[विवेक ओझा]। वर्ष 2001 में अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर तालिबानी आतंकी हमले के बाद अमेरिका की विदेश नीति वैश्विक आतंकवाद उन्मूलन केंद्रित हो गई। अमेरिका के नेतृत्व में नाटो देशों के सैनिकों से बनी अंतरराष्ट्रीय फौजों की ऑपरेशन एन्ड्योरिंग फ्रीडम के जरिये अफगानिस्तान में तैनाती हुई। नाटो ने इसके लिए अपने सामूहिक सुरक्षा प्रावधान (अनुच्छेद 5) के जरिए 9/11 की आतंकी घटना का प्रतिकार किया। यह प्रावधान कहता है कि नाटो के किसी एक सदस्य पर किया गया हमला पूरे नाटो पर किया गया हमला माना जाएगा और नाटो उसका जवाब देगा।

नाटो की सेनाओं के अलावा अमेरिका के नेतृत्व में ग्लोबल काउंटर टेररिज्म फोरम का गठन किया गया और इस 30 देशों वाले फोरम का सदस्य भारत भी है। इसके अलावा अमेरिका ने अपने भूक्षेत्र में आतंकियों को रोकने के उद्देश्य से फॉरेन टेररिस्ट ट्रैकिंग टास्क फोर्स का गठन किया था। उल्लेखनीय है कि नाटो यानी नॉर्थ एटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन एक सैन्य गठबंधन है जिसकी स्थापना वर्ष 1949 में की गई थी। इसका मुख्यालय ब्रुसेल्स (बेल्जियम) में है। संगठन ने सामूहिक सुरक्षा की व्यवस्था बनाई है जिसके तहत सदस्य राज्य बाहरी हमले की स्थिति में सहयोग करने के लिए सहमत होंगे।

भारत अमेरिका सामरिक समझौता

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन और भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में भारत-अमेरिका के बीच अच्छे रिश्तों की शुरुआत की नींव रखी गई और 2001 के बाद दोनों देश सामरिक साझेदार बन गए। वर्ष 2004 में सामरिक साझेदारी के अगले चरण पर समझौता हुआ जिसका मतलब था दोनों देशों के बीच असैन्य नाभिकीय सहयोग, मिसाइल प्रतिरक्षा संबंध, असैन्य अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी सहयोग और उच्च प्रौद्योगिकी व्यापार के क्षेत्र में सहयोग हो सकेगा। वर्ष 2008 में भारत को नेचुरल पार्टनर का दर्जा मिला, 2016 में ग्लोबल स्ट्रेटेजिक पार्टनर और मेजर डिफेंस पार्टनर का दर्जा अमेरिका ने दिया। इन सब कामों के साथ भारत को नाटो से जोड़ने के पीछे अमेरिका के दीर्घकालिक हित काम कर रहे हैं।

एशिया प्रशांत क्षेत्र में चीन को संतुलित करने के तरीके अमेरिका लगातार खोज रहा है। चीन के दक्षिण चीन सागर के स्पार्टले और पारासेल द्वीपों और पूर्वी चीन सागर में सेनकाकू द्वीपों पर अवैध कब्जे का प्रयास, चीन द्वारा पापुआ न्यूगिनी में नौसैनिक अड्डे के निर्माण का प्रस्ताव, वन बेल्ट वन रोड पहल, मैरीटाइम सिल्क रूट, मोतियों की लड़ी की नीति के जरिये समूचे हिंद महासागर को अड्डों का नेटवर्क बनाने का प्रयास जैसे तथ्य अमेरिका के हित में नहीं है। इस दृष्टि से भारत को नाटो से जोड़कर अमेरिका क्वाड्रीलैटरल ग्रुप और मालाबार जैसे संयुक्त अभ्यासों को एशिया पैसिफिक क्षेत्र को बचाने के लिए नई ऊर्जा भर सकता है। अमेरिका और भारत दोनों के अफगानिस्तान में सामरिक हित हैं।

आतंक से निपटने में मददगार

वर्ष 2014 में अमेरिका के नेतृत्व में 79 देशों के ग्लोबल कोएलिशन टू डिफीट आइएस का गठन किया गया, इस गठजोड़ का नाटो भी सदस्य है। आइएस ने हाल के समय में अफगानिस्तान और अन्य जगहों पर भारतीयों को बंधक बनाया, कश्मीर में नए प्रांत बनाने का दावा किया। इस खतरे से निपटने के लिए नाटो से जुड़ाव कारगर रहेगा। अफगनिस्तान में आइएस खोरासान से निपटने और तहरीक-ए-तालिबान से निपटने के लिए भी यह जरूरी है। अफगानिस्तान, पाकिस्तान और ईरान की सीमाओं पर नशीले पदार्थों की तस्करी, अतिवाद, धार्मिक कट्टरता आदि से निपटना नाटो और भारत दोनों के लिए जरूरी है। भारत को आज गिलगित

बाल्टीस्तान, डोकलाम, तवांग, सरक्रीक की सुरक्षा के लिए जो सैन्य सूचना सहयोग चाहिए, उसका मार्ग नाटो से जुड़ाव से खुलेगा। वर्ष 2016 में भारत को प्रमुख सैन्य साझेदार का दर्जा मिलने और उसके पहले व बाद में किए गए चार प्रतिरक्षा समझौते इस बात को सिद्ध करते हैं कि अमेरिका ने भारत को नाटो से जोड़ने की

बात काफी पहले सोची होगी।

वर्ष 2002 में भारत अमेरिका ने जनरल सिक्योरिटी ऑफ मिलिट्री इंफॉर्मेशन एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर किया जबकि 2018 में पहली टू प्लस टू वार्ता के तहत कॉमकासा एग्रीमेंट किया गया। कम्युनिकेशन कंपैटीबिलिटी एंड सिक्योरिटी एग्रीमेंट दोनों देशों के मध्य सैन्य सूचना सटीक समय पर साझा करने का समझौता है। इससे भारत को समुद्री निगरानी में मदद मिलेगी। अनेक संबंधित जानकारियों को भारतीय नौसेना मुख्यालय पर 2019 में ही स्थापित कम्युनिकेशन सिस्टम तक रियल टाइम में पहुंचा दी जाएगी। यदि दोनों देशों के लिए घातक कोई आतंकी किसी तीसरे देश में योजना बना रहा है तो इसकी भी सूचना मिनटों में पहुंचा दी जा सकेगी। इसके साथ ही दोनों देशों ने 2016 में लीमोआ समझौता यानी लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एसोसिएशन पर हस्ताक्षर किया जिसका मूल उद्देश्य एक दूसरे को सैन्य अभियानों के समय जरूरी उपकरण का विनिमय करना है।

दोनों देशों ने बेसिक एक्सचेंज एंड कॉपरेशन एग्रीमेंट किया है। इसके जरिये भारत अमेरिका के भूस्थानिक मानचित्रों का इस्तेमाल कर ऑटोमेटेड हार्डवेयर सिस्टम्स और क्रूज एवं बैलिस्टिक मिसाइलों की सटीक सैन्य जानकारी प्राप्त कर सकेगा। इस प्रकार ये चार प्रतिरक्षा समझौते भारत और नाटो के संबंधों को और मजबूती देने के लिए एक उत्प्रेरक की भूमिका निभा रहे हैं। इससे भारत का वैश्विक और क्षेत्रीय सुरक्षा परिदृश्य में बढ़ता महत्व साफ नजर आता है। नाटो भारत के लिए इसलिए भी उपयोगी है, क्योंकि उसकी आतंकवाद निरोधी नीति दिशानिर्देश इस गठबंधन को तीनों बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित करने के लिए कहती है- जागरूकता, क्षमता और संलग्नता। नाटो के पास उसके मुख्यालय ब्रुसेल्स में एक आतंकवाद सूचना प्रकोष्ठ है जो नाटो के सभी आतंक निरोधी गतिविधियों में समन्वय स्थापित करता है। यह अपने अवाक्स इंटेलिजेंस फ्लाइट्स के जरिये भी आतंक से लड़ने में निपुण है। हिंद महासागर और प्रशांत क्षेत्र में समुद्री डकैती से निपटने में भी नाटो भारत का बेहतर सहयोगी साबित हो सकता है।

अमेरिकी बाजार पर असर

आखिर अमेरिका अचानक आर्थिक मोर्चे पर हमलावर क्यों हो गया है। भारत और अमेरिका के बीच वस्तुओं और सेवाओं के द्विपक्षीय व्यापार में व्यापार संतुलन भारत के पक्ष में है। यानी भारत का अमेरिका में निर्यात ज्यादा है और भारतीय बाजार में अमेरिकी वस्तुओं का आयात कम होता है। वर्ष 2017 में दोनों देशों का द्विपक्षीय व्यापार 126 बिलियन डॉलर था जो 2018 में 142 बिलियन डॉलर पहुंच गया। वर्ष 2017 में अमेरिका ने 77.2 बिलियन डॉलर मूल्य के भारतीय वस्तुओं व सेवाओं का आयात किया जबकि इसी वर्ष भारतीय बाजार में अमेरिकी निर्यात 48.8 बिलियन डॉलर ही रहा। इस असंतुलन से अमेरिका ने भारत पर आरोप लगाया कि वह अमेरिकी वस्तुओं को समतामूलक बाजार पहुंच नहीं दे रहा है।

दरअसल अमेरिका जीएसपी और अन्य कार्यक्रमों के द्वारा दुनिया भर के देशों को जिस तरह से शुल्क मुक्त बाजार पहुंच देता है उससे वर्तमान में उसका व्यापारिक घाटा रिकॉर्ड 891 बिलियन डॉलर पहुंच गया है। इसी बीच वह चीन से भी व्यापार युद्ध में उलझा हुआ है। अमेरिका का आरोप है कि चीन भी अमेरिकी वस्तुओं और सेवाओं को समतामूलक बाजार पहुंच अपने यहां नहीं देता है। अमेरिका और चीन के मध्य द्विपक्षीय वस्तु और सेवा व्यापार 2018 में 737.1 बिलियन डॉलर रहा है। अमेरिका ने कुल 557.9 बिलियन डॉलर मूल्य के चीनी वस्तु और सेवाओं का आयात किया जबकि चीन के बाजार में अमेरिका का निर्यात मात्र 179.3 बिलियन डॉलर रहा। यहां भी व्यापार संतुलन चीन के पक्ष में है। ट्रंप को यह बात पसंद नहीं आई और उन्होंने 2018 में 250 बिलियन डॉलर मूल्य वाले चीनी वस्तुओं पर टैरिफ 10 प्रतिशत से बढ़ा कर 25 प्रतिशत कर दिया।

आखिर वह करें भी क्यों नहीं, क्योंकि चीन से अमेरिका का व्यापार घाटा 420 बिलियन डॉलर का जो है। इसके पहले अमेरिका ने एल्यूमीनियम और स्टील पर टैरिफ रेट बढ़ा दिया था और यूरोप के देशों और कनाडा व मैक्सिको से भी अमेरिका की व्यापारिक तनातनी बनी रही। इसी को दुनिया ट्रंप कीआर्थिक संरक्षणवादी नीति के नाम से जानती है। ट्रंप सरकार ने विकासशील देशों में भेदभाव मुक्त बाजार पहुंच सुनिश्चित करने की कवायद जारी रखते हुए भारत पर आरोप लगाया कि वह अमेरिका के हार्ले डेविडसन मोटरबाइकों पर भारी ड्यूटी लगाए बैठा है। भारत ने यह शुल्क हाल में 100 प्रतिशत से घटा कर 50 प्रतिशत कर दिया है, फिर भी अमेरिका को लगता है कि यह बहुत ज्यादा है।

अमेरिका भारत के अन्य देशों के साथ प्रतिरक्षा संबंधों में भी दखलंदाजी देने में लगा है। अमेरिका ने यह चेतावनी दी है कि यदि भारत रूस से एस यू-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम खरीदता है तो उसे इसका दंड भुगतने के लिए तैयार रहना होगा। ऐसे में भारत को सतर्क होकर निर्णय लेना पड़ेगा। भारत को अपने विदेश नीति के मूल सिद्धांतों, न्यूक्लियर डॉक्ट्रिन के आदर्शों को याद रखने की जरूरत है। साथ ही अपने भू-राजनीतिक, भू-आर्थिक और भू-सामरिक हितों की सुरक्षा के लिए नाटो के गठजोड़ का कोई अवसर भी हमें नहीं गंवाना चाहिए।

[अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार]

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