल में दक्षेस की एक बैठक तक नहीं हुई, क्योंकि मोदी ने तब तक पाकिस्तान जाने से इन्कार कर दिया जब तक वह अपनी धरती पर चलने वाले आतंकी संगठनों पर कार्रवाई नहीं करता। इस तरह दक्षेस ने अपनी प्रासंगिकता खो दी।

भारत को ईरान के साथ मिलकर निकालना पड़ा समाधान
मोदी ने अपना ध्यान दक्षिण पूर्व एशिया और सुदूर पूर्व पर केंद्रित किया है जिसमें आसियान देश शामिल हैं। पाकिस्तान के अड़ियल रवैये ने पश्चिम एशिया और चारों ओर जमीन से घिरे मध्य एशियाई देशों और यहां तक कि अफगानिस्तान से भारत के सड़क संपर्क में अवरोध पैदा कर दिए हैैं। इसका समाधान भारत को ईरान के साथ मिलकर निकालना पड़ा। उसने चाहबार में एक अत्याधुनिक बंदरगाह विकसित किया। उसे रेल और सड़क के माध्यम से मध्य एशिया तक जोड़ा गया है। इसे इंटरनेशनल नॉर्थ-साउथ कॉरिडोर का नाम दिया गया है।

पीएम मोदी की 'एक्ट ईस्ट' नीति
यह साफ है कि दूसरे कार्यकाल में मोदी ने ‘एक्ट ईस्ट’ नीति को अपनी प्राथमिकता में रखा है। बिम्सटेक देशों की 160 करोड़ की आबादी दुनिया की कुल जनसंख्या का 21 प्रतिशत है। इनका कुल जीडीपी 2.5 लाख करोड़ (ट्रिलियन) डॉलर की है। किर्गिस्तान फिलहाल शंघाई सहयोग संघठन का अध्यक्ष देश है जो बिश्केक में इसकी मेजबानी कर रहा है।

बिश्केक में भारत ने पाकिस्तान से बनाई दूरी
बिश्केक में भी मोदी ने पाकिस्तान से दूरी बनाए रहने के संकेत दिए। दरअसल प्रधानमंत्री मोदी पाकिस्तान को यह संदेश देने में लगे हुए हैैं कि भारत की ‘पड़ोसी प्रथम’ की नीति में इस्लामाबाद कहीं नहीं है। बिम्सटेक देशों में भारत ने अभी तक अपनी सॉफ्ट पावर ही इस्तेमाल की है। वहीं चीन ने अपनी वित्तीय ताकत का इस्तेमाल करते हुए इन देशों में बुनियादी ढांचे और तकनीकी नेटवर्क विकसित किया है। मगर चीनी अर्थव्यवस्था में सुस्ती और अमेरिका के साथ उसके व्यापार युद्ध ने भारत को एक बढ़िया अवसर प्रदान किया है कि वह अपनी खोई जमीन हासिल करे।

बिम्सटेक देशों में चीन
अपने पहले कार्यकाल में मोदी ने बिम्सटेक देशों को चीन के जाल में न फंसने से बचाने के लिए तमाम प्रयास किए। ऐसे में मोदी के शपथ ग्रहण में इन देशों के नेताओं को मिले न्योते के खास मायने हैं। 2015-16 में भारत-नेपाल सीमा पर की गई नाकेबंदी ने नेपाली राष्ट्रवादियों का मिजाज बिगाड़ दिया था। वे लंबे अर्से से चीन के साथ नजदीकियां बढ़ाने की हिमायत करते आए हैं। मोदी ने सांस्कृतिक समीपता के माध्यम से नेपाल को साधा।

भारत और नेपाल के बेहतर संबंध
चूंकि कोलकाता के रूप में भारत नेपाल को सबसे करीबी बंदरगाह मुहैया कराता है तो इससे उसे प्राकृतिक मोर्चे पर बढ़त हासिल होती है, क्योंकि चीन का सबसे नजदीकी बंदरगाह नेपाल से 3,000 किलोमीटर दूर है। इस मामले में चीन की काट जरूरी थी, क्योंकि नेपाल और चीन के बीच एक रेल लाइन के प्रस्ताव को पहले ही मंजूरी मिल चुकी है। वहीं चीन-क्विंगल-तिब्बत रेलमार्ग के जरिये हजारों चीनी पर्यटक नेपाल जा रहे हैं। बांग्लादेश भारत का निकट सहयोगी रहा है, लेकिन हाल में चीन के साथ उसकी नजदीकी बढ़ी है।

श्रीलंका और भारत के बीच बढ़ी नजदीकियां
हालांकि बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में उसने चीनी निवेश के लिए लाल कालीन जरूर बिछाई, लेकिन भारत की संवेदनाओं से ढाका भलीभांति परिचित है। वर्ष 2016 में बांग्लादेश चीन द्वारा बंदरगाह विकसित करने के प्रस्ताव को भारत की असहजता के बाद खारिज कर चुका है। वहीं श्रीलंका चीनी कर्ज के जाल में फंसने के कारण हंबनटोटा बंदरगाह नहीं बचा पाया। हालांकि हालिया आतंकी हमलों के बाद श्रीलंका की भारत से नजदीकी बढ़ी है। एलटीटीई और भारतीय शांति सेना को लेकर कुछ ऐतिहासिक अनबन ने दोनों देशों के रिश्तों को जटिल बना दिया था, लेकिन श्रीलंका को लुभाने के लिए भारत पुरजोर प्रयासों में जुटा है जिसके अच्छे परिणाम भी निकल रहे हैं।

एएनसी की काट में जुटा चीन
म्यांमार और थाईलैंड भारत और चीन दोनों के लिए रणनीतिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण हैं। पश्चिम एशिया से होने वाला चीन का अधिकांश तेल आयात मलक्का स्ट्रेट से गुजरता है। चीन इस मार्ग का विकल्प तैयार करना चाहता है। भारत ने अपनी अंडमान एवं निकोबार कमान (एएनसी) को इसके मुहाने पर तैनात कर रखा है। ऐसे में चीन को आशंका है कि भारत के साथ तनाव बढ़ने पर एएनसी इस मार्ग पर उसकी राह रोक सकती है। एएनसी की काट तलाशने के लिए बीजिंग ने बंगाल की खाड़ी में म्यांमार के बंदरगाह क्याउफाउ में चीन-म्यांमार तेल एवं प्राकृतिक गैस पाइपलाइन को युनान प्रांत में कनमिंग से जोड़ा है।

भूटान भारत के काफी करीब
भारत थाईलैंड को अपने पाले में लाने की कोशिश करता रहा है। 2018 में उसे इसका फल भी मिल गया जब थाई प्रधानमंत्री ने कहा कि चीन की प्रस्तावित नहर उनकी प्राथमिकता नहीं। बिम्सटेक देशों में भूटान ही भारत का इकलौता और घोषित मित्र है। वह भारत के भौगोलिक दायरे के साथ ही सांस्कृतिक रूप से भी करीब है। चीन भले ही बिम्सेटक का सदस्य न हो, लेकिन इस क्षेत्र में सक्रिय जरूर है। नई मोदी सरकार अपने पड़ोस में चुनौती को समझते हुए उसे सुलझाने के प्रति गंभीर है।

 
(लेखक सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी हैं)

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