[संजय गुप्त]। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (CM Nitish Kumar) ने भाजपा से नाता तोड़कर फिर से महागठबंधन का साथ पकड़ा और आठवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। वह यह काम इसके पहले भी कर चुके हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले वह राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से बाहर आ गए थे। इसका कारण था नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनना। राजग से निकलने के बाद उन्होंने 2015 का विधानसभा चुनाव लालू यादव के नेतृत्व वाले महागठबंधन के साथ मिलकर लड़ा, लेकिन दो साल बाद उससे अलग होकर फिर भाजपा के साथ आ गए। जब उन्होंने ऐसा किया तो यह माना गया था कि उन्होंने प्रधानमंत्री बनने की अपनी इच्छा का परित्याग कर दिया है, लेकिन लगता है कि यह इच्छा कभी खत्म ही नहीं हुई।

जो भी हो, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ उनके रिश्ते सहज नहीं रहे। इसका एक कारण यह दिखता है कि वह मोदी सरकार पर वैसा दबाव डालने में सक्षम नहीं थे, जैसा वाजपेयी सरकार के समय थे। अटल बिहारी वाजपेयी के सामने गठबंधन सरकार चलाने की जो मजबूरियां थीं, वैसी कोई मजबूरी मोदी के समक्ष नहीं। अटल जी के समय भाजपा ने अपने मुख्य मुद्दों-अनुच्छेद 370, राम मंदिर और समान नागरिक संहिता को किनारे कर दिया था, लेकिन मोदी सरकार ने ऐसा नहीं किया।

रही-सही कसर इस बात ने पूरी कर दी कि 2020 के विधानसभा चुनाव में जदयू को भाजपा के मुकाबले कहीं कम 43 सीटें ही मिलीं। चूंकि भाजपा को अधिक सीटें मिलीं, इसलिए उसने विधानसभा अध्यक्ष के साथ दो उपमुख्यमंत्री भी बनाए। इनके साथ नीतीश की वैसी पटरी नहीं बैठ पाई, जैसी सुशील मोदी के साथ बैठती थी। नीतीश कुमार ने कहा भी कि यदि सुशील मोदी उपमुख्यमंत्री होते तो हालात दूसरे होते। पता नहीं उनके इस कथन में कितनी सच्चाई है, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि उनके और सुशील मोदी के बीच बेहतर समन्वय था।

नीतीश कुमार जैसी राजनीति करते आए हैं उससे यही लगता है कि वह किसी भी गठबंधन में हों, अपनी अहमियत सबसे अधिक मानते हैं और इसी कारण मुख्यमंत्री पद पर काबिज रहते हैं। यह भी स्पष्ट है कि वह दबाव की राजनीति का सामना नहीं कर पाते। वह पहले राजद के दबाव से आजिज आ गए थे और इस बार शायद भाजपा के दबाव से। जो भी हो, इस तर्क में कोई दम नहीं दिखता कि 2020 के चुनाव के बाद भाजपा ने उन्हें जबरन मुख्यमंत्री बनाया। यदि भाजपा उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाती तो शायद वह न जाने कब पाला बदलकर महागठबंधन के साथ चले जाते।

यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि सुशील मोदी की अनुपस्थिति में भाजपा और जदयू के बीच खटपट अधिक बढ़ी। जब अग्निपथ योजना का बिहार में उग्र और हिंसक विरोध हुआ तो नीतीश सरकार ने जैसी निष्क्रियता दिखाई, उसके चलते केंद्र सरकार को बिहार भाजपा के नेताओं की सुरक्षा के लिए केंद्रीय बलों के जवान तैनात करने पड़े। इसी के बाद यह साफ हो गया था कि जदयू-भाजपा के बीच सब कुछ ठीक नहीं। यह तब और स्पष्ट हुआ, जब नीतीश कुमार न तो अमित शाह की ओर से बुलाई गई मुख्यमंत्रियों की बैठक में शामिल होने दिल्ली आए और न ही राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के नामांकन दाखिल करने एवं उनके शपथग्रहण के समय। इसके बाद वह नीति आयोग की बैठक से भी अनुपस्थित रहे।

जदयू के कई नेताओं की ओर से यह जो कहा जा रहा है कि भाजपा आरसीपी सिंह (RCP Singh) के जरिये उनके दल में टूट कराना चाहती थी, उसमें कोई दम इसलिए नहीं दिखता, क्योंकि एक तो आरसीपी सिंह जनाधार वाले नेता नहीं और दूसरे, नीतीश ने जबसे उन्हें किनारे किया, तबसे उनकी राजनीतिक अहमियत खत्म हो गई थी।

तथ्य यह भी है कि यदि भाजपा किसी तरह जदयू के दो तिहाई विधायक तोड़ लेती तो भी अपनी सरकार नहीं बना पाती। जदयू नेताओं का एक आरोप यह भी है कि 2020 के चुनाव में भाजपा ने चिराग पासवान को उनके खिलाफ करके पार्टी को नुकसान पहुंचाया। नि:संदेह चिराग पासवान के कारण जदयू को नुकसान उठाना पड़ा था, लेकिन आखिर यह बात समझने में इतना समय क्यों लगा कि उनके पीछे भाजपा थी?

इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि नीतीश कुमार 2017 में जब महागठबंधन से बाहर निकले थे, तब न केवल इससे नाखुश थे कि लालू यादव प्रशासन में अनुचित हस्तक्षेप कर रहे हैं, बल्कि उन्होंने तेजस्वी यादव पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को बहुत गंभीर माना था। यह ध्यान रहे कि तेजस्वी अभी इन आरोपों से मुक्त नहीं हुए और न ही इसके आसार हैं कि राजद नेता अपने दबंगई वाले व्यवहार को रातोंरात छोडऩे वाले हैं।

बिहार में फिर से महागठबंधन सरकार बनने से विपक्षी दल उत्साहित हैं। उन्हें लग रहा है कि अब भाजपा को नुकसान होगा और 2024 में मोदी का फिर से प्रधानमंत्री बनना कठिन होगा। यह समय ही बताएगा कि 2024 में क्या होगा, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि लोकप्रियता के मामले में मोदी बिहार में भी बहुत आगे हैं और यह देखने में आया है कि जब लोकसभा चुनाव होते हैं तो वे मतदाता भी मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए वोट देते हैं, जो विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय दलों के साथ जाते हैं।

आठवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद नीतीश कुमार तेजस्वी यादव के साथ सहज तो दिख रहे हैं, लेकिन यह ध्यान रहे कि इस बार तेजस्वी (Tejsvi Yadav) राजनीतिक रूप से ताकतवर होने के साथ पहले से अधिक अनुभवी भी हैं। उनकी महत्वाकांक्षा और बढऩे वाली है। अगले विधानसभा चुनाव या उसके पहले ही वह मुख्यमंत्री बनना चाहेंगे।

फिलहाल यह कहना कठिन है कि वह प्रधानमंत्री पद के लिए नीतीश कुमार की कितनी जोरदार पैरवी कर पाएंगे, क्योंकि न तो कांग्रेस ऐसा चाहेगी और न ही तृणमूल कांग्रेस। यह ठीक है कि नीतीश कुमार की छवि पाक-साफ नेता की है और उन्होंने शुरू में बिहार में सुशासन भी दिया, पर पिछले दस वर्षों में सुशासन बाबू की उनकी छवि फीकी पड़ी है।

इसका कारण यह है कि इतने वर्षों तक मुख्यमंत्री रहने के बाद भी बिहार विकास के विभिन्न पैमानों पर देश के सबसे पिछड़े राज्यों में से एक है। बिहार में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं आ सका है। इसे बिहार की जनता भी समझ रही है। भले ही हर नई सरकार यह दावा करती हो कि वह विकास की एक नई गाथा लिखेगी, पर बिहार में अगले दो-तीन साल में कोई बहुत बड़ा बदलाव आने की उम्मीद नहीं है।

(लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं)